जब ग़ालिब ने बयां किया गदर का आंखों देखा हाल

मई 1857 में भारतीय इतिहास की वह महत्वपूर्ण घटना घटी, जिसे भारतीय जनता स्वाधीनता के प्रथम संग्राम के रूप में याद करती है, जबकि अंग्रेज़ों ने इसे सिपाही ग़दर या सैनिक विद्रोह का नाम दिया। इस क्रांति के बाद भारतीय मंच से तैमूर वंश का नाम हमेशा के लिए मिट गया और देश पर एक विदेशी शक्ति का आधिपत्य स्थापित हो गया।
मिर्ज़ा ग़ालिब भी इस परिवर्तन के प्रभावों से अछूते नहीं रह सके। दिल्ली के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में आए इस भीषण बदलाव ने उनकी शायरी और जीवन-दृष्टि को गहराई से प्रभावित किया।
सैनिक विद्रोह की घटनाओं पर उन्होंने अपने अनुभव को ‘दस्तन्बू’ में दर्ज किया है। आज मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि है।
कारतूस की अफवाह और विद्रोह की शुरुआत
पुराने राजवंश ताश के पत्तों की तरह ढह रहे थे। शासकों के तख्त आए दिन पलट रहे थे, और रातों-रात नए राजा-नवाब उभर रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के लिए यह समय किस्मत आज़माने का सुनहरा मौका था। कई वर्षों तक अंग्रेज़ और फ्रांसीसी भारत में अपने प्रभाव क्षेत्रों का विस्तार करने की होड़ में लगे रहे। इस प्रतिस्पर्धा में भाग्य ने अंग्रेज़ों का साथ दिया, और वह एक बड़े इलाके पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो गए।
जब ब्रिटिश सैनिक अधिकारियों ने सैनिकों को एक नए प्रकार के कारतूस देने का निर्णय लिया। इन कारतूसों को दांत से छीलकर खोलना पड़ता था। जल्द ही अफ़वाह फैल गई कि अंग्रेज़ों ने हिंदुओं और मुसलमानों को धर्म भ्रष्ट करने की साजिश रची है, क्योंकि इन कारतूसों में चिकनाई के लिए गाय और सूअर की चर्बी का उपयोग किया गया था।
लोगों को यह अच्छी तरह पता था कि अंग्रेज़ भारत में आने के बाद से यहां के निवासियों का धर्म परिवर्तन कराने और उन्हें बड़ी संख्या में ईसाई बनाने का प्रयास कर रहे थे। इसमें सच्चाई भी थी, क्योंकि 1833 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर को इसी उद्देश्य से नया रूप दिया गया था। अंग्रेज़ शासकों ने देश के विभिन्न भागों में स्कूल और कॉलेज स्थापित किए, जहां ईसाई धर्म की शिक्षा को नियमित पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बना दिया गया।
दिल्ली में, पुराने दिल्ली कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने खुलेआम ईसाई धर्म अपना लिया था। इनमें मास्टर रामचंद और डॉ. चमनलाल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अंग्रेज़ मिशनरियों की नीयत और हरकतों को लेकर आम जनता पहले से ही सशंकित थी। इस घटना के बाद, लोगों का विश्वास पक्का हो गया कि ये पश्चिमी शासक उनके नौजवानों को भ्रष्ट करने और उन्हें उनके पुश्तैनी धर्म से विमुख करने का प्रयास कर रहे हैं।
इस संदेहपूर्ण माहौल में, कारतूसों से जुड़ी अफवाह ने आग में घी का काम किया। लोगों ने इस अफवाह पर तुरंत विश्वास कर लिया, और सैनिकों के बीच अशांति की आग भड़क उठी।
1857 का पहला विस्फोट
10 मई 1857 को मेरठ में सैनिक परेड के अवसर पर पहला विस्फोट हुआ। वहां के सैनिकों ने अपने अंग्रेज़ कमांडर के आदेश मानने से इंकार कर दिया और विद्रोह कर दिया। उन्होंने कई अंग्रेज़ अफसरों को मार डाला और जेल के दरवाजे तोड़कर उन साथियों को आज़ाद कर दिया जिन्हें अनुशासन भंग करने के आरोप में पहले से बंद किया गया था।
उसी शाम, बड़ी संख्या में सैनिक दिल्ली के लिए कूच कर गए। 11 मई 1857 की सुबह वे दिल्ली पहुंच गए। सैनिकों ने बहादुरशाह ज़फर से अनुरोध किया कि वे विद्रोह का नेतृत्व करें और भारत के बादशाह के रूप में उनकी कमान संभालें। उस समय बहादुरशाह 82 वर्ष के थे और शुरू में उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार करने में हिचकिचाहट दिखाई। लेकिन परिस्थितियों के दबाव ने उन्हें अधिक समय तक इनकार करने का अवसर नहीं दिया।
इस बीच, विद्रोह अन्य नगरों में भी फैल चुका था। धीरे-धीरे विद्रोहियों के नेता राजधानी में इकट्ठे होने लगे। उन्होंने एक अस्थायी सरकार का गठन किया और बहादुरशाह को उसका नेता नियुक्त कर दिया। दिल्ली के सभी अंग्रेज़ सैनिकों और असैनिक अधिकारियों को या तो मार दिया गया या वे अपनी जान बचाकर भाग गए।
लगभग पांच महीने तक राजधानी पर भारतीय सेनाओं का कब्ज़ा रहा। हालांकि, अंग्रेज़ों ने हार मानने के बजाय उचित अवसर की प्रतीक्षा की। अंततः, लगातार प्रयासों के बाद, उन्होंने देश के विभिन्न भागों में विद्रोह का दमन किया। दिल्ली की निर्णायक लड़ाई में अंग्रेज़ों ने जीत हासिल की, और 19 सितंबर 1857 को उन्होंने दिल्ली पर दोबारा कब्ज़ा कर लिया।
इसके बाद दमन का एक लंबा दौर शुरू हुआ। मुकदमों के जरिए हजारों नागरिकों को फांसी पर लटका दिया गया। उनकी जमीन-जायदाद जब्त कर ली गई, या उन्हें कठोर दंड के साथ भारी जुर्माना भरने के लिए मजबूर किया गया। इस दमन से बचने के लिए कई लोग राजधानी छोड़कर अन्य नगरों में भाग गए। वहां, उन्होंने गरीबी और तंगी में जीवन व्यतीत किया, जब तक परिस्थितियां शांत नहीं हुईं और वह अपने घर लौटने के काबिल नहीं हो गए।
गदर के समय ग़ालिब दिल्ली में ही थे
विद्रोह के दौरान ग़ालिब दिल्ली में ही रहे और शहर छोड़कर कहीं नहीं गए। सच्चाई यह थी कि उनके पास शरण लेने के लिए कोई उपयुक्त जगह नहीं थी। यह समय उनके लिए अत्यंत कठिनाई भरा था। लंबे समय से उनकी आमदनी के केवल दो साधन रह गए थे—पहला, 750 रुपये वार्षिक की वह पेंशन जो उन्हें अंग्रेज़ों के खजाने से मिलती थी, और दूसरा, 600 रुपये वार्षिक का वजीफा, जो उन्हें शाही परिवार का इतिहास लिखने के लिए बहादुरशाह से मिलता था।
जैसे ही विद्रोहियों ने दिल्ली पर कब्जा किया और ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ, ये दोनों आय के स्रोत खत्म हो गए। अंग्रेज़ों से पारिवारिक पेंशन मिलना संभव नहीं था क्योंकि उनका राज समाप्त हो चुका था। दूसरी ओर, बहादुरशाह भी वजीफा देने की स्थिति में नहीं थे। ग़ालिब ने किसी तरह बड़ी मुश्किल से यह कठिन समय गुजारा।
जब शांति की स्थापना हुई और दिल्ली पर अंग्रेज़ों का कब्जा दोबारा हुआ, तो ग़ालिब को उम्मीद थी कि अब परिस्थितियां सामान्य हो जाएंगी और उनकी पारिवारिक पेंशन फिर से शुरू हो जाएगी। लेकिन बाद की घटनाओं ने उनकी इस आशा पर पानी फेर दिया।
‘सिक्के का आरोप‘
दिल्ली पर भारतीय सेनाओं का कब्ज़ा हो जाने के बावजूद, अंग्रेज़ों ने शहर और लाल किले में गुप्तचरों का एक मजबूत नेटवर्क बना रखा था। उनके जासूस हर प्रकार की खबरें—कुछ प्रामाणिक और कुछ अफवाहें—नियमित रूप से कश्मीरी गेट के बाहर रिज पर तैनात ब्रिटिश कमांडर को भेजते रहते थे।
ऐसे ही एक गुप्तचर ने खबर दी कि बहादुर शाह द्वारा बुलाए गए दरबार में ग़ालिब मौजूद थे और उन्होंने बादशाह को एक ‘सिक्का’ लिखकर भेंट किया था। यह सिक्का असल में नए जारी किए जाने वाले मुद्रा की इबारत थी। हालांकि, यह आरोप पूरी तरह गलत था। सिक्के की यह इबारत, जिसे ग़ालिब का लिखा बताया गया, वास्तव में एक अन्य छोटे शायर की थी। यही नहीं, यह इबारत उस तारीख से पहले ही एक पर्चे में छप चुकी थी, जिस तारीख को ग़ालिब के द्वारा इसे भेंट करने का दावा किया गया।
फिर भी, इस झूठी रिपोर्ट को सरकारी रिकार्ड में दर्ज कर लिया गया। जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर पुनः कब्ज़ा किया और ग़ालिब दिल्ली के चीफ कमिश्नर से मिलने गए, तो उनके सामने यह रिपोर्ट पेश की गई। अंग्रेज़ों की नज़र में यह एक गंभीर अपराध था। लेकिन क्योंकि ग़ालिब ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत में कोई सक्रिय भाग नहीं लिया था, उनकी जान बख्श दी गई और उनकी संपत्ति भी जब्त नहीं की गई।
सिक्के की घटना को ग़ालिब की एक मामूली दुर्बलता मानते हुए उन्हें माफ कर दिया गया। उन दिनों जब मात्र संदेह के आधार पर लोगों को मौत की सज़ा दी जा रही थी या जेल में डाला जा रहा था, ग़ालिब को दी गई यह रियायत अपने आप में असाधारण थी। हालांकि, इस घटना के परिणामस्वरूप उनकी पारिवारिक पेंशन बंद कर दी गई, और उन्हें गवर्नर जनरल या लेफ्टिनेंट गवर्नर के दरबारों में आमंत्रित करना भी बंद कर दिया गया।
उधर, ग़ालिब को उम्मीद थी कि शांति बहाल होने के बाद स्थिति पहले जैसी हो जाएगी। लेकिन इस अप्रत्याशित घटनाक्रम ने उन्हें गहरी निराशा में डाल दिया। उनकी हालत पहले से भी अधिक खराब हो गई। यदि उनके कुछ मित्रों और प्रशंसकों ने मदद नहीं की होती, तो उनके लिए इन कठिनाइयों से उबरना संभव नहीं होता। सौभाग्य से, रामपुर के नवाब यूसुफ़ अली खां ने इस समय उनकी बहुत सहायता की।
गदर की घटनाओं पर ग़ालिब की टिपण्णी

ग़दर के उथल-पुथल भरे दिनों में ग़ालिब अधिकतर अपने घर पर ही रहते थे। उनके पास करने के लिए कोई विशेष काम नहीं था, इसलिए उन्होंने उस समय शहर में घटित घटनाओं पर कुछ टिप्पणियां लिखीं। यह दैनंदिन घटनाओं का नियमित लेखा-जोखा नहीं था, बल्कि खास घटनाओं पर आधारित टिप्पणियां थीं, जो उस युग की घटनाओं का विस्तृत विवरण तैयार करने में कभी उपयोगी हो सकती थीं।
जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर फिर से कब्ज़ा कर लिया, तो ग़ालिब ने इन टिप्पणियों को व्यवस्थित कर फ़ारसी में एक छोटी-सी किताब तैयार की और उसे नाम दिया ‘दस्तन्बू’। उनका दावा था कि इसमें उन्होंने अरबी का एक भी शब्द इस्तेमाल नहीं किया है। हालांकि, यह दावा पूरी तरह सही नहीं था। भरसक प्रयास के बावजूद किताब में अरबी के कुछ शब्द आ ही गए।
इसके विपरीत, अरबी के शब्दों से बचने के उनके प्रयास ने फ़ारसी के कुछ पुराने और अप्रचलित शब्दों को किताब में शामिल कर दिया। इनमें से कई शब्द उस समय आम व्यवहार में नहीं आते थे। इस कारण किताब पढ़ने में बोझिल लगती है और इसे समझना भी थोड़ा कठिन हो गया।
उस समय की घटनाओं के संदर्भ में ‘दस्तन्बू’ को एक विश्वसनीय सन्दर्भ पुस्तक के रूप में पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं माना जा सकता। ग़दर के दौरान, ग़ालिब ने बहादुरशाह से अपने संबंध बनाए रखे थे, और कभी-कभी परिस्थितिवश उन्हें अंग्रेज़-विरोधी तत्वों से भी मिलना-जुलना पड़ा। हालांकि उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया था, जिससे उनकी स्थिति पर खतरा आ सके, लेकिन फिर भी उनका मन इस आशंका से चिंतित रहता था कि उनका निष्क्रिय रवैया अंग्रेज़ों को संतोषजनक नहीं लगेगा।
उन्हें यह डर था कि बहादुरशाह के साथ उनके मैत्रीपूर्ण संबंधों को अंग्रेज़-विरोधी होने का प्रमाण माना जा सकता है। इसलिए, जब उन्होंने अपनी टिप्पणियों के आधार पर ‘दस्तन्बू’ की रचना की, तो इस बात का विशेष ध्यान रखा कि इसमें भारतीय सैनिकों की गलतियों को न कम करके दिखाया जाए और न ही अंग्रेज़ सैनिकों के अत्याचार को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाए।
पुस्तक प्रकाशित होने के बाद ग़ालिब ने इसकी प्रतियां भारत और इंग्लैंड के प्रतिष्ठित अंग्रेज़ों को भेंट कीं। लेकिन यह प्रयास असफल रहा, और इससे वह प्रभाव नहीं पड़ा जिसकी उन्हें उम्मीद थी। इस असफलता का एक बड़ा कारण किताब की भाषा थी, जो जटिल और कठिन थी। इस तरह अधिकारियों से मेल-जोल बढ़ाने का उनका निजी प्रयास विफल हो गया।
इस बीच, ग़ालिब के कई मित्र उन्हें क्षमा दिलवाने की कोशिशों में लगे रहे। मई 1860 में अंग्रेज़ों ने अपना पिछला आदेश वापस ले लिया, और उनकी पारिवारिक पेंशन फिर से चालू कर दी। तीन साल बाद, मार्च 1863 में, उन्हें सरकारी दरबारों में भाग लेने का अधिकार भी लौटा दिया गया। ग़ालिब की स्थिति फिर से पहले जैसी हो गई।
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संदर्भ
राम मलिक,मिर्जा ग़ालिब, नेशनल बुक ट्रस्ट

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में