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जब एक उड़ते तीर ने बदली भारत की तक़दीर

[इतिहास में कई बार संयोग भी बड़े महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। अकबर और हेमू विक्रमादित्य  के बीच हुए युद्ध में घटे एक ऐसे ही संयोग की कहानी सुना रहे हैं सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा]

 

27 जनवरी 1556 को सूरज रोज़ाना की तरह ही अपने वक़्त पर निकला। लोग अपने रोज़मर्रा के कामों में लग गए। चुनार के क़िले में बादशाह आदिल शाह सूरी अपने दरबारियों के साथ ख़ास मंत्रणा में जुटे थे। इसी बीच किसी दरबारी ने मंत्रणा कक्ष में आने की इजाज़त मांगी। सामान्य हालात में यह संभव नहीं था। सूर साम्राज्य परेशानियों के दौर से गुज़र रहा था। ऐसे में राजा और उसके वज़ीर अगर कोई गोपनीय चर्चा कर रहे हैं तो फिर इस दौरान किसी को भी आने की इजाज़त न थी। तो क्या कोई क़यामत आ गई थी? या फिर ख़बर ही इतनी ख़ास थी कि ख़बरची कुछ देर भी इंतज़ार नहीं कर सकता था और उसके इसी वक़्त अपना पैग़ाम देना था?

हालात तो सूर वंश के लिए उन दिनों में ऐसे भी सामान्य न थे। सूर या सूरी शासन के संस्थापक औऱ इस वंश के महानतम शासक शेर शाह सूरी का 22 मई 1545 को कालिंजर के क़िले में निधन हो गया। शेर शाह की मौत की ख़बर मिलते ही उसके वज़ीरों ने एक आपात बैठक बुलाई और जलाल ख़ान को शेर शाह का वारिस चुन लिया। आदिल ख़ां सूरी का छोटा भाई जलाल ख़ां 26 मई, 1545 को इस्लाम शाह की पदवी धारण करके दिल्ली के तख़्त पर बैठ गया। दरबारियों का मानना था कि जलाल ख़ां आदिल ख़ां सूरी से ज़्यादा योग्य और जंग के मैदान में ज़्यादा हुनरमंद है।

आदिल शाह और शेर शाह

आदिल ख़ां शेर शाह का बड़ा बेटा होने के नाते ख़ुद को दिल्ली के तख़्त के वारिस माने बैठा था। उसने शेर शाह के दरबारियों का फैसला मानने से इंकार कर दिया। इस्लाम शाह सूरी ने आदिल ख़ां सूरी की आंखों में बग़ावत के रंग देखे तो उसको गिरफ्तार करने का आदेश दिया। मगर गिरफ्तारी से पहले ही आदिल ख़ां भाग निकला। 22 नवंबर 1554 को इस्लाम शाह का देहांत हो गया। इसके बाद 12 वर्षीय फिरोज़ शाह को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया। लेकिन फिरोज़ शाह को दिल्ली का तख़्त रास नहीं आया। कुछ ही दिन गुज़रे थे कि शेर शाह के भतीजे मुहम्मद मुबारिज़ ख़ां ने उसका क़त्ल कर दिया। इसके बाद मुबारिज़ ख़ां सुल्तान आदिल शाह की पदवी धारण करके दिल्ली के तख़्त पर तख़्तनशीं हुआ।

 

आदिल शाह ने हेमचंद्र यानी हेमू को अपना वज़ीर नियुक्त किया।

हेमू कालानी : फर्श से अर्श तक

हेमू आज के हरियाणा राज्य के रेवाड़ी का रहने वाला था। उसका जन्म एक ग़रीब परिवार में हुआ। हालांकि उसके परिवार और जन्म की तारीख़ को लेकर कहीं कोई ख़ास उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन इतना पता लगता है कि वह मेहनती था।

कुछ इतिहासकारों का दावा है कि उसने शुरु में सब्ज़ी बेची और फिर इस्लाम शाह के ज़माने में सब्ज़ी बाज़ार का ठेकेदार बन गया। इस्लाम शाह ने बाद में उसे अपने अफग़ान सैन्य अधिकारियों की जासूसी की ज़िम्मेदारी सौंपी। इस दौरान उसकी पहचान एक शातिर और तेज़तर्रार अधिकारी की बनी। आदिल शाह जब राजा बना तो उसने हेमू को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। आदिल शाह की तरफ से लड़ते हुए उसने कम से कम बाइस छोटी बड़ी जंग जीतीं। हालांकि इनमें ज़्यादातर अफग़ान बाग़ियों के ख़िलाफ थीं लेकिन, शेर शाह के बाद सूर वंश के पास शायद ही कोई हेमू जैसा योग्य सैन्य अधिकारी आया था।

सुल्तान आदिल शाह

मोहम्मद मुबारिज़ ख़ां यानी सुल्तान आदिल शाह सख़्त इंसान था और लोगों को उम्मीद थी कि अब सूरी वंश में सल्तनत के लिए शुरु हुआ ख़ून ख़राबा थम जाएगा। लेकिन सूरी वंश को किसी का श्राप लग चुका था।

1555 में सुल्तान आदिल शाह के बहनोई इब्राहीम शाह सूरी ने बग़ावत कर दी। जंग में आदिल शाह की हार हुई और उसे दिल्ली छोड़ कर आगरा की तरफ भागना पड़ा। 1556 आते-आते सूरी साम्राज्य कई हिस्सों में बंट चुका था।

यह दिल्ली छोड़ कर भाग चुके हुमायूं के लिए मुग़ल साम्राज्य दोबारा खड़ा करने का एक मौक़ा था। हुमायूं ने ईरानी सिपाहियों के अलावा लिग़ारी, मगसी औऱ रिंद के बलोच सैनिकों को जुटाकर एक बड़ी सेना तैयार की। 22 जून 1555 को सरहिंद की लड़ाई में हुमायूं को फौजों ने दिल्ली के शासक सिंकदर शाह सूरी को बुरी तरह हरा दिया। दिल्ली पर एक बार फिर मुग़लों को क़ब्ज़ा हो चुका था। लेकिन हुमायूं ज़्यादा लंबे समय तक दिल्ली पर दोबारा शासन नहीं कर पाया।

24 जनवरी 1556 को हुमायूं दिल्ली में अपनी लाइब्रेरी की सीढ़ियों से गिर गया। उसे गंभीर चोटें लगीं और तीन दिन बाद उसकी मौत हो गई।

दिल्ली पर क़ब्ज़ा और हेमू विक्रमादित्य

हुमायूं का बेटा अकबर उस वक़्त दिल्ली में नहीं था। हुमायूं के सेनापति बैरम ख़ां ने अकबर से उसके पिता की मौत की ख़बर छिपा ली।

इस बीच हुमायूं की मौत की ख़बर मिलते ही सिकंदर शाह सूरी ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने का फैसला किया।

इधर हुमायूं की मौत की ख़बर चुनार भी पहुंची। हेमू उस वक़्त बंगाल में था। उसको तुरंत चुनार लौटने और दिल्ली कूच करने का हुक्म दिया गया। हेमू पठान सैनिकों को जुटाकर एक बड़ी फौज लेकर निकला। इसके बाद दिल्ली के तख़्त के तीन दावेदार दिल्ली की तरफ बढ़े। हालांकि सिकंदर शाह इस दौड़ में पिछड़ गया। इस बीच 14 फरवरी 1556 को पंजाब के कलानौर में 14 वर्षीय अकबर का राज्याभिषेक हुआ। लेकिन उसके लिए भी दिल्ली हासिल करना इतना आसान न था।

हेमू की फौजों ने बयाना, कालपी, इटावा, संभल और फिर आगरा से मुग़ल सेनाओं को खदेड़ दिया। तर्दी ख़ां बेग दिल्ली में अकबर का गवर्नर था। उसकी सेनाओँ ने तुग़लकाबाद के नज़दीक हेमू का मुक़ाबला करने का फैसला किया। इधर अकबर और बैरम ख़ां जालंधर के नज़दीक सिकंदर शाह की फौजों से उलझे हुए थे।

इतिहासकार बदायूनी के मुताबिक़ हेमू की फौज में 50 हज़ार घुड़सवार, एक हज़ार हाथी, 51 बड़ी और 400 छोटी तोप शामिल थीं। शुरुआती लड़ाई में मुग़ल सेना भारी पड़ीं। इसी दौरान अलवर से हाजी ख़ान अपनी फौज लेकर दिल्ली पहुंचा। अब संख्या बल में मुग़ल सैनिक कम थे और जंग में आख़िरकार उनकी हार हुई। दिल्ली पर अब हेमू का क़ब्ज़ा था। 7 अक्टूबर 1556 को विजयी हेमू दिल्ली में दाख़िल हुआ।

हेमू ने ख़ुद को विक्रमादित्य घोषित किया। हालांकि उसने इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा लेकिन कई इतिहासकारों ने इसे ख़ुद को दिल्ली का शासक नियुक्त करना बताया। मध्यकालीन इतिहासकार निज़ामुद्दीन के मुताबिक़ हेमू ने सिर्फ पदवी धारण की न कि शासन। अगर वो ऐसा करता तो शायद यह फैसला मारक होता क्योंकि उसकी सेना में दो तिहाई से ज़्यादा अफग़ान सैनिक थे जिनकी निष्ठा सुल्तान आदिल शाह में थी।

लेकिन भारत की तक़दीर का फैसला अभी नहीं हुआ था।

अभी एक निर्णायक जंग बाक़ी थी

अभी तक हेमू के सितारे बुलंदी पर थे। दिल्ली फतह करके हेमू ने जालंधर की तरफ जाने का फैसला किया जहां अकबर सिकंदर शाह के साथ जंग में फंसा था। लेकिन समय हमेशा एक सा नहीं रहता।

तुग़लकाबाद की जंग में हेमू की जीत की ख़बर सुनकर अकबर ने दिल्ली लौटने का फैसला किया। सिकंदर शाह से फिर भी निबटा जा सकता था लेकिन दिल्ली हाथ से निकलने का मतलब हिंदुस्तान की हुकूमत एक बार फिर खो देना था।

अकबर ने अली क़ुली ख़ां शैबानी के नेतृत्व में दस हज़ार घुड़सवारों का एक दस्ता दिल्ली की तरफ पहले ही रवाना कर दिया था। रास्ते में इस टुकड़ी का सामना हेमू के सैनिकों से हुआ। दरअसल यह सैनिक तोपख़ाना लेकर जालंधर की तरफ जा रहे थे लेकिन उनकी संख्या कम थी। क़ुली ख़ां शैबानी ने हेमू का तोपख़ाना लूट लिया।

युद्ध नीति के लिहाज़ से यह हेमू की भयंकर भूल साबित हुई।

लेकिन यह आख़िरी भूल न थी

हेमू दिल्ली से जालंधर की तरफ बढ़ रहा था जबकि अकबर की फौजें दिल्ली की तरफ। 5 नवंबर 1556 को पानीपत के नज़दीक़ दोनों फौजों का आमना सामना हुआ। हालांकि अकबर और बैरम ख़ां मैदाने जंग में नहीं थे। बैरम ने तय किया कि दोनों युद्ध भूमि से आठ मील पीछे रहेंगे। योजना बनी कि अगर मुग़ल फौजों की हार हुई तो बैरम अकबर को लेकर काबुल की तरफ भाग जाएगा। इसके बाद अगर कभी मौक़ा लगा तो फिर वापस दिल्ली लौटेंगे।

पानीपत के मैदान में अली क़ुली ख़ां शैबानी के अलावा हुसैन क़ुली ख़ां, सैयद महमूद ख़ां, शाह क़ुली महरम, अब्दुल्ला ख़ां उज़्बेक और सिकंदर ख़ां उज़्बेक अकबर की तरफ से मोर्चा संभाल रहे थे। हेमू के साथ रमया और शादी ख़ां काकर जैसे योग्य सिपाहसालार थे।

संख्याबल के हिसाब से हेमू का पलड़ा भारी था। मुग़ल सेना में दस हज़ार घुड़सवार और 200 हाथी थे। हेमू के नेतृत्व में 30 हज़ार घुड़सवार और 500 हाथियों पर सवार सैनिक मैदान में डटे थे। हेमू के पास जीत का तजुर्बा था, हौंसला था, ज़्यादा फौजी थे लेकिन तोपख़ाना न था। मैदान में आने से पहले ही उसकी सेना अपना तोपख़ाना छिनवा चुकी थी।

ख़ैर जंग शुरु हुई

घमासान का रन पड़ा। हेमू ने ख़ुद मुग़ल सेना की बाईं कमान पर हमला किया। मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई। मुग़ल सैनिक पीछे ज़रुर हटे लेकिन उनके तीरअंदाज़ों ने हेमू के घुड़सवारों को निशाना बनाना बंद नहीं किया। मुग़ल सेना तीरअंदाज़ी में ज़्यादा मज़बूत नज़र आ रही थी। तमाम कोशिशों के बावजूद हेमू और उसके सैनिक मुग़ल सेना की तरफ से की जा रही गोलाबारी और तीरों की बारिश से पार न पा सके।

हेमू को पीछे हटना पड़ा। उसका सेनापति भगवान दास इस दौरान मारा गया। लेकिन अभी भी उसकी सेना मुग़लों पर हावी थी। इतिहासकार यदुनाथ सरकार के मुताबिक़ यह लड़ाई अभी भी हेमू की तरफ झुकी हुई थी। उसके सैनिक संख्या में ज़्यादा थे और इस तरह की जंग जीतने में सक्षम थे।

हेमू अपने हाथी के हौदे में बैठकर जंग की कमान संभाल रहा था। जिधर भी उसे अपने सैनिक कमज़ोर पड़ते दिखते वह उस तरफ मुड़ जाता। एक समय आया जब मैदान में गिनती के मुग़ल सैनिक रह गए। जीत हेमू से बस कुछ ही क़दम की दूरी पर थी।

दिल्ली पर से मुग़लों का शासन एक बार फिर ख़त्म होने जा रहा था। अगर हेमू यह जंग जीत जाता तो अकबर को जान बचाने के लिए काबुल की तरफ भागना पड़ता। कौन जानता है फिर मुग़ल दिल्ली की तरफ कभी लौटते भी या नहीं। लेकिन मैदाने जंग में अक्सर एक मौक़ा ऐसा आता है जो पूरा इतिहास बदल देता है। पानीपत की दूसरी जंग ऐसे ही निर्णायक मौक़े का इंतज़ार कर रही थी।

हर तरफ तीरों की बारिश थी। रह रहकर गोले बरस रहे थे। दोनों सेनाओं के मस्केटियर यानी बंदूक़धारी लगातार एक दूसरे पर गोलियां बरसा रहे थे। पानीपत के ऐतिहासिक मैदान पर हिंदुस्तान की तक़दीर का फैसला हो रहा था। ऐसा लगता था मानों जीत हेमू की तरफ मज़बूत क़दमों से बढ़ रही है। उसके सैनिक मान चुके थे कि मुग़ल सैनिक या तो लड़ते लड़ते ख़त्म हो जाएंगे या जो कुछ थोड़े बहुत बचे हैं, वो मैदान छोड़कर भाग जाएंगे।

इधर राजा और मुख्य सेनापति के बिना लड़ रही मुग़ल सेनाओँ की संख्या लगातार कम हो रही थी। अली क़ुली ख़ां शैबानी और सैयद महमूद ख़ां ने अपने फौजियों से कहा कि अब चाहे सब ख़त्म हो जाएं लेकिन मैदान छोड़कर नहीं भागेंगे। या तो सभी सिपाही लड़ते हुए पानीपत की ज़मीन अपने ख़ून से लाल कर देंगे या फिर यहां से उनका विजय जुलूस दिल्ली तक जाएगा। आख़िरी वक़्त में दिए गए भाषणों ने मुग़ल सैनिकों को मैदान में डटे रहने पर मजबूर कर दिया। इधर हेमू अपनी जीत की तरफ आश्वस्त हो चला था।

एक आवारा तीर और सब खत्म

हेमू लगातार अपने सैनिकों का हौंसला बढ़ा रहा था। बीच-बीच में वह अपने हाथी के हौदे से नीचे की तरफ झांक भी लेता था कि जंग के हालात क्या हैं। वह चीख़-चीख़ कर अपने सैनिकों का हौंसला बढ़ा रहा था। उनको यक़ीन दिला रहा थी कि जीत बस किसी भी पल आने ही वाली है। मुग़ल सम्राट अकबर की सेना पर अपनी निर्णायक जीत के अहसास ने ही उसका जोश कई गुना बढ़ा दिया था। मुग़ल सेना की दाहिनी और बाईं, दोनों व्यूह रचना बिखर चुकी थीं। वह हाथी लेकिन बचे हुए मुग़ल सैनिकों की तरफ बढ़ा।

लेकिन यहीं पर हेमू एक गंभीर भूल कर गया। उसके हाथी के पास उसके सैनिक किसी मुग़ल सेनापति को घेरे थे। अति उत्साह में वह हौदे से झूल कर अपने सिपाहियों को निर्देश देने लगा। इसी बीच एक लक्ष्यविहीन उड़ता हुआ तीर आया और हेमू की आंख में लगा

हेमू तीर लगते ही बेहोश हो गया। उसको गिरता देख अफग़ान सेना में भगदड़ मच गई। जंग के मैदान में पांच हज़ार अफग़ान मारे गए लेकिन भागते हुए मरने वालों की तादाद शायद इससे कहीं ज़्यादा थी। लड़ाई ख़त्म हो चुकी थी। भारत की तक़दीर का फैसला हो चुका था।

एक आवारा तीर ने भारत का इतिहास हमेशा के लिए बदल दिया।

जीत की ख़बर सुनकर अकबर और बैरम ख़ां पानीपत पहुंचे। उनके फौजियों ने दोनों का ज़बरदस्त स्वागत किया।

अकबर ने इनकार कर दिया हेमू की गर्दन उड़ाने से

जंग ख़त्म होने के बाद हेमू की तलाश शुरु हुई। कुछ घंटे की मशक़क़्त के बाद हेमू अपने हाथी के हौदे में बेहोश मिला। वह अभी भी ज़िंदा था। उसको अकबर से सामने लाया गया। 13 या 14 साल का अकबर फैसला लेने की स्थिति में नहीं था लेकिन बैरम ख़ां हेमू के सिर की क़ीमत जानता था। उसको पता था कि हेमू अगर यहां से ज़िंदा चला गया तो मुग़ल साम्राज्य के लिए सिरदर्द बना रहेगा। उसने अकबर की गर्दन उड़ा देने को कहा।

अकबर ने तक़रीबन मर चुके हेमू की गर्दन काटने से इंकार कर दिया। इस पर मुग़ल सेनापतियों ने कहा कि अकबर अपनी तलवार से हेमू को छू भर दे। अकबर राज़ी हो गया।

इधर अकबर की तलवार हेमू की गर्दन से हटी, बैरम ख़ां ने मौक़ा गंवाए बिना तलवार से ज़ोरदार वार किया। हेमू अब इतिहास था। उसका कटा हुआ सिर काबुल भेजा गया जहां उसे दिल्ली दरवाज़े पर लटका दिया गया। उसका शरीर दिल्ली के उसी पुराने क़िले के दरवाज़े पर लटका दिया गया जहां क़रीब एक महीना पहले उसने ख़ुद को राजा विक्रमादित्य घोषित किया था।


 

References and bibliography

 

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Tripathi, Ram Prasad (1960). Rise and fall of the Mughal Empire

Abul Fazal, Ain-e-Akbari

Abdul Qadir Badauni, Muntakhabut Tawarikh

Zaigham Murtaza

ज़ैग़म मुर्तज़ा युवा पत्रकार हैं और इतिहास तथा मध्य पूर्व में गहरी जानकारी रखते हैं।

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