अप्रकाशित रही थी प्रेमचंद की पहली रचना
प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो चुका था आरंभ में वह नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-“प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है। जो बाद में 1935 में हंस में प्रकाशित हुई थी।
रेनाल्ड के उपन्यासों के दिवाने थे प्रेमचंद
उस वक्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिंदी बिल्कुल नहीं जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था। मौलाना शहर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मोहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएं जहां मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था।
उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकले थे और हाथों-हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था।
स्व. हजरत रियाज ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहांत हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरमसरा’ के नाम से किया था। उसी जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच‘ के सम्पादक स्व. मौलाना सज्जाद हुसैन ने जो हास्य रस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का ‘धोखा’ या ‘तिलिस्मी फानूस’ के नाम से अनुवाद किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पढ़ीं और पं. रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति ही न होती थी। उनकी सारी रचनाएं मैंने पढ़ डालीं।
अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां तैयार करते थे प्रेमचंद
उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर के ही मिशन स्कूल में आठवीं में पढ़ता था, जो तीसरा दर्जा कहलाता था रेती पर एक बुकसेलर बुद्धि लाल नाम का रहता था। मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले लेकर पढ़ता था।
दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था।
दो-तीन वर्षों में मैंने सैंकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टॉक समाप्त हो गया, तो मैंने नवल किशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलिस्मी होशरूबा‘ के कई भाग भी पढ़े। इस वृहद तिलस्मी ग्रंथ के सत्रह भाग उस वक्त निकल थे और एक-एक भाग बड़े सुपर रॉयल आकार के दो-दो हजार पृष्ठों से कम न होगा और इन सत्रह भागों के उपरांत उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे।
इनमें से भी मैंने कई पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रंथ की रचना की, उसकी कल्पना शति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। कहते हैं कि ये कथाएं मौलाना फैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं। इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता, लेकिन इतनी वृहद कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो। पूरी एन्साइक्लोपीडिया समझ लीजिए। एक आदमी तो अपने साठ वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता। रचना तो दूसरी बात है।
प्रेमचंद के मामा जी का प्रेम
उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहां आया करते थे। अधेड़ हो गए थे, लेकिन अभी तक बिन- ब्याहे थे। पास में थोड़ी सी जमीन थी, मकान था, लेकिन धरती के बिना सब कुछ सूना था। इसलिए घर पर जी न लगता था। नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनका ब्याह करा दे। इसके लिए सौ दो सौ खर्च करने करो भी तैयार रहते क्यों ?
उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे खासे हृष्ट- पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूंछें, औसत कद, सांवला रंग गांजा पीते थे, इसमें आंखें लाल रहती थीं। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे और मांस-मछली नहीं खाते थे।
आखिर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं।
एक चमारिन के नयन- बाणों से घायल हो गए। वह उनके यहां गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी, छबीली थी और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भांति प्रसन्न मुख और विनोदिनी थी। ‘एक समय सखि सुअर सुंदरि ‘ – वाली बात थी।
मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा। बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे। वह इनके मन का भाव ताड़ गयी। ऐसी अल्हड़ न थी और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पड़ने लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आंखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आयी और काम में ढिलाई भी शुरू हुई। कभी दोपहर को आयी और झलक दिखाकर चली गयी, कभी सांझ को आयी और एक तीर चलाकर चली गई। बैलों को सानी पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्यों कर?
वहां तो अब प्रेम उदय हो गया था होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी, मगर अबकी गजी की साड़ी न थी। खूबसूरत सी हवा दो रुपए की चुंदरी थी। होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी थी और यह सिलसिला यहां तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गयी।
प्रेमचंद के मामा जी चमारों से पिटाई
एक दिन संध्या समय चमारों ने आपस में पंचायत की बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज्जत लेंगे? एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर न देखा (हालांकि यह सरासर गलत था ) और यह एक हैं कि नीच जाति की बहू-बेटियों पर भी डोरे डालते हैं!
समझाने-बुझाने का मौका न था। समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उल्टे और कोई मामला खड़ा कर देंगे। इनके कलम घुमाने की तो देर है इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए। इज्जत का बदला खून ही चुकाता है, लेकिन मरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है।
दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर में आई तो उन्होंने अंदर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यवहारिक रूप देने का निश्चय किया था चाहे कुछ हो जाए, कुल-मरजाद रहे या जाय, बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय उधर चमारों का जत्था ताक में था ही।
इधर किवाड़ बंद हुए, उधर उन्होंने खटखटाया शुरू किया। पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जाएगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबराए जाकर किवाड़ों की दरार से झांका। कोई बीस-पचीस चमार लाठियां लिए, द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे। अब करें तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते। समझ गए कि शामत आ गई।
आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलाएगी, यह क्या जानते थे, नहीं इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते। उधर चम्पा इन्हीं को कोस रही थी तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज्जत लुट गई। घर वाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे, कहती थी, कभी किवाड़ बंद न करो, हाथ पांव जोड़ती थी। मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था। लगी मुंह में कालिख कि नहीं?
मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आए थे। कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता, लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गई। बरौठे में थर-थर कांपते ‘हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए खड़े थे। कुछ न सूझता था।
उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। यहां तक कि सारा गांव जमा हो गया। बाम्हन ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने के लिए आ पहुंचे। इससे ज्यादा मनोरंजक और स्फूर्ति वर्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द और एक औरत को एक साथ घर में बंद पाया जाए। फिर वह चाहे कितनी ही प्रतिष्ठित और विनम्र क्यों न हो, जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती।
बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गए और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले। चम्पा आंगन में खड़ी रो रही थी। द्वार खुलते ही भागी। कोई उससे नहीं बोला। मामू साहब भागकर कहां जाते ! वह जानते थे उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है। मार खाने के लिए तैयार बैठे थे। मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी। जिसके हाथ जो कुछ लगा, जूता, छड़ी, छात, लात, घूंसा और अस्त्र चले।
यहां तक कि मामू साहब बेहोश गए और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया। अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गए, तो गांव में नहीं रह सकते और उनकी जमीन पट्टेदारों के हाथ आएगी ।
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मामा जी का प्रेम-पिटाई बनी प्रेमचंद की पहली रचना
इस दुर्घटना की खबर उड़ते-उड़ते हमारे यहां भी पहुंची। मैंने भी उसका खूब आनंद उठाया। पिटते समय उनकी रूपरेखा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना करके मुझे खूब हंसी आयी। एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे। ज्यों ही चलने- फिरने लायक हुए, हमारे यहां आए। यहां अपने गांव वालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे।
अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती। लेकिन उनका वही दमखम था। मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा था अब तो मेरे पास उन्हें नीचे दिखाने के लिए काफी मसाला था।
आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई। सब-के-सब खूब हंसे। मेरा साहस बढ़ा। मैंने उसे साफ- साफ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया। दिल में कुछ डरता भी था, कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था।
सबसे बड़ा कुतूहल यह था कि ड्रामा पढ़कर मामू साहब क्या कहते हैं। स्कूल में जी न लगता था। दिल उधर ही टंगा हुआ था। छुट्टी होते ही घर चला गया। मगर द्वार के समीप पाकर पांव रुक गए। भय हुआ, कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठें, लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे, क्योंकि मैं मार खाने वाले लड़कों में से न था।
मगर यह मामला क्या है ! मामू साहब चारपाई पर नहीं हैं, जहां वह नित्य लेटे हुए मिलते थे। क्या घर चले गए? आकर कमरा देखा वहां भी सन्नाटा। मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता । अंदर जाकर पूछा। मालूम हुआ, मामू साहब किसी जरूरी काम से घर चले गए। भोजन तक न किया। मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा, मगर मेरा ड्रामा-मेरी वह पहली रचना कहीं न मिली। मालूम नहीं, मामू साहब ने उसे चिराग अली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गए ?
संदर्भ
हंस 1935 में प्रकशित
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में