नेहरू का मानना था कि कश्मीर के नेता शेख़ अब्दुल्ला को अपनी पार्टी की सदस्यता सभी समुदायों के लिए खोल देनी चाहिए ताकि एकता स्थापित हो सके।
1937 में पहली बार नेहरू और शेख़ अब्दुल्ला की मुलाकात हुई, जिसमें नेहरू ने सभी समुदायों को पार्टी में शामिल करने की सलाह दी और कश्मीर आने का निमंत्रण स्वीकार किया।
भारत में स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस की नींव रखी गई, जिसके अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू बने, ताकि कश्मीरी नेतृत्व को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन मिल सके।
1938 के आल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के सत्र में पार्टी का नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस रखने का प्रस्ताव रखा गया, पर तत्काल सहमति नहीं बन पाई।
28 जून 1938 को श्रीनगर में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की कार्यकारिणी बैठक में सभी समुदायों को पार्टी में सदस्यता देने का प्रस्ताव पारित हुआ।
1939 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लुधियाना में हुए वार्षिक जलसे में कश्मीर के 34 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जहाँ कश्मीरी आंदोलन को नैतिक समर्थन मिला।
24 फरवरी 1939 को शेख़ अब्दुल्ला को कठुआ जेल से रिहा किया गया, जिससे कश्मीर का धर्मनिरपेक्ष आंदोलन और मजबूत हुआ।
त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन से लौटने के बाद, धर्मनिरपेक्षता और कश्मीर में एकता के सपने को साकार करने के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस के निर्माण की प्रक्रिया तेज हो गई।
शेख़ अब्दुल्ला ने अपनी जीवनी में नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठन से सम्बन्धित अध्याय को नाम दिया है –“एक ख़्वाब की ताबीर नेशनल कॉन्फ्रेंस।”