ब्रिटिश अदालत में मौलाना आज़ाद का बयान

कौल-ए-फ़ैसल (इंसाफ़ की बात) मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का वह बयान है जो राजद्रोह के मुक़दमे के दौरान उन्होंने प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, कलकत्ता (अब कोलकाता) के समक्ष दिया था।

यह लम्बा बयान राजद्रोह की पूरी अवधारणा की चीरफाड़ करता हुआ आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच वैचारिक मतभेदों को बहुत विस्तार से बताता है।

तारीख़ गवाह है कि जब भी हुक्मरान ताक़तों ने आज़ादी और हक़ के मुकाबले में हथियार उठाए हैं तो अदालतगाहों ने सबसे ज़्यादा आसान और बे-ख़ता हथियार का काम दिया है।

अदालत का इख़्तियार एक ताकत है और वो इंसाफ़ और नाइंसाफ़ी, दोनों के लिए इस्तेमाल की जा सकती है।

मुंसिफ़ सरकार के हाथ में अद्ल (न्याय) और हक़ का सबसे बेहतर ज़रिया है लेकिन जाबिर (अत्याचारी) और मुस्तब्द (ज़ालिम) हुकूमतों के लिए इससे बढ़कर इन्तिक़ाम (बदला) और नाइंसाफ़ी का कोई अला (उपकरण) भी नहीं।

दुनिया की तारीख सबसे बड़ी नाइंसाफ़ियाँ मैदान-ए-जंग के बाद अदालत के ऐवानों (स्थलों) ही में हुई है।

दुनिया के मुक़द्दस (पवित्र) बयान-ए-मज़हब से लेकर साइंस के दार्शनिक और मुक्तशिफीन (शोधार्थी) तक, कोई पाक और हक़ पसंद जमात नहीं है जो मुजरिमों की तरह अदालत के सामने खड़ी न की गयी हो।

बिला-शुब्हा ज़माने के इंकलाब से युग-ए-कदिम (प्राचीन काल) की बहुत-सी बुराइयाँ मिट गयीं।

मै तसलीम करता हूँ कि अब दुनिया में दूसरी सदी ईस्वी की ख़ौफ़नाक रूमी अदालतें और मध्य काल की पुर इसरार धार्मिक अदालतें वजूद नहीं रखते, लेकिन मै यह मानने के लिए तैयार नहीं कि जो जज़्बात उन अदालतों में काम करते थे, उनसे भी हमारे ज़माने को निजात मिल गयी है। वो इमारतें ज़रूर गिरा दी गयीं, जिनके अंदर ख़ौफ़नाक इसरार (राज़) बंद थे लेकिन इन दिलों को कौन बदल सकता है को इंसानी ख़ुदगर्जी और नाइंसाफ़ी के ख़ौफ़नाक राज़ों का दफ़ीना