जब आजादी से पहले बलिया, सतारा और मेदिनीपुर हो गए थे आज़ाद 

8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' और 'करो या मरो' का नारा दिया, जिससे पूरे देश में आंदोलन शुरू हुआ।

शुरुआत में आंदोलन शांतिपूर्ण था, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के दमनात्मक कदमों के बाद जनता ने विरोध में पत्थर उठा लिए।

बलिया में बैरिया थाने पर झंडा फहराने गए प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोलीबारी की, जिसमें 19 लोग शहीद हुए। इसके बाद पुलिस को सरेंडर करना पड़ा।

बलिया के तत्कालीन कलेक्टर ने चित्तू पांडे को जेल से रिहा कर शांति बनाए रखने की अपील की। चित्तू पांडे ने स्वतंत्र सरकार की स्थापना कर खुद को मुख्य प्रशासक घोषित किया।

महाराष्ट्र के सतारा में नाना पाटील ने किसानों और जनता के सहयोग से स्वतंत्र सरकार बनाई। यह क्षेत्र शिवाजी के वंशजों की ऐतिहासिक राजधानी भी था।

9 अगस्त 1942 से ही मेदिनीपुर में सामूहिक प्रदर्शन, हड़ताल और डाकघरों व थानों पर नियंत्रण के प्रयास शुरू हुए।

8 सितंबर को अंग्रेज़ों की गोलीबारी के बाद जनता ने व्यापक तैयारी की और संचार व्यवस्था ठप कर दी। सड़कों पर पेड़ काटे गए, पुल तोड़े गए, और ब्रिटिश प्रशासन को अलग-थलग कर दिया गया।

62 वर्षीय मातंगिनी हाज़रा ने, गोलियां लगने के बावजूद, कांग्रेस का झंडा नहीं छोड़ा। उस दिन 44 लोग शहीद हुए।

यह कहानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन अदम्य प्रयासों को दर्शाती है, जिन्होंने आजादी के लिए मार्ग प्रशस्त किया।