
असेंबली बम कांड के भगत सिंह के सहयोगी – बटुकेश्वर दत्त
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भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन में जो देशभक्त शहीद हुए उन्हें तो इतिहास ने धरोहर की तरह संभाल लिया लेकिन जो जीवित रहे और अपने आदर्शों के लिए लड़ते रहे, उन्हें कुछ हद तक उपेक्षा का सामना करना पड़ा। कई क्रांतिकारी है जिन्होंने कालापानी में आजीवन कारावास भुगता मगर कभी समझौता नहीं किया।
बटुकेश्वर दत्त ऐसे ही क्रांति कारी हैं , जिन्हें आज़ाद भारत में वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। इतिहास उन्हें 1929 के असेंबली बम कांड के भगत सिंह के सहयोगी के रूप में याद रखता है।
कौन थे क्रांति कारी,बटुकेश्वर दत्त
बटुकेश्वर दत्त, जिनको पार्टी ने दूसरा नाम दिय था मोहन, का जन्म 18 नवंबर 1910 को बंगल के पूर्वी बर्धमान ज़िले में कामिनी देवी और गोष्ठबिहारी दत्त के घर हुआ था। उनके बड़े भाई का नाम विसेश्वर दत्त था और बहन का नाम प्रोमिला था। उन्हें परिवार प्यार से सभी बट्टू बुलाया करते थे। जन्म के कुछ वर्ष बाद उनका परिवार उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर आ गया।
जिस समय वह थियोसोफिकल हाईस्कूल में पढ़ रहे थे, कानपुर क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र था। कानपुर में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की नींव रखी थी। दत्त यही पर सुरेन्द्रनाथ पांडेय और विजय कुमार सिन्हा से मिले, जो आगे चलकर क्रांति के पथ पर उनके सहयोगी बने।
उन्होंने आगे चलकर अजय घोष. विजय कुमार सिन्हा और सुरेन्द्रनाथ पांडेय के साथ मिलकर कानपुर जिम्नास्टिक क्लब की नींव रखी। जहां कई युवक व्यायाम आदि के लिए के लिए आने लगे। उन दिनों ऐसे क्लब और अखाड़े इत्यादि आज़ादी की राह पर चलने वाले नौजवानों के लिए एक तरह केंद्र का काम करते थे।
भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के दोस्ती के बारे में कहा कि उन दोनों के बीच की मैत्री और भातृ प्रेम देश और समाज के हित में मिलकर किये गये कार्यों से मजबूत हुआ।
दत्त से आखिरी बार अलग होते समय भगत सिंह ने अपनी नोटबुक पर उनके हस्तक्षर यादगार स्वरूप लिए थे। जाहिर है यह मुलाकात दोनों के लिए कितनी हृदयस्पर्शी रही होगी।
कानपुर प्रवास के दौरान जब बटुकेश्वर और अन्य साथियों के साथ समाजवाद, मार्क्सवाद एवं क्रांति संबंधी साहित्य के अध्ययन में अधिकतर समय व्यतीत करते। दत्त के प्रेरणा से ही भगत सिंह ने कार्ल मार्क्स की लेखनी का अध्ययन किया।
उन्होंने यहीं दत्त के साथ मज़दूरों की स्थिति का भी आकलन किया और कई मज़दूर आंदोलनों में हिस्सा भी लिया। जब कानपुर भीषण बाढ़ की चपेट में था, तब दोनों ने ही बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए बने तरुण संघ में पूरे जी जान से अपना योगदान दिया।
दत्त लिखते है-
हम दोनों को एक ही साथ ज़िम्मेदारी मिली कि रात को लालटेन लेकर नदी किनारे टहलते रहें, जिससे कि यदि कोई बहता हुआ व्यक्ति किनारे की तरफ़ आने का प्रयास करें तो उसकी मदद की जा सके।
दत्त ने भगत सिंह को बांग्ला सीखने में मदद की और क़ाजी नज़रुल इस्लाम की लेखनी से भी परिचय करवाया, जिसे वह अक्सर गुनगुनाते थे। नज़रूल इस्लाम की कविता विद्रोही तो भगत सिंह को पूरी तरह कंठस्थ थी।
मज़दुरों और किसानों के बीच सक्रिय
1925 में काकोरी लूट के चलते हुए गिरफ़्तारियों के बाद जब दल कुछ छिन्न-भिन्न हो गया, तो दत्त पहले बिहार और फिर बंगाल चले गये। कलकत्ता में उन दिनों मज़दुरों और खेतिहरों के हित एवं अधिकारों हेतु काम करते रहे। कलकत्ता में प्रवासी मज़दूरों के बीच काम करने वाली वर्कर्स एंड पेज़ेन्ट पार्टी के साथ जुड़ाव के वक़्त उनकी हिंदी की जानकारी बहुत काम आयी।
दत्त ने इस दौरान इस पार्टी लिए कई घोषणापत्र और पोस्टर इत्यादि लिखे। जब आज़ाद और भगत सिंह के दोबारा एचआरए को संगठित करना आरंभ किया, तो दत्त तुरंत कानपुर लौट आये। देश में बिखरे अलग-अलग क्रांतिकारी संगठनों को एकजुट करने का प्रयास किया गया।
दत्त अपना जीवन क्रांति को अर्पित कर चुके थे लिहाजा वह परिवार के बचे-खुचे संबंध भी पीछे छोड़कर पार्टी के काम में जुट गये। दल के किसी भी एक्शन में भाग लेने के लिए वह तत्पर रहते।
जब आगरा में बम फ़ैक्ट्री शुरू की गयी, तब दत्ता को वहां भेजने का निर्णय दल द्वारा लिया गया। और तब वह कानपुर हमेशा के लिए छोड़कर आगरा रवाना हो गये। आगरा के पार्टी का हेडक्वार्टर स्थापित किया गया और दो मकान किराये पर लिए गये। एक में दल के सदस्य रहा करते थे और एक का प्रयोग बम बनाने की फैक्ट्री के रूप में किया जाता था। दल द्वारा यहां जो पहले पांच बम बनाये गये, उन्हें बनाने में दत्त ने भी हिस्सा लिया।
असेंबली बम कांड में भगत सिंह के सहयोगी
एचआरए,काकोरी के बाद से समाजवाद का ध्येय अपनाते हुए जनआंदोलनों की ओर अग्रसर हो रहा था, जिनके चलते दल के नाम में समाजवादी शब्द जोड़ा गया। एचआरए आम जनता के बीच अपने उदेश्य के प्रचार और क्रांति के लिए लोगों को जागरूक बनाने में जुटा था। इसी दौरान दल के सदस्यों में समाजवाद पर लिखें साहित्य को पढ़ने और मनन करने में रूचि बढ़ी।इसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत के दलों में वंदे मातरम के साथ-साथ इंकलाब ज़िंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए जाने लगे। मज़दूरों द्वारा की जाने वाली हड़तालों आदि पर दल की नज़र रहती।
आगरा बम फ़ैक्ट्री में बने बमों का परीक्षण सफल रूप में हो चुका था और उन्हें एचआरए के कार्य में लाने के सभी आतुर थे। आगरा में एचआरए की केंद्रीय समिति की बैठक में भगत सिंह के प्रस्ताव रखा कि दमनकारी कानूनों का विद्रोह करते हुए असेंबली में धामका कर हुकूमत को चेताया जाए और जनता को उसके अधिकारों के हनन से अवगत कराया जाए।
जब इस कार्य को करने के लिए व्यक्तियों के चुनाव की बात आयी, तो हमेशा गंभीर रहने वाले दत्त खीन्नता के साथ कहा कि वह दल के पुराने सदस्य हैं और काकोरी के समय से ही दल से जुड़े हैं फिर भी उन्हें किसी बड़े एक्शन के लिए नहीं चुना गया। उन्होंने दुखी मन से यह भी कहा कि यदि दल उन्हें यह अवसर नहीं देता, तो वह संगठन के साथ-साथ क्रांति पथ से ही नाता तोड़ लेंगे।
दत्त बेहद अनुशासित, कर्मठ एवं विवेवशील क्रांतिकारी थे, सो इनकी मांग संहर्ष मान ली गयी। भगत सिंह ने भी उनके चुनाव का समर्थन किया। इस कार्य को अंजाम देने के लिए दूसरे व्यक्ति के तौर पर भगत सिंह ने ख़ुद का नाम प्रस्तावित किया। केंद्रीय समित ने शुरू में उसे अस्वीकार कर दिया मगर बाद में यहीं तय हुआ कि दत्त और सिंह ही कार्य् को अंजाम दे। दत्त तो पहले से ही भगत सिंह की संगत में पूरी तरह आनंदित रहते थे, अब एक्शन में भी वे दोनों साथ होंगे, यह सोच कर ही प्रफुल्लित हो उठे।
उन्हें हमेशा इस बात का गर्व रहा कि भगत सिंह ने उन्हें इस कार्य के लिए अपने साथी के बतौर चुना। उन्होंने सिंह के विश्वास को हर हाल में कायम रखा और जीवन भर उनके आभारी रहे।
भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ (Public Safety Bill) और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ (Trade Dispute Bill) लाया जाने वाला था। इन दो बिल के विरोध में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली जैसी अति सुरक्षा वाली इमारत के अंदर चलते सत्र दो बम फेंक कर पर्चे फेंके। दोनों की गिरफ्तारी हुई। 12 जून 1929 को बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया।
आजीवन कालापानी की सजा के दौरान भूख हड़ताल
कालापानी की सजा बटुकेश्वर दत्त को असेंबली बम कांड की सजा काटने के लिए उनकी कर्मभूमि से दूर कालापानी की सजा के लिए अंडमान की सेल्यूलर जेल भेज दिया गया। जेल की नारकीय परिस्थिती को देखते हुए दत्त ने अन्य साथी कैदियों के साथ बेहतर भोजन, बेहतर व्यवहार और अन्य सुविधाओं के लिए जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी। तमाम हथकंडे अपनाने के बाद अंततः अंग्रेजों को कैदियों के लिए बेहतर भोजन, अखबार और पत्रिकाओं इत्यादि की व्यवस्था करनी ही पड़ी।
1937 में ही उन्हें सेल्यूलर जेल से बिहार की पटना स्थिति जेल लाया गया और 1938 में रिहा कर दिया गया। दत्त कालापानी की सजा से अत्यंत कमजोर हो चले थे जिसके बावजूद भी वे 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में शामिल हुए। जिसके बाद उन्हें फिर जेल में डाल दिया गया। आजादी के बाद दत्त को रिहाई मिली।
बटुकेश्वर दत्त देश की आजादी देखने के लिए जिंदा बचे रहे लेकिन उनका उनका सारा जीवन निराशा में बीता। आजादी के बाद भी जिंदा बचे रहने के कारण ही शायद दत्त अपने देशवासियों द्वारा भूला दिए गए थे। देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद दत्त पटना में रहने लगे।
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देश की आजादी के बाद का जीवन
पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वह बस का परमिट लेने की ख़ातिर पटना के कमिश्नर से मिलते हैं तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण मांगा गया। बटुकेश्वर जैसे क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद ज़िंदगी की गाड़ी खींचने के लिए पटना के सड़कों पर सिगरेट की डीलरशिप करनी पड़ती है तो कभी बिस्कुट और डबल रोटी बनाने का काम करना पड़ता है। कभी एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुज़र-बसर करनी पड़ती है। पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका गुज़ारा हो पाया।
अंतिम समय उनके 1964 में अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था। इस पर उनके मित्र चमन लाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है।
चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कड़वे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़ पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज करवाना शुरू किया। पर दत्त की हालात गंभीर हो चली थी।
22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था, “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैंने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा।” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला की उन्हें कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही शेष बचे हैं। यह खबर सुन भगत सिंह की मां विद्यावती देवी अपने पुत्र समान दत्त से मिलने दिल्ली आईं।
पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।
20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गये। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया।
संदर्भ
प्रबल सरन अग्रवाल, हर्षवर्धन त्रिपाठी, अंकुर गोस्वामी, भगत सिंह के साथी, वाम प्रकाशन, नई दिल्ली

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