
फाँसी के तख़्ते पर काँप रहे थे गोडसे के पाँव
Reading Time: 4 minutes read
नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को 15 नवंबर 1949 को अम्बाला की सेंट्रल जेल में महात्मा गांधी के हत्या के अपराध में
फांसी दी गई। ये आजाद भारत की पहली फांसी थी।
गांधी हत्या के बाद हुई गिरफ्तारियाँ
गांधी हत्या के बाद नागरवाला ने पहला काम किया बंबई में सावरकर के घर पर छापा मारने का। इसमें कोई डेढ़ सौ फ़ाइलें और दस हज़ार काग़ज़ात ज़ब्त किए गए।
छापे के बाद सावरकर को तुरन्त गिरफ़्तार नहीं किया गया क्योंकि यह डर था कि उस समय उनकी गिरफ़्तारी से पूरे बम्बई प्रांत में आग लग सकती थी।[i]बहुत बाद मे मालगाँवकर से बातचीत में उन्होंने कहा – अपनी आखिरी साँस तक मुझे यह भरोसा रहेगा कि सावरकर ने ही गांधी हत्या का षड्यन्त्र रचा था।[ii] कपूर आयोग की रिपोर्ट ने अंततः उसे सही साबित किया।
मज़ेदार है कि मालगाँवकर ने 1975 में छपी अपनी किताब में सावरकर को निर्दोष साबित करने के लिए जान लगा दी है लेकिन कपूर आयोग का जिक्र करने के बावजूद उसमें से वे तथ्य नहीं दिए हैं जिनके आधार पर आयोग ने हत्या के षड्यंत्रकारी के रूप में स्पष्ट रूप से सावरकर का नाम लिया था ।
नथूराम लगातार कहता रहा कि उसने अकेले यह हत्या की है लेकिन राज़ सबसे पहले खुला उस डायरी से जिसमें वह रोज़ के ख़र्चों का हिसाब रखता था। लंच-डिनर और तांगा-टैक्सी के ख़र्चे तो लिखे ही थे इसमें, साथ में उसने बम्बई से दिल्ली हवाई-जहाज से आने का ख़र्च 308 रुपये भी लिख रखा था।
अब यह तो दिल्ली पुलिस जानती ही थी कि यह खर्च एक नहीं दो व्यक्तियों का है। साथ ही भडगे (जिसे गिरोह बन्दोपंत कहकर बुलाता था) और गोपाल को दिए गए पैसे भी नाम सहित लिखे थे। फिर उसने यह सिद्ध करने के लिए कि पूना में वह किसी के सम्पर्क में नहीं था, बताया कि वह 20 जनवरी से 30 जनवरी तक बम्बई में ही रहा और 24 से 27 जनवरी तक एल्फिन्स्टन होटल में रुका था। पुलिस ने पता किया तो आसानी से पता चल गया कि वहाँ वह अकेले नहीं रुका था।
इधर मदनलाल द्वारा पूना के लोगों का नाम लिए जाने के कारण नागरवाला ने 24 जनवरी को ही दिगंबर भडगे की गिरफ़्तारी के आदेश इस आधार पर दिए थे कि उस इलाक़े का अवैध हथियारों का सप्लायर होने के कारण संभव है कि उसे कुछ जानकारी हो। आश्चर्यजनक है कि पूना पुलिस ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई और गांधी हत्या के बाद ही उसके घर गए जहाँ वह आराम से सोया हुआ था।
बाद में पुलिस ने बहाना बनाया कि वह जंगलों में छिप गया था जबकि भडगे का ख़ुद यह कहना था कि वह पूरे समय घर में ही था। यह गिरफ़्तारी बहुत काम की रही और जब उससे पूछा गया कि क्या वह दिल्ली में बीस तारीख़ को हुई घटना के बारे में कुछ जानता है तो पहले तो उसने टालमटोल की लेकिन जब बम्बई लाकर मदनलाल के आमने-सामने किया गया तो सारी कहानी सुना दी।
उसकी निशानदेही पर गोपाल गोडसे को उसके गाँव उस्कान से गिरफ़्तार कर लिया गया और पूना में गोडसे और आप्टे के सहयोगियों के यहाँ पड़े छापों में बड़ी मात्रा में हथियार और दूसरी चीज़ें ज़ब्त की गईं। मालिक को ढूँढने दीक्षित महाराज के पास पहुँचे शंकर को उसके नौकरों ने सीआईडी के हवाले कर दिया तो करकरे और आप्टे के अलावा पूरा गैंग फरवरी के पहले तीन-चार दिनों में ही पुलिस के हत्थे चढ़ चुका था।
करकरे और आप्टे की योजना थी कि दिल्ली में किसी बड़े महासभाई नेता की सहायता लेकर विदेश निकल जाएँ[iii] लेकिन जब उसमें कोई सफलता मिलती नहीं दिखी तो वे अगले दिन दोपहर की ट्रेन से पहले इलाहाबाद निकल गए और फिर वहाँ से बम्बई और एक रात होटल सी ग्रीन (नार्थ) की डारमेट्री में रुकने के बाद एल्फिन्स्टन अनेक्स चले गए।
असल में जब पुलिस के लोग नथूराम के बयान के बाद वहाँ पूछताछ के लिए गए थे तो लगभग उसी समय दोनों वहाँ से निकले थे। एल्फिन्स्टन से निकलकर वे आर्य पथिक आश्रम में गए लेकिन उसके मैनेजर ने कमरा देने से इंकार कर दिया तो थाणे में जी एम जोशी के घर पहुँचे और वहाँ से पूना। यह आश्चर्यजनक है कि इस केस में जोशी से कोई ख़ास पूछताछ नहीं की गई। वहाँ से वे हैदराबाद या गोआ जाने की सोच रहे थे क्योंकि दोनों ही उस समय भारतीय अधिकार क्षेत्र में नहीं थे लेकिन अंततः उन्होंने बम्बई लौटने का फ़ैसला किया।
11 फरवरी को वे जोशी के घर पहुँचे और फिर 13 को रीगल सिनेमा के पीछे अपोलो होटल में। बम्बई पुलिस ने मनोरमा साल्वी का फोन सर्विलिएँस पर रखा हुआ था और जब 14 तारीख़ को आप्टे ने उसे मिलने के लिए बुलाया तो उसे गिरफ़्तार कर लिया गया और तीन घंटे बाद करकरे को भी। इसी दिन ग्वालियर से परचुरे को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था।
17 तारीख़ को नागरवाला को गांधी हत्या केस की पड़ताल का प्रमुख बना दिया गया और फिर भडगे के सरकारी गवाह बनने के बाद पूरे षड्यंत्र की परतें एक-एक कर खुलती चली गईं।
लालकिले पर चला था गांधी हत्या के मुक़दमे
अगले दो महीने नागरवाला के नेतृत्व में पुलिस षड्यंत्रकारियों के ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत इकट्ठा करती रही। उन्होंने क़दम-क़दम पर सबूत छोड़े भी थे। होटलों के बैरे, फिल्म अभिनेत्री बिम्बा, दिल्ली और बम्बई के टैक्सी ड्राइवर, करकरे से ट्रेन में मिला अमचेकर, दीक्षित महाराज और दादा महाराज, रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम के बुकिंग क्लर्क सहित अनेक गवाह और सबूत पूरे षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश करने के लिए काफ़ी थे। शंकर ने हिन्दू महासभा भवन के पीछे जंगलों में छिपाए गए हथियारों की बरामदगी करवा दी थी और भडगे सरकारी गवाह बन गया तो बीस जनवरी के पहले की पूरी कहानी पुलिस को पता चल चुकी थी।
8 मई, 1948 को एक गज़ट नोटिफिकेशन द्वारा दिल्ली में एक विशेष फौज़दारी अदालत का गठन किया गया और यह मुक़दमा लाल क़िले में चलवाने का फ़ैसला किया गया। भारतीय सिविल सेवा की जुडीशियल ब्रांच के वरिष्ठ जज आत्मा चरण की अदालत में नथूराम विनायक गोडसे, नारायण दत्तात्रेय आप्टे, गोपाल विनायक गोडसे, मदनलाल कश्मीरीलाल पाहवा, विष्णु रामकृष्ण करकरे, दिगंबर रामचंद्र बडगे, शंकर किस्तैया, दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे और विनायक दामोदर सावरकर के ख़िलाफ़ 22 जून, 1948 को यह मुक़दमा शुरू हुआ।
इसमें गंगाराम सखाराम दंडवते, गंगाधर जाधव और सूर्यदेव शर्मा का भी नाम था लेकिन वे गिरफ़्तार नहीं किये जा सके और भगोड़े घोषित हुए।[iv]
आश्चर्यजनक है कि इनके बारे में फिर कोई ख़बर नहीं मिलती जबकि कम से कम दंडवते ग्वालियर में हिन्दू महासभा में सक्रिय रहा। यहाँ यह जोड़ देना उचित होगा कि ये तीनों ग्वालियर में बन्दूक उपलब्ध कराने से जुड़े हुए थे और इस मामले में तकनीकी कमियों के चलते परचुरे की बाद में रिहाई हो गई थी।
लाल क़िले में चलने वाला यह तीसरा ऐतिहासिक मुक़दमा था – विडंबना ही है कि पहला 1857 के असफल जनविद्रोह के बाद उस बहादुरशाह जफ़र पर चला था जो कुछ दिन पहले उस क़िले का शहंशाह था, दूसरा आज़ाद हिन्द फौज के उन सेनानियों पर जिन्होंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में अंग्रेज़ों को अपदस्थ कर इस क़िले पर भारतीय परचम फहराने का ख़्वाब देखा था और अब यह मुक़दमा उन हत्यारों पर चल रहा था जिनकी सारी वीरता अस्सी साल के एक निहत्थे बूढ़े की हत्या में स्खलित हो गई थी!
इस मुक़दमे में सावरकर कटघरे में खड़े थे। वही सावरकर जिन्होंने अपनी किताब में बहादुरशाह जफ़र का शेर ही उद्धृत नहीं किया था बल्कि उनकी ‘भव्य और आदरणीय मूर्ति’ के अतिरेकपूर्ण तारीफ़ की थी।[v] वह सावरकर जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में सुभाष के विरुद्ध लड़ते अंग्रेज़ों के लिए सेना में भर्तियाँ करवाई थीं। वह सावरकर जो इस गिरोह के हर सदस्य के लिए गुरु समान थे।
वह सावरकर जिन्होंने अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगी थी और शक की सुई अपनी तरफ़ घूमती देख इस बार भी गिरफ्तारी के 17 वें दिन 22 फरवरी 1948 को बम्बई के पुलिस कमिश्नर को लिखा था – यदि मुझे इस शर्त पर रिहा कर दिया जाए कि मैं किसी साम्प्रदायिक या राजनैतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लूँगा तो सरकार जब तक चाहे मैं इसका पालन करने को तैयार हूँ।[vi] उनके ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष सबूत सबसे कम थे। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बन्दूक चलाने का काम तो शिष्यों का था बल्कि इसलिए भी कि उसके लिए बहुत कोशिश भी नहीं की गई थी।
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
सावरकर को गांधी हत्या से बचाने की कोशिश
कपूर आयोग की रिपोर्ट्स पढ़ते कई बार ऐसा लगता है जैसे जानबूझकर उन्हें बचाने की कोशिश की गई थी। एक क़िस्सा मोरारजी देसाई से जुड़ा है। अपनी जीवनी में भी उन्होंने इसका ज़िक्र किया है
श्री सावरकर के वकील ने मुझसे एक सवाल पूछा था जो मुझे याद नहीं है…जज ने मुझसे कहा कि इस सवाल का जवाब देने के लिए मैं बाध्य नहीं हूँ। और यह भी कहा कि जवाब देने योग्य न हो तो आप जवाब न दें। लेकिन मैने जज से कहा, ‘मुझे जवाब देने में कोई समस्या नहीं है। आरोपी से पूछिए कि इस सवाल का स्पष्ट जवाब मेरे पास है और अगर वह चाहे तो मैं जवाब देने को तैयार हूँ।’ मैंने ऐसा कहा तो तुरंत ही वकील ने सवाल वापस ले लिया। यही नहीं बल्कि उसके बाद मुझसे पूछताछ ही बंद कर दी।[vii]
अदालत ने यह सवाल अपनी कार्यवाही से निकाल दिया था। लेकिन वहाँ मौजूद एक पत्रकार ने नोट कर लिया था। 1 सितम्बर, 1948 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी ख़बर के मुताबिक जो सवाल देसाई अपनी आत्मकथा में भूल गए थे, वह था – क्या प्रो. जैन के अलावा आपके पास सावरकर के बारे में ऐसी कोई जानकारी थी जिसकी वजह से आपने उनके विरुद्ध ऐसे क़दम उठाने उठाने के निर्देश दिए?[viii]
आख़िर क्या वजह थी कि इस सवाल का जवाब देने से पहले उन्होंने सावरकर से पूछने को कहा और फिर वकील ने पूछताछ ही बंद कर दी? देसाई उस समय राज्य के गृहमंत्री थे और निश्चित रूप से सावरकर के सम्बन्ध में उनके पास गोपनीय जानकारियाँ पहुँची होंगी, लेकिन उन्हें अदालत में न बताने का कारण क्या हो सकता है?
मालगाँवकर ने भी कोशिश की है उलझाने की। उन्होंने सावरकर मेमोरियल समिति द्वारा 16 फरवरी, 1989 को किये गए एक प्रकाशन में सावरकर के वकील और हिन्दू महासभा के नेता भोपटकर के हवाले से बताया है कि तत्कालीन क़ानून मंत्री डॉ भीमराव अम्बेडकर भोपटकर से मिले थे और उन्हें बताया था कि मंत्रिमंडल के ज़्यादातर सदस्य और यहाँ तक कि पटेल भी सावरकर के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के ख़िलाफ़ थे लेकिन जवाहरलाल नेहरू की ज़िद के चलते उनको फंसाया जा रहा है।[ix]
इस तरह यह पूरा खेल बड़ी होशियारी से पटेल बनाम नेहरू की बाइनरी तैयार कर सावरकर को निर्दोष साबित करने का है। मालगाँवकर की किताब का मक़सद ही असल में लिबरल खाल के भीतर सावरकर की बेगुनाही की वकालत है। कपूर कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद शायद यह उन्हें ज़रूरी लगा। लेकिन उस दौर के आर्काइव की ज़रा सी तलाश इस तर्क/तथ्य के खोखलेपन को उजागर कर देती है।
यहाँ यह भी गौर करने की चीज़ है कि दक्षिणपंथ के लेखकों ने बार-बार अम्बेडकर को गांधी हत्या से जुड़े लोगों के प्रति संवेदनशील होने की तरफ़ इशारा किया है। कोएनार्ड अर्ल्स्ट ने लिखा है कि अम्बेडकर नथूराम के वकील से मिले थे और कहा था कि वह फाँसी की जगह आजीवन कारावास करा सकते हैं। लेकिन नथूराम ने मना कर दिया था और इस पर अम्बेडकर ने उसकी तारीफ़ की थी।[x]
6 मई 1948 को शिमला से श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पत्र के जवाब में, जिसमें उस दौरान भारत सरकार के मंत्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने आरोप लगाया था कि सावरकर के ख़िलाफ़ कार्यवाही ‘राजनैतिक निमित्त’ से और उनकी ‘प्रतिबद्धताओं’ के कारण हो रही है, पटेल लिखते हैं-
सावरकर का जहाँ तक सम्बन्ध है तो बम्बई के एडवोकेट जनरल, जो इस केस के इंचार्ज हैं, और अन्य क़ानूनी सलाहकार तथा जाँच अधिकारी मेरे यहाँ आने से पहले दिल्ली में मुझसे मिले थे। मैने उनसे बहुत स्पष्ट रूप से कहा कि सावरकर को शामिल किये जाने के सवाल पर पूरी तरह से क़ानूनी और वैधानिक तरीक़े से विचार किया जाना चाहिए और इस मामले में कोई राजनैतिक निमित्त बीच में नहीं लाया जाना चाहिए। मेरे निर्देश एकदम स्पष्ट और किसी भी तरह की दुविधा से परे थे। मैं निश्चिन्त हूँ कि उन्होंने ऐसा ही किया। मैंने यह भी कहा था कि अगर उन्हें लगता है कि सावरकर को शामिल किया जाना चाहिए तो कार्यवाही से पहले काग़ज़ात पहले मुझे दिखाए जाएँ। जहाँ तक अपराध का सवाल है यह अब तक न्याय और क़ानून के दृष्टिकोण से है। नैतिक रूप से संभव है कि किसी के लिए जो प्रतिबद्धता हो दूसरे के लिए उसका एकदम अलग अर्थ हो।[xi]
यहाँ यह याद कर लेना प्रासंगिक होगा कि वल्लभभाई पटेल ख़ुद एक सफल वकील थे। पटेल और नेहरू की जो तमाम बाइनरीज़ असल में ऐसे ही कुटिल उद्देश्यों से बनाई गई हैं।
इस आर्काइव में एक और रोचक प्रसंग है जिससे उस समय पटेल और नेहरू के बीच का कार्यविभाजन और कार्यप्रणाली समझ में आती है।
नथूराम और आप्टे को फाँसी की सज़ा कम करने के प्रयास
नथूराम और आप्टे को फाँसी की सज़ा होने के बाद गांधीवादी नेताओं की तरफ़ से एक मुहिम शुरू हुई जिसमें कहा गया कि चूँकि गांधी मृत्युदंड के ख़िलाफ़ थे तो गोडसे को फाँसी नहीं दी जानी चाहिए। डॉ अम्बेडकर ने भी संविधान सभा में इस आशय का बयान दिया था। इनमें विनोबा भावे, असम प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष देबेश्वर शर्मा, जी वी मावलंकर जैसे लोग तो थे ही साथ में गांधी जी के दो पुत्र, डर्बन में रह रहे मणिलाल गांधी और रामदास गांधी भी थे।
मणिलाल गांधी ने डर्बन से गोडसे और आप्टे की फाँसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदलने के लिए तार भेजा तो रामदास गांधी ने सीधे गोडसे को पत्र लिखा था। 17 मई 1949 को रामदास ने लिखा – ‘एक दिन आपको एहसास होगा कि आपने केवल मेरे पिता की नश्वर देह की हत्या की है और इससे अधिक कुछ नहीं। क्योंकि मेरे लिए ही नहीं बल्कि दुनिया भर में लाखों दूसरे लोगों के हृदयों पर भी मेरे पिता की आत्मा आज भी राज करती है’ साथ ही सत्य और अहिंसा के पक्ष में तर्क देते हुए उन्होंने उससे ‘हृदय के उच्छवासों पर ध्यान देते हुए अपने कृत्य पर सोचने का’ निवेदन किया था।
3 जून को लिखे अपने जवाब में गोडसे ने बड़ी होशियारी से उन्हें बहस के लिए जेल में आने का आग्रह किया तो रामदास विनोबा भावे और किशोरीलाल जी के साथ उससे शास्त्रार्थ करने जाने के लिए तैयार हो गए और इस बाबत नेहरू को ख़त लिखा। नेहरू ने 13 जून को लिखे ख़त में न मिलने की सलाह तो दी लेकिन अंतिम फ़ैसला गृहमंत्री सरदार पटेल पर छोड़ दिया।
16 जून को सरदार पटेल ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा –
मुझे वे सभी ख़त मिल गए हैं और मेरी मान्यता है कि रामदास गांधी को गोडसे से नहीं मिलना चाहिए। इस बात की पूरी संभावना है कि उससे किसी शहीद की तरह व्यवहार करने की कोशिश की जा रही है। जिस बातचीत का प्रस्ताव रामदास दे रहे हैं वह गोडसे के अंतिम दिनों को थोड़ा सा गौरव प्रदान कर देगा। मुझे यह कहीं न कहीं थोड़ा अव्यवहारिक लग रहा है कि जिस व्यक्ति ने ऐसा भयावह अपराध किया है और जिसे इसका ज़रा भी पछतावा नहीं है उसे कुछ समझाने की कोशिश की जाए।
फ़ैसला गवर्नर जनरल राजाजी को लेना था और पटेल की ही तरह अंततः उन्होंने भी कहा कि एक अपराधी को महिमामंडित करने की जगह क़ानून को अपना काम करने देना चाहिए। रोबर्ट पेन सहित कई लेखकों ने रामदास गांधी का यह पत्राचार अचानक ख़त्म होने की बात की है। लेकिन ये दस्तावेज़ बताते हैं कि हुआ यह था कि रामदास के साथ गोडसे से मिलने जाने के इच्छुक गांधी जी के सहयोगी किशोरीलालजी जब पटेल से मिले तो सरदार ने उन्हें भी यह स्पष्ट कर दिया और किशोरीलालजी ने यह सन्देश रामदास गांधी को पहुंचा दिया।
26 जून को जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र में रामदास गांधी ने लिखा – ‘मेरा इरादा कभी ऐसा कुछ करने का नहीं था जो आप तीनों को नापसंद हो। मैंने गोडसे का मामला ईश्वर पर छोड़ देने का फ़ैसला लिया है। क्योंकि ईश्वर ही है जिसने मुझसे गोडसे को दोनों ख़त लिखने पर बाध्य किया।’
वहीं कांग्रेस नेताओं द्वारा फाँसी की सज़ा माफ़ किये जाने को लेकर पटेल ख़ासे चिढ़े हुए नज़र आते हैं। राजाजी से हुए पत्र व्यवहार में उन्होंने असम कांग्रेस के अध्यक्ष और केन्द्रीय कार्यसमिति सदस्य देबेश्वर शर्मा के पत्र पर अफ़सोस जताते हुए कहा कि जब कांग्रेस में इतने ऊँचे पदों पर बैठे लोग ऐसी बकवास करते हैं तो मुझे अफ़सोस होता है।। इस मामले में जारी पत्र में पटेल कहते हैं –
यह हत्या निश्चित रूप से हमारे समय की सबसे शर्मनाक और विश्वासघाती घटना है। पूरी दुनिया इससे सदमे में है। दोनों क़ैदियों ने मुक़दमे के दौरान या उसके बाद अफ़सोस या पश्चाताप के कोई चिह्न नहीं प्रदर्शित किये हैं जबकि उम्र और शिक्षा दोनों से वे इतने परिपक्व हैं कि अपने अपराध की गंभीरता को महसूस कर सकें। इसलिए इस मामले में सिवा इसके कोई बात नहीं हो सकती कि क़ानून को अपना काम करने दिया जाए।
इस पूरे प्रकरण में नेहरू कहीं हस्तक्षेप करते नज़र नहीं आते। [xii]
आदर्शवाद की अपनी समस्याएँ होती हैं। रामदास उस नथूराम से ‘सत्य’ के आधार पर तर्क की उम्मीद कर रहे थे जो लाल क़िला के पूरे मुक़दमे के दौरान न केवल इस झूठ पर डिगा रहा कि गांधी हत्या उसने अकेले की है और उसके अलावा बाक़ी सभी निर्दोष हैं बल्कि प्रक्रिया का फ़ायदा उठाकर वह भाषण भी दिया जिसमें झूठ और प्रपंच के सहारे गांधी को दोषी ठहराने की शातिराना कोशिश की गई है। इसी तरह मदनलाल ने बीस जनवरी की घटना की सारी ज़िम्मेदारी अपने सर पर ली और इस बात से इंकार किया कि उसका इरादा गांधी की हत्या का था, बल्कि वह सिर्फ़ गांधी जी की नीतियों के चलते फैले असंतोष को अभिव्यक्ति दे रहा था!
मुक़दमा अपनी तरह से चला। कुल 149 गवाह पेश हुए और हज़ारो पन्ने के दस्तावेज़ पेश किये गए। मुक़दमे के दौरान न्यायाधीश आत्माचरण और सरकारी वकीलों को जान से मारने की धमकी वाले पत्र मिले। लम्बी-लम्बी जिरहें चलीं और अंततः 10 फरवरी, 1949 को सावरकर के अलावा सभी अभियुक्तों को सज़ा हुई। जस्टिस आत्माचरण ने सावरकर के संदर्भ में सिर्फ़ भडगे की गवाही को पर्याप्त नहीं माना था और उसकी बात को प्रमाणित करने वाले (corroborative) साक्ष्य के अभाव में किसी निष्कर्ष तक पहुँचने को असुरक्षित (Unsafe) बताया।
अभियुक्तों को अपील का मौक़ा दिया गया तो पंजाब हाईकोर्ट में जहाँ बाक़ी सबने ख़ुद को निर्दोष साबित करने के लिए अपील की वहीं नथूराम ने यह साबित करने के लिए अपील की कि इस षड्यंत्र में वह अकेला था। असल में उसका उद्देश्य सिर्फ़ इतना था कि वह अदालत के मंच का उपयोग गांधी के ख़िलाफ़ विषवमन के लिए कर सके। उसने किया भी।
जस्टिस भंडारी, जस्टिस अच्छूराम और जस्टिस खोसला की इस बेंच ने बाक़ी सभी अभियुक्तों की सज़ा तो बरक़रार रखी लेकिन संदेह का लाभ देते हुए शंकर किस्तैया और दत्तात्रेय परचुरे को रिहा कर दिया था। जहाँ शंकर की दलील थी कि वह इस षड्यंत्र में भडगे के चलते फँसा था और उसके इसके बारे में कुछ नहीं पता था वहीं दत्तात्रेय परचुरे का ग्वालियर में मजिस्ट्रेट के चलते दिया गया इक़बालिया बयान तकनीकी कारणों से पर्याप्त नहीं माना गया। नथूराम के पिता ने गवर्नर जनरल के समक्ष दया याचिका भी लगाई थी लेकिन वह खारिज कर दी गई।[xiii]
15 नवम्बर 1949 को नथूराम और नारायण आप्टे की फाँसी का दिन निर्धारित किया गया था। उस समय अम्बाला जेल में उपस्थित जस्टिस खोसला लिखते हैं –
दोनों अभियुक्त अपनी कोठारी से हाथ पीछे बाँधकर लाये गए। गोडसे आगे चल रहा था। उसके पाँव बीच-बीच में लड़खड़ा रहे थे। उसकी चाल-ढाल घबराहट और भय की गवाही दे रही थी। उसने इससे संघर्ष करने का निश्चय किया और बाहर से मज़बूत दिखने की कोशिश करने के लिए अखंड भारत का नारा लगाना शुरू किया।
लेकिन उसकी आवाज़ थोड़ी फट रही थी और जिस उत्साह से उसने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट में अपना मुक़दमा लड़ा था वह ख़त्म होता हुआ लग रहा था…बाद में यह बताया गया कि जेल के अपने अंतिम दिनों में अपने कृत्य पर पछता रहा था और कहता था कि एक और मौक़ा मिला तो अपनी बाक़ी ज़िन्दगी शान्ति के प्रचार और देश की सेवा में लगाएगा…दोनों को फाँसी पर चढाने के लिए एक ही तख्ता बनाया गया था…गोडसे और आप्टे को अगल-बगल खडा किया गया, उनके चेहरे काले कपड़े से ढँक दिए गए…गाँठे ठीक करने के बाद जल्लाद तख्ते से उतरा और लीवर खींच दिया।
आप्टे तुरंत मर गया और उसकी देह धीमे-धीमे झूलने लगी लेकिन अचेतन होने के बावजूद लगभग पंद्रह मिनट तक गोडसे के पैर काँपते रहे और देह एँठती रही।
दोनों शवों की अंतिम क्रिया जेल के अन्दर ही कर दी गई और राख घघ्घर नदी में एक अनजान जगह पर बहा दी गई।[xiv]
उसने गांधी को क्यों मारा से साभार
संदर्भ
[i]देखें, कपूर आयोग की रिपोर्ट, खंड 2, पेज 354 (26.105)
[ii]देखें,पेज 199, द मेन हू किल्ड गांधी, मनोहर मालगांवकर, लोटस कलेक्शन, रोली बुक्स, दिल्ली – 2019
[iii] देखें,पेज 321-22, द मेन हू किल्ड गांधी, मनोहर मालगांवकर, लोटस कलेक्शन, रोली बुक्स, दिल्ली – 2019
[iv] देखें, पेज 13-14, द मर्डर ऑफ महात्मा, जी डी खोसला, जयको पब्लिशिंग हाउस, बंबई – 1965 (https://www.mkgandhi.org/ebks/the-murder-of-the-mahatma.pdf)
[v] देखें, पेज 110, 1857 का स्वातंत्र्य समर, विनायक दामोदर सावरकर, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली – 2018
[vi] देखें, पेज 96, सावरकर एंड हिन्दुत्व, ए जी नूरानी, सातवाँ संस्करण, लेफ्टवर्ड, दिल्ली -2017
[vii] देखें, पेज 234, मारू जीवनवृत्तांत, मोरार जी देसाई, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद -2014
[viii] देखें, पेज 130, सावरकर एंड हिन्दुत्व, ए जी नूरानी, सातवाँ संस्करण, लेफ्टवर्ड, दिल्ली -2017
[ix] देखें,पेज 199, द मेन हू किल्ड गांधी, मनोहर मालगांवकर, लोटस कलेक्शन, रोली बुक्स, दिल्ली – 2019
[x] देखें, अध्याय 1 (176), व्हाई आई किल्ड द महात्मा, कोएनराड एल्स्ट, रूपा, दिल्ली -2018 (किंडल वर्ज़न)
[xi] देखें गाँधी हत्या आर्काइव, पेज 81
[xii] देखें, वही, पेज 3-26, 46-50, 69-80
[xiii] गाँधी आर्काइव में हिन्दुस्तान टाइम्स की 16 अक्टूबर की ख़बर
[xiv] देखें, , पेज 47-48, मर्डर ऑफ महात्मा, जी डी खोसला, जयको पब्लिशिंग हाउस, बंबई – 1965 (https://www.mkgandhi.org/ebks/the-murder-of-the-mahatma.pdf)
[v] देखें, पेज 110, 1857 का स्वातंत्र्य समर, विनायक दामोदर सावरकर, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली – 2018

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में