बादशाह खान और उनका थैला 

खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें सीमांत गांधी और बादशाह खान के नाम से जाना जाता था, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश में पख्तूनों के प्रमुख नेता और अहिंसा के प्रबल समर्थक थे।

उनके द्वारा शुरू किया गया लाल कुर्ती आंदोलन आजादी की लड़ाई में अहिंसक आंदोलन का बेहतरीन उदाहरण है।

अपने सेकुलर स्वभाव और विभाजन विरोधी विचारों के कारण उनकी मोहम्मद अली जिन्ना से कभी नहीं बनी, और वे हमेशा पाकिस्तान के निर्माण के विरोध में रहे।

बादशाह खान हमेशा अपने साथ एक कपड़े की गठरी रखते थे, जिसे किसी को नहीं देते थे। गांधी जी अक्सर इस पर मजाक किया करते थे।

एक बार कस्तूरबा गांधी ने बापू से कहा कि बादशाह खान के थैले पर मजाक न करें, क्योंकि उसमें सिर्फ एक पठानी सूट और जरूरी सामान है। इस पर बापू ने मुस्कराकर कहा, "मुझे पता है, मैं तो बस मजाक कर रहा हूं।"

विभाजन के बाद बादशाह खान पाकिस्तान के नागरिक बन गए और वहां की सत्ता के विरोध के कारण कई साल जेल में रहे। इस कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा।

1969 में महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी के अवसर पर इंदिरा गांधी के निमंत्रण पर वे इलाज के लिए भारत आए।

जब बादशाह खान अपनी पोटली के साथ विमान से बाहर आए, तो इंदिरा जी ने उसे उठाने की पेशकश की। बादशाह खान ने कहा, "यही तो बचा है, इसे भी ले लोगी?" उनकी इस बात में विभाजन का दर्द झलक गया।

1985 में कांग्रेस स्थापना शताब्दी समारोह में राजीव गांधी ने उन्हें विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। राजीव गांधी ने उनसे पोटली देखने की अनुमति मांगी, जिसे बादशाह खान ने खुशी-खुशी दे दी।

पोटली में केवल दो जोड़ी लाल कुर्ता-पायजामा थे। उनकी सादगी और सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक बादशाह खान को 1987 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।