नेहरू की लोकतांत्रिक परंपरा

आज़ादी से पहले अंतरिम सरकार के दौरान जीवी मावलंकर को स्पीकर चुना गया। 1952 में संविधान अंगीकार होने के बाद भी उन्हें पुनः स्पीकर बनाया गया।

मावलंकर के निधन के बाद डिप्टी स्पीकर एन. ए. अयंगर को स्पीकर चुना गया। इसके बाद डिप्टी स्पीकर का पद खाली हो गया, जिसके लिए कांग्रेस में नामों की चर्चा तेज़ हो गई।

डिप्टी स्पीकर पद के लिए कई बड़े नाम चर्चा में थे। जवाहरलाल नेहरू, राजा जी और अन्य बड़े कांग्रेसी नेताओं के पास इसके लिए नामों की सिफारिश की जा रही थी।

जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस की मीटिंग में एक नई परंपरा शुरू की। उन्होंने सुझाव दिया कि डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को दिया जाए, जिससे लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष बना रहे।

नेहरू का मानना था कि लोकतंत्र में एक ताकतवर विपक्ष सत्ता पर अंकुश लगाए रखने के लिए आवश्यक है और जनता के हितों की रक्षा करता है।

नेहरू ने केवल दो सांसदों वाले अकाली दल के नेता सरदार हुकुम सिंह को डिप्टी स्पीकर के पद पर नियुक्त किया, जबकि कांग्रेस के पास 489 में से 364 सीटों का बहुमत था।

नेहरू ने यह साबित किया कि लोकतंत्र में विपक्ष को सम्मान देना वास्तव में जनता को सम्मान देने के बराबर है।

नेहरू द्वारा शुरू की गई यह परंपरा वर्षों तक जारी रही, जिसमें विपक्ष को डिप्टी स्पीकर का पद दिया जाता रहा।

नेहरू ने दिखाया कि सशक्त लोकतंत्र के लिए न सिर्फ सरकार का मजबूत होना, बल्कि विपक्ष का भी उतना ही महत्वपूर्ण होना जरूरी है।