सुखदेव का असली नाम सामने आने से पहले, उनके ग्रामीण पहनावे और व्यवहार के कारण क्रांतिकारी दल में उन्हें "विलेजर" कहा जाता था।
सुखदेव छोटी-छोटी बातों पर जोर से हंसते थे, लेकिन उनकी हंसी के पीछे गहरी विद्रोह की भावना और उपेक्षा का संकेत छिपा होता था।
उन्होंने क्रांतिकारी संगठन की छोटी-छोटी जरूरतों पर ध्यान देकर उसे मजबूती दी। उनकी सूझबूझ से संगठन को ईंट-दर-ईंट खड़ा किया गया।
पहचान छिपाने के लिए सुखदेव ने एसिड और मोमबत्ती का उपयोग करके अपने शरीर पर "ओम" और नाम के निशान मिटाने के प्रयास किए। यह उनकी कठोर अनुशासन की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
जब दल की केंद्रीय समिति ने दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने का निर्णय लिया, तब सुखदेव बैठक में मौजूद नहीं थे। इसके बावजूद, उन्होंने भगत सिंह को इस कार्य के लिए भेजने का जोरदार समर्थन किया।
सुखदेव ने महात्मा गांधी को एक पत्र लिखकर क्रांतिकारी दल के उद्देश्यों का बचाव किया और उनके क्रांतिकारी गतिविधियों के विरोध का कड़ा विरोध किया।
लाहौर षड़यंत्र मामले में सुखदेव को भगत सिंह और राजगुरु के साथ 23 मार्च 1931 को फांसी की सजा सुनाई गई। उनके साहस और दृढ़ संकल्प ने उन्हें अमर बना दिया।
अंग्रेज़ अधिकारियों ने बढ़ते जनाक्रोश को देखते हुए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों का गुप्त रूप से फिरोज़पुर जिले के हुसैनीवाला में अंतिम संस्कार कर दिया।
सुखदेव का योगदान भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के महानतम उदाहरणों में गिना जाता है। उन्होंने कभी अपनी शिकायतें जाहिर नहीं कीं और अंतिम समय तक अपने क्रांतिकारी उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहे।