क्या कभी संस्कृत सम्पूर्ण उत्तर भारत में आम लोगों की बोलचाल की भाषा थी?
[क्या कभी संस्कृत सम्पूर्ण उत्तर भारत में आम लोगों की बोलचाल की भाषा थी ? हाल में इस विषय पर काफ़ी बातें पढ़ने सुनने में आयी थीं. यद्यपि यह एक वृहद विषय है जिस पर तरुण भटनागर ने कुछ ज़रूरी बातें की हैं।]
सम्राट अशोक और संस्कृत
अशोक प्राचीन काल का इकलौता ऐसा शासक है जो आम जनों और अपने राज्य के नागरिकों को सीधे सम्बोधित करते हुए काफ़ी प्रचुर मात्रा में शिलालेख, स्तंभलेख आदि लिखवाता है. रोचक बात यह है कि वह अपने राज्य के नागरिकों को जिस भाषा में सम्बोधित कर रहा है वह संस्कृत भाषा नहीं है.
अशोक का साम्राज्य हमारे यहाँ के राजाओं के साम्राज्य में सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक रहा है. इसका एक निष्कर्ष यह है कि मौर्यकाल के इस विशाल साम्राज्य में नागरिकों को सम्बोधित करने के लिए सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत नहीं थी. अशोक का समय वह समय भी है जब क्लासिकल संस्कृत जिसे पाणिनीय संस्कृत भी कहा जाता है का विकास हुए कम से कम दो सौ सालों का समय बीत चुका था और वैदिक संस्कृत के पहले भारतीय ग्रंथ याने ऋग्वेद की रचना हुए कम से कम आठ सौ साल से ज़्यादा का समय बीत चुका था और ऐसे समय में संस्कृत की बजाय कोई और भाषा जन संवाद के लिए अशोक को ज़्यादा उपयुक्त लगती है.
दरअसल प्राचीन भारत में भाषाओं का विकास इतिहास का एक ऐसा हिस्सा है जिसके कई आयाम हैं. यह अब भी debatable है कि कब और कहाँ से हम उस दौर की एक प्रमुख भाषा जिसे प्राकृत भाषा कहते हैं, जिसका प्रयोग अशोक अपने शिलालेखों में कर रहा है , उसके विकास को देखें. प्राकृतसर्वस्व, जैन व्याकरणविद हेमचंद्र सूरी के अध्ययन, प्राकृतचंद्रिका, प्राकृतशब्दप्रदीपिका, दशरूपकावलोक तथा मार्कण्डेय जैसे प्राकृत के व्याकरणविदों के साथ-साथ प्राकृत भाषा पर लिखे और प्राकृत भाषा में लिखे तमाम ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर पिशेल रिचर्ड का एक काम है जो इस बात को बताता है कि प्राचीन भारत की यह भाषा भले संस्कृत से अलग एक भाषा है पर इसकी उत्पत्ति के तमाम भाषा अध्ययन स्त्रोत स्पष्ट कर ही देते हैं कि इस भाषा की उत्पत्ति में संस्कृत की अहम भूमिका है और कुछ स्थानीय बोलियों के साथ मिलकर यह भाषा विकसित हुई.
दोनों भाषाएँ याने संस्कृत और प्राकृत एक ही भाषा परिवार की सदस्य भी हैं. इनकी भाषायी संरचना, इतिहास और स्वरूप इतना मिलता जुलता है कि ये दोनों indo-aryan नाम से जाने गए इस भाषा समूह में शामिल की गयी हैं.
वैदिक काल की भाषा क्या थी?
एक तथ्य इस बात से भी उपजता है कि वैदिक काल को वैदिक साहित्य से समझने की महती आवश्यकता ने उन संस्कृतियों को नज़रंदाज़ किया जो वैदिक काल से विकसित होती दिखती हैं.
यानी PGW या काले, लाल मिट्टी के बर्तनों वाली संस्कृतियों जैसी संस्कृतियाँ जिनमें वैदिक संस्कृति से मिलते-जुलते और उससे अलग दोनों तरह के तत्व मिले हैं वे उस तरह से वैदिक काल के अध्ययन में शामिल नहीं हैं जिस तरह से कि वैदिक काल का वह समाज जिसकी जानकारी हमें वैदिक ग्रंथों से मिलती है. इस विषय पर स्पष्ट जानकारी आज भी नहीं है कि वैदिक काल के ये सब ऐसे तमाम सांस्कृतिक समूह जो निश्चय ही वैदिकों से अलग थे, कौन सी और किस तरह की भाषा बोलते रहे होंगे. इस विषय पर कि वैदिक काल को जानने के पुरातात्विक स्त्रोत कौन से हैं और वे उस संस्कृति के बारे में क्या बताते हैं, काफ़ी कुछ किए जाने की ज़रूरत है ही.
कई विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि सँसार में संस्कृत भाषा का पहला प्रमाण सीरिया से है न कि भारतीय उपमहाद्वीप से जो इस भाषा के इतिहास को और भी प्राचीन बना देता है और इसे ऋग्वेद से प्रारम्भ करने से कहीं बहुत पहले इसके बहुत पुराने अतीत का प्रमाण भी प्रस्तुत करता है, इसके साथ विकसित इसकी दूसरी सहोदरी भाषाओं के विकास को भी.
प्राकृत भाषा के विकास को ऋग्वेद के काल से विकसित होता हुआ मानने वाले कुछ अध्ययन हैं, जिनमें भाषा शास्त्र और इतिहास के कुछ साक्ष्यों के आधार पर इस भाषा के विकास की बात की गयी है. निश्चय ही यह भाषा अशोक के काल तक इतनी प्रचलित और व्याप्त रही होगी कि मगध साम्राज्य का आम नागरिक बोलचाल में संस्कृत के बनिस्बत प्राकृत भाषा का प्रयोग करता रहा होगा, जिसके कारण अशोक अपने अभिलेख प्राकृत में लिखवाता है न कि संस्कृत में. पर वहीं यह भी तो है कि मौर्यकाल वह काल भी है जब कौटिल्य का अर्थशास्त्र लिखा गया जो कि संस्कृत में है और कुछ अन्य महत्वपूर्ण संस्कृत की रचनाएँ अस्तित्व में आयीं.
ऋगवैदिक काल के सीमित भौगोलिक क्षेत्र जिसे सप्तसैंधव कहा गया है का व्यापक प्रसार उत्तर वैदिक काल में देखने को मिलता है. हावर्ड विश्वविद्यालय के सितम्बर 2019 के चर्चित अनुसंधान के बाद सप्तसैंधव के इन लोगों का स्टेपीस के क्षेत्र से भारतीय उपमहाद्वीप में माईग्रेशन एकदम स्पष्ट हो जाता है. हमारे यहाँ इनकी संस्कृति में उत्तरोत्तर विकास होता है जैसे खेती के अभ्यस्त होने के बाद आया स्थायित्व जिसने उत्तर वैदिक काल में इनके उत्तर भारत में प्रसार को गति दी. कुछ संकेतों जैसे वैश्वानर अग्नि वाली कथा या दक्षिण में ऋक्ष पर्वत तक प्रसार की पवित्रता से पूर्व में गण्डक नदी और दक्षिण में विंध्याचल-नर्मदा तक याने उत्तर भारत के आज के बड़े इलाक़े में ये लोग फैले. सैंकड़ों बरसों तक इनका यह फैलाव इन क्षेत्रों में उनकी भाषा याने वैदिक संस्कृत के फैलाव को बताता ही है. यही वह क्षेत्र भी है जहाँ प्राकृत भाषा अपने अलग-अलग स्वरूपों के साथ पायी जाती रही है.
गुप्तकाल के पहले संस्कृत को राजकीय भाषा की मान्यता नहीं मिली थी
इतिहास में यह भी है कि गुप्तकाल से पहले मगध में संस्कृत को व्यापक रूप से राजकीय भाषा के रूप में मान्यता न मिली थी. उत्तर वैदिक काल में यह निश्चय ही उस शासनतंत्र की भाषा रही जो आर्यों के समाज को संचालित करता था. कुछ उदाहरण महाजनपद काल के भी हैं. पर मगध जैसे विशाल साम्राज्य की राजकीय भाषा बनने में संस्कृत को सैंकड़ों वर्षों का लम्बा समय लगा. यह समाज के सभ्रांत और पढ़े लिखे समुदायों के साथ-साथ तमाम लोगों द्वारा बोली और पढ़ी-लिखी जाने वाली भाषा रही है.
परम्परा में आम लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के जो उपक्रम हुए उनमें जैन परम्परा के प्रयास बेहद महत्वपूर्ण हैं. जैन साधुओं के भ्रमण और लोगों से संवाद से लेकर गणों की स्थापना और वणिकों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों से लेकर तमाम क़िस्म के कर्मकारों और शिल्पियों तक जैन परम्परा के प्रेषण के तमाम उदाहरण मिलते हैं.
जैन ग्रंथ संस्कृत में नहीं लिखे गए
एक वशिष्ट बात यह है कि जैन ग्रंथों के मूल ग्रंथ जिन्हें ‘आगम’ कहा जाता है वे प्राकृत में लिखे गए हैं और मागधि और अर्ध-मागधि प्राकृत के प्रयोग इसमें मिलते हैं. जैन ग्रंथों की रचना आगम ग्रंथों से हुई यह बात है ही. याने विचार और परम्परा के प्रसार के लिए न सिर्फ़ अशोक को बल्कि जैन विद्वानों को भी प्राकृत भाषा सही लगती रही है. किसी एकल भाषा को किसी विचार के प्रसार के लिए अपनी विशिष्टता से युक्त होना चाहिए और यही वह बात है जिससे जैन ग्रंथों में प्रयुक्त प्राकृत को कुछ मामलों में आम प्राकृत से अलग और विशिष्ट बताया गया है.
Endrew ollett का इस पर एक महत्वपूर्ण अध्ययन है जो जैन विद्वानों द्वारा प्रयुक्त और अन्य प्राकृत भाषाओं के बीच के भेद को सही नहीं बताता है. यह अध्ययन बेहद तार्किक और साक्ष्यों पर आधारित है, और पढ़ा जाना चाहिए. यह बताता है कि किस तरह विचारों के व्यापक प्रेषण के लिए जैन विद्वानों ने ज़्यादा व्यापक और प्रचलन की भाषा याने प्राकृत को चुना, न कि संस्कृत को. यह स्वभाविक भी है कि लोगों को उनकी ज़बान में बताया जाए तो विचारों का प्रेषण व्यापक होता है. याने एक समष्टि के रूप में प्राकृत भाषा जैन विचारों और परम्पराओं के प्रसार के लिए सर्वथा उपयुक्त पायी जाती है, मान्य होती है और यह बोली जाने वाली और जैन ग्रंथों में प्रयुक्त इस तरह की दो अलग-भाषाएँ नहीं हैं.
यह भी है कि दोनों भाषाओं में यानी संस्कृत और प्राकृत में प्रचुरमात्रा में ग्रंथों का लिखा जाना इन दोनों भाषाओं को पढ़ने और जानने वाले लोगों की समाज में उपस्थिति का प्रमाण भी है. हमें यह न भूलना चाहिए कि न सिर्फ़ प्राचीन भारत में संस्कृत में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य लिखे गए बल्कि संस्कृत में तमाम ग्रंथ लिखे गए और उन्हें गाने और उनके नाट्य रूपों के मंचन के प्रमाण हैं ही.
यह ठीक है कि इनमें से ज़्यादातर काम गुप्तकाल और उसके बाद का है पर इस समय से सैंकड़ों वर्ष पूर्व पाणिनि द्वारा तथाकथित क्लासिकल संस्कृत की रचना से और उसके सैंकड़ों साल बाद यह सब होना संस्कृत के बढ़ते प्रभाव और प्रसार का संकेत है. पर यह सिर्फ़ संस्कृत में ही नहीं हो रहा था, बल्कि प्राकृत भाषा का साहित्य भी ख़ूब लिखा जा रहा था और उसकी ख़ासी प्रतिष्ठा भी थी. यानी इतिहास में मौर्यकाल से गुप्तकाल तक भाषा के प्रयोग में परिवर्तन दिखता है.जिस संस्कृत को अशोक नागरिकों को सम्बोधित करने के लिए और जैन विद्वान अपनी परम्परा के प्रसार के लिए उपयुक्त नहीं पाते हैं वही संस्कृत मजबूत होती है. यद्यपि इसकी एक वजह संस्कृत को मिला राजकीय प्रश्रय भी है. दिव्यावदान के संदर्भ पुष्यमित्र शुंग के समय से एक क़िस्से में बौद्ध परम्परा के प्रतिरोध में संस्कृत को लाने की बात करते हैं, इसकी आलोचना करते हैं, पर ऐसे कुछ और उदाहरणों के बावजूद गुप्तकाल से लेकर पुष्यभूति और उसके बाद तक संस्कृत राजकीय भाषा के रूप में कई जगह दिखती है.
राजकीय संरक्षण भले किसी भाषा को आम लोगों की भाषा बना पाने में मददगार न हो पर वह समाज के ताकतवर, अभिजात्य और सम्पन्न लोगों में भाषा के प्रति एक उत्साहवर्धक माहौल बनाता है. पर यह यहीं तक है, आम जीवन में भाषा के प्रसार में यह कोई महत्वपूर्ण कारक नहीं होता है. जिस तरह मध्यकाल में राजकीय भाषा होने के बावजूद तुर्क और फ़ारसी आम लोगों के बीच से हिंदी या उर्दू को हटाकर खुद को स्थापित नहीं कर पायी वैसा ही संस्कृत को मिले राजकीय प्रश्रय के साथ भी हुआ होगा कि वह राजकीय आज्ञाओं और प्रशस्तियों की भाषा होने के बावजूद भी प्राकृत भाषा के व्यापक प्रसार के लिए चुनौती न हो पायी.यहाँ यह भी है ही कि संस्कृत में लिखा गया बहुत सारा साहित्य राजकीय प्रश्रय में लिखा गया.
कालिदास,क्षेमेन्द्र,राजशेखर, विशाखदत्त, बाणभट्ट आदि के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण रचनाएँ इसी तरह से आती हैं. एक रोचक बात यह है कि संस्कृत के इस साहित्य में भी कई जगहों पर आम लोगों को ऐसी भाषा बोलते हुए बताया गया है जो संस्कृत से भिन्न है और एक तरह से इस भाषा को बोलने के कारण उनका मजाक बनाया गया है एक चर्चित प्रसंग मृच्छकटिकम में शकार का है.
बौद्ध परम्पराएँ भी आम नागरिकों को जोड़ने की वकालत करती थीं इसलिए सम्भव है उन्होंने भी संस्कृत के बजाय किसी और ऐसी भाषा का चयन किया होगा जिसे आम लोग ज़्यादा अच्छे से समझ सकें. पर इसे जानने में एक मूलभूत दिक्कत है. बौद्ध रचनाएँ जिन्हें आज हम त्रिपिटक के नाम से जानते हैं उनका वह हिस्सा जो ज्ञात था सुनने और याद रखने की परम्परा में चलता रहा. कथा है कि गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद की एक बड़ी ख्याति इस बात में थी कि इन्हें बुद्ध के वचन याद थे और इस तरह वे उसे बताते थे. जब ये संग्रहित हुए लगभग ईसा से 100 साल पहले से ईसा से 100 साल बाद तक तो अनुराधापुर के जिन लोगों ने यह काम किया उन्होंने इन्हें अपनी भाषा याने पाली में लिख लिया. ये तमाम बातें जिन मूल बातों से पाली में आयी वह कौन सी भाषा थी यह आज भी debatable हो जाता है, यद्यपि अध्ययन बताते हैं कि प्राकृत और संस्कृत दोनों के साक्ष्य होने के बाद भी प्राकृत का dominance है.
कई बेहद रोचक अध्ययन सातवीं सदी से इन दोनों भाषाओं के धीरे धीरे सीमित होते जाने का है और इसी के साथ हिंदी के विकसित होने को हम देखते हैं और जब एक बेहद चर्चित मानी जाने वाली ऐतिहासिक घटना के रूप में अमीर खुसरो ने इसे पहचान था, दरअसल तब तक यह पर्याप्त प्रसार पा चुकी थी.
हिन्दी के जाने माने लेखक। कई कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित। इतिहास में विशेष रुचि।