एक किताब रोज़ : भारत का मुक्ति संग्राम
आज़ादी की लड़ाई कोई एक दिन की नहीं है। कंपनी राज की स्थापना के बाद से ही भारतीय जनता ने अपने-अपने स्तर पर प्रतिकार शुरू कर दिया था। बड़ी लड़ाइयाँ तो अखबारों से लेकर किताबों तक में आईं लेकिन हाशिये के वर्ग के संघर्ष अक्सर हाशिये पर ही रहे। यह किताब हाशिये के उन्हीं संघर्षों का शानदार दस्तावेज़ है।
अयोध्या सिंह की किताब ‘भारत का मुक्ति संग्राम’ हाशिये के इन्हीं संघर्षों का शानदार दस्तावेज़ है।
संन्यासी विद्रोह (1763-1800) से शुरू करते हुए अयोध्या सिंह मेदिनीपुर, धलभूमि, शमशेर ग़ाज़ी से लेकर मोआमारिया, अफ़ीम किसानों के विद्रोह, चोआड़ विद्रोह, चाकमा विद्रोह, चेरो विद्रोह, भील विद्रोह, हो आदिवासियों के विद्रोह, कोल विद्रोह, कोलियों के मोर्चे, नागाओं के विद्रोह, संथाल विद्रोह से लेकर 1857 के संग्राम और उसके बाद के कूका विद्रोह (1869-72) से लेकर बिरसा मुंडा के विद्रोह (1899-1900) तक 84 अध्यायों में ग़ुलामी के पहले दो दशक में जनता के विद्रोहों का ऐसा इतिहास पेश करते हैं जो आमतौर पर याद नहीं किया जाता।
ये वो विद्रोह थे जिनमें बिना किसी बड़े संसाधन के जनता ने अत्यंत बलशाली ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी, संघर्ष किए और फिर बलिदान हुए। आदिवासी इलाक़ों में अँग्रेज़ी शासन की लूट के खिलाफ़ बिगुल बजाने वाले तिलका मांझी की कहानी आप यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं। ऐसे वीरों की कहानियाँ हम आगे भी देते रहेंगे।
ऐसे ही 1857 के समय जो संघर्ष हुआ उसकी एक कहानी हमने पहले भी क्रेडिबल हिस्ट्री पर दी है – सिंधिया की गद्दारी
अयोध्या सिंह की यह किताब आपको ऐसी अनेक रोचक और प्रेरणादायक कहानियों से परिचित कराती है और बताती है कि आज़ादी किन्हीं मुट्ठी भर लोगों ने नहीं दिलाई बल्कि भारतीय जनता के दलित-दमित-वंचित तबके के अथक संघर्ष और बलिदानों ने वह नींव रखी जिसके ऊपर आज़ादी का महस्वप्न विकसित हुआ।
यह किताब भारतीय इतिहास के हर पाठक की लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए।
लगभग साढ़े चार सौ पेज की यह किताब मात्र 245/ रुपयों में अमेजन पर उपलब्ध है।
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