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काकोरी कांड में नहीं थे शामिल, फिर भी हंसते-हंसते शहीद हुए रोशन सिंह

ठाकुर रोशन सिंह असहयोग आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में हुए गोलीकांड में सजा काटने के बाद जब शांति से जीवन बिताने के लिए घर लौटे, परन्तु  जल्द ही हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए।

 

उन्होंने काकोरी कांड में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भी कठोर दंड दिया। काकोरी कांड के सूत्रधार पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथी अशफाक उल्ला खां के साथ 19 दिसंबर 1927 को उन्हें फांसी दे दी गई।

 

ये तीनों ही क्रांतिकारी उत्तर प्रदेश के “शहीदगढ़” कहे जाने वाले जनपद शाहजहाँपुर से थे। इन तीनों में ठाकुर रोशन सिंह आयु में सबसे वरिष्ठ, अनुभवी, दक्ष और अचूक निशानेबाज थे। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम इतिहास में अमर है।

कौन थे ठाकुर रोशन सिंह ?

क्रांतिकारी  ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद शाहजहाँपुर के गाँव नवादा, (कस्बा फतेहगंज से 10 किलोमीटर दूर) में 22 जनवरी 1892 को हुआ था। उनकी माता जी का नाम कौशल्या देवी और पिता जी का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। पूरा परिवार आर्य समाज के विचारों से प्रेरित था।

ठाकुर रोशन सिंह अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन में शाहजहाँपुर और बरेली जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

 

असहयोग आंदोलन के दौरान बरेली में हुए गोलीकांड में उन्होंने अद्भुत साहस दिखाया। एक पुलिसकर्मी की रायफल छीनकर उन्होंने जबरदस्त फायरिंग शुरू कर दी, जिससे हमलावर पुलिस उल्टे पाँव भागने पर मजबूर हो गई।

 

इस घटना के बाद उन पर मुकदमा चला, और उन्हें बरेली सेंट्रल जेल में दो साल की सजा काटनी पड़ी। बरेली गोलीकांड में सजा भुगतने के दौरान ठाकुर रोशन सिंह की मुलाकात कानपुर निवासी पंडित रामदुलारे त्रिवेदी से हुई। पंडित त्रिवेदी को पीलीभीत में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण छह महीने की सजा हुई थी, और वह बरेली सेंट्रल जेल में कैद थे।


नेशनल कॉलेज में भगत सिंह के कॉलेज के दिन


क्रान्तिकारियों के दल में शामिल हुए ठाकुर रोशनसिंह

 

अशफाक उल्ला खां, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह
अशफाक उल्ला खां, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह

 

1922 में हुए चौरी-चौरा काण्ड के विरोध स्वरूप असहयोग आन्दोलन वापस ले लिये जाने पर पूरे हिन्दुस्तान में जो प्रतिक्रिया हुई उसके कारण ठाकुर रोशन सिंह ने भी  राजेन्द्र नाथ लाहिडी,  रामदुलारे त्रिवेदी व सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य आदि के साथ शाहजहाँपुर शहर के आर्य समाज पहुँच कर राम प्रसाद बिस्मिल से गम्भीर मन्त्रणा की जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कोई बहुत बड़ी क्रान्तिकारी पार्टी बनाने की रणनीति तय हुई। इसी रणनीति के तहत ठाकुर रोशनसिंह को पार्टी में शामिल किया गया था।

क्रान्तिकारी पार्टी के पास संविधान, विचार-धारा व दृष्टि के साथ-साथ उत्साही नवयुवकों का बहुत बड़ा संगठन था। हाँ, अगर कोई कमी थी तो वह कमी पैसे की थी।

इस कमी को दूर करने के लिये आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का रास्ता अपनाया गया और वह रास्ता था डकैती का इस कार्य को पार्टी की ओर से ऐक्शन नाम दिया गया। ऐक्शन के नाम पर पहली डकैती पीलीभीत जिले के एक गाँव बमरौली में 25 दिसम्बर 1924 को क्रिस्मस के दिन एक खाण्डसारी (शक्कर के निर्माता) व सूदखोर (ब्याज पर रुपये उधार देने वाले) बल्देव प्रसाद के यहाँ डाली गयी।

 

इस पहली डकैती में 4000 रुपये और कुछ सोने-चाँदी के जेवरात क्रान्तिकारियों के हाथ लगे। परन्तु मोहनलाल पहलवान नाम का एक आदमी, जिसने डकैतों को ललकारा था, ठाकुर रोशन सिंह की रायफल से निकली एक ही गोली में ढेर हो गया। सिर्फ मोहनलाल की मौत ही ठाकुर रोशन सिंह की फाँसी की सजा का कारण बनी।

 काकोरी कांड में रोशन नहीं थे शामिल?

9 अगस्त 1925 को काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे, यह हकीकत है किन्तु इन्हीं की आयु (36 वर्ष) के केशव चक्रवर्ती (छद्म नाम), जरूर शामिल थे जो बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य थे, फिर भी पकड़े बेचारे ठाकुर रोशन सिंह गए। चूंकि ठाकुर रोशन सिंह बमरौली डकैती में शामिल थे ही और इनके खिलाफ सारे साक्ष्य भी मिल गए थे अतः पुलिस ने सारी शक्ति ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा दिलवाने में ही लगा दी और केशव चक्रवर्ती को खोजने का कोई प्रयास ही नहीं किया।

 

सी.आई.डी. के कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ठाकुर रोशन सिंह पर बार-बार यह दबाव डालते रहे कि वह किसी भी तरह अपने दल का सम्बन्ध बंगाल के अनुशीलन दल या रूस की बोल्शेविक पार्टी से बता दें परन्तु  ठाकुर रोशन सिंह  टस से मस न हुए। आखिरकार उनको दफा 120 (बी) और 121 (ए) के तहत 5-5 वर्ष की कैद और 396 के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसी की सजा दी गयी।

 

इस फैसले के खिलाफ जैसे अन्य सभी ने उच्च न्यायालय, वायसराय व सम्राट के यहाँ अपील की थी वैसे ही ठाकुर रोशन सिंह ने भी अपील की परन्तु नतीजा वही निकला ढाक के तीन पात।

रोशन सिंह फांसी के पहले ज़रा भी उदास नहीं थे

 

ठाकुर रोशन सिंह ने 6 दिसम्बर 1927 को इलाहाबाद स्थित मलाका (नैनी) जेल की काल कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था :

“इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मोहब्बत का बदला दे। आप मेरे लिये रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का वाइस (कारण) होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदफैली करके अपने को बदनाम न करें और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है। दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ।

 

इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके में अब आराम की जिन्दगी जीने के लिये जा रहा हूँ।

हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की।”पत्र समाप्त करने के पश्चात उसके अन्त में उन्होंने अपना यह शेर भी लिखा था

जिन्दगी जिन्दादिली को जान ऐ रोशन! वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं।

 

मैं दोबारा जन्म लूँगा, पढ़ लिखकर फिर देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करूँगा

 

फाँसी से पहली रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घण्टे सोये फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रातः काल शौचादि से निवृत्त हो कर स्नान ध्यान किया या कुछ देर गीता-पाठ में लगाया फिर पहरेदार से कहा, “चलो।”

“ठाकुर एक बात कहूँ?” पहरेदार ने पूछा। “कहो क्या कहना चाहते हो?”

” आपको देखकर तो लगता ही नहीं कि आप मरने वाले हैं!” “तो मुझे देखकर क्या लगता है?” रोशन सिंह ने पूछा। “आप तो किसी दूल्हें की तरह प्रसन्न दिख रहे हैं।”

“आपने ठीक कहा बंधुवर, ” ठाकुर बोले, “दरअसल हिन्दू कभी मरता नहीं, मैं मर नहीं रहा विवाह करने ही जा रहा हूँ।”

“क्या मतलब!”

“अरे भाई आत्मा तो अजर-अमर है, मैं दोबारा जन्म लूँगा, पढ़ लिखकर फिर देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करूँगा और देश स्वतंत्र होने पर फिर विवाह करूँगा और उस विवाह की तैयारी मैंने आज ही की है।” ?

“धन्य हैं आप ठाकुर !” पहरेदार की आँखों में आँसू आ गए थे। वह हैरत से देखने लगा यह कोई आदमी है या देवता! ठाकुर साहब ने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फाँसी घर की ओर चल दिये। फाँसी के फन्दे को चूमा फिर जोर से तीन वार वन्दे मातरम् का उद्घोष किया और वेद-मन्त्र- “ओ3म् विश्वानि देव सवितुर दुरितानि परासुव यद भद्रम तन्नासुव” का जाप करते हुए फन्दे से झूल गए।

 

इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा, बाल-वृद्ध एकत्र थे ठाकुर रोशन सिंह  के अन्तिम दर्शन करने व उनकी अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिये। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाये वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया “ठाकुर रोशन सिंह ! अमर रहें !!” भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहाँ वैदिक रीति से उनका अन्तिम संस्कार किया गया।

गणेश शंकर विद्यार्थी ने किया रोशन सिंह के बेटी का कन्यादान

 

ठाकुर रोशन सिंह के शहीद होते ही उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। घर में एक जवान बेटी थी, जिसके लिए वर की तलाश जारी थी। बड़ी मुश्किल से एक स्थान पर विवाह की बात पक्की हुई।

कन्या का रिश्ता तय होते ही वहां के दरोगा ने लड़के वालों को धमकाया और कहा, “क्रांतिकारी की बेटी से विवाह करना राजद्रोह समझा जाएगा और इसके लिए सजा भी हो सकती है।” लेकिन वर पक्ष दरोगा की धमकियों से डरा नहीं। उन्होंने दृढ़ता से उत्तर दिया, “यह तो हमारा सौभाग्य होगा कि ऐसी कन्या हमारे घर आए, जिसके पिता ने अपना शीश भारत माता के चरणों में अर्पित कर दिया।”

 

वर पक्ष की अटूट प्रतिबद्धता देखकर दरोगा वहां से लौट गया, लेकिन इस विवाह को तोड़ने के लिए हरसंभव प्रयास करने लगा।

 

जब एक पत्रिका के संपादक को इस घटनाक्रम की जानकारी मिली, तो वे आगबबूला हो उठे। तुरंत दरोगा के पास पहुंचे और कठोर स्वर में बोले, “तुम जैसे लोग अपने बुरे कर्मों को ही सफलता समझते हो, लेकिन यह नहीं सोचते कि इन कर्मों से अपने भविष्य में इतने कांटे बो रहे हो, जिन्हें अगर अभी से उखाड़ना शुरू कर दो, तो भी जीवनभर नहीं उखाड़ पाओगे। यदि किसी को कुछ दे नहीं सकते, तो उससे छीनने का प्रयास भी मत करो।”

 

संपादक की खरी-खरी बातों ने दरोगा की आंखें खोल दीं। उसने न केवल कन्या की मां से क्षमा मांगी, बल्कि विवाह का पूरा खर्च उठाने का भी संकल्प लिया।

विवाह की तैयारियां शुरू हो गईं। कन्यादान के समय जब वधू के पिता की अनुपस्थिति का प्रश्न उठा, तो संपादक उठ खड़े हुए और बोले, “रोशन सिंह के न होने पर मैं कन्या का पिता हूँ। कन्यादान मैं करूंगा।”वह संपादक कोई और नहीं, बल्कि महान स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी थे।

 


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संदर्भ

तेजपाल सिंह धामा. दस अमर बलिदानी, आर्यखंड टेलीविजन प्राइवेट लिमिटेड

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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