भारतीय संस्कृति की सांझा विरासत: उर्दू
उर्दू वह जबान कहलाती है जो दिल्ली के आस-पड़ोस की पंजाबी, मेवाती और ब्रजभाषा तथा अरबी, फारसी, तुर्की एवं इनसे मिलती-जुलती भाषाओं के समन्वय से अस्तित्व में आई। हिन्दुस्तान की विभिन्न जबानों की विशेषताएं उर्दू जबान में पाई जाती है।
– सैयद अहमद अली ‘यक्ता’
वो उर्दू क्या है, ये हिन्दी जबाँ है/कि जिसका कायल अब सारा जहां है
– हजरत शाह मुराद
उत्पत्ति एवं विकास की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू दोनों ही संगोत्रीय भाषाएं है।
उर्दू मूलतः तुर्की भाषा का शब्द है, जिसके अर्थ है ‘शाही शिविर‘ या खेमा। वस्तुतः सेना के मिश्रित तत्वों ने इस मिश्रित भाषा का इजाद किया।
बाहर से आने वाले मुसलमानों को मातृभाषा फारसी थी या अरबी या तुर्की। इस कारण यह स्वाभाविक था कि एक ऐसी भाषा अस्तित्व में आए जो शासक और शासितों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान और भावनात्मक एकता का माध्यम बन सके। अतः उर्दू अस्तित्व में आई।
मध्यकाल में उर्दू को मुख्यतः हिन्दवी कहा जाता था। खलजी और तुगलककाल में जब सल्तनत का दक्षिण भारत में विस्तार हुआ तो दक्षिण में जाकर बसने वाले सैनिकों, सूफ़ियो, अमीरों और अधिकारियों को भी इस भाषागत समस्या का और अधिक कठिनाई से सामना करना पड़ा, क्योंकि वे दक्षिण भारत की प्रादेशित भाषाओं से पूर्णतः अनभिज्ञ थे। परिणामस्वरूप में दक्षिण भारत में मिश्रित भाषा के रूप में जिस उर्दू का विकास हुआ वह ‘दक्कनी‘ कहतायी। ‘दक्कनी‘ ही उर्दू भाषा का ‘आदि‘ या ‘शास्त्रीय‘ रूप है।
11वीं शताब्दी के कवि कुली कुतुब शाह की यह रचना उल्लेखनीय है –
पिया बाज प्याला पिया जाए ना
पिया बाज यक तिल जिया जाए ना
कही थे पिया बिन सुबूरी करूँ
कहया जाए अम्मा किया जाए ना
नहीं इश्क़ जिस दू बड़ा कोड़ है
कधीं उस से मिल बे-सिया जाए ना
‘क़ुतुब’ शह न दे मुज दिवाने को पंद
दिवाने कूँ कुच पंद दिया जाए ना
अठारवीं सदी के मध्य तक उर्दू को ‘हिन्दवी, ‘हिन्दी‘, ‘रेख़्ता’ अथवा ‘दक्कनी’ के रूप में पुकारा जाता रहा और आम लोग ‘उर्दू‘ भाषा को ‘हिन्दुस्तानी‘ पुकारते थे। इस प्रकार मध्यकाल में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन के बड़े रोचक परिणाम निकले।
उर्दू शायरी में आरंभ से ही भारतीय सामाजिक जीवन के प्रतिबिम्ब का स्पष्ट रूझान पाया जाता है यथा- भारतीय ऋतुओं, मेले, श्रृंगार नख-शिख, यौवन, परिधान यथा- दुपट्टा, चोली, लहंगा, साड़ी, शरारा आदि।
तुझ बदन पर जो लाल सारी है
अक़्ल उस ने मिरी बिसारी है
उर्दू काव्य में प्रायः मंदिर-मस्जिद, हिन्दू -मुसलमान आदि का भेदभाव दृष्टिगत नहीं होता है।
जफ़र, मीर, दर्द और ग़ालिब आदि इसके जीवंत उदाहरण है।
तोड़कर बुतखाने को मस्जद बिना की तूने शेख
ब्रह्मन के दिल की भी कुछ फिक्र है तामीर का
– मीरउसके फरोग-ए-हुस्न से झमके है सबमें नूर
शम्मे-हरम हो या कि दिया सोमनाथ का
– अली सरदार जाफ़री
हजरत गुलाम कादिर शाह (1761) की मसनवी ‘रम्सुल आशिकिन‘ का वजन हिन्दी छंदों पर आधारित है। कुल मिलाकर उर्दू शायरी भारत के परिवेश में जन्मी और विकसित हुई और बहुत गहरे में उससे प्रभावित हुई। उदाहरण के लिए उर्दू काव्य में नख-शिख वर्णन हिन्दी-सांस्कृत से ही लिया गया है।
हिन्दी में विरह वर्णन बारह मासा के रूप में किया जाता है। जायसी का –पद्मावत इसका उदाहरण है। इससे उर्दू में बारहमासा का रिवाज हो गया।
जाके मथुरा में रही और बड़ा पूजा तुझको
काशी में बैठ रही, लेक न पाया तुझकों
गंगा और जमना के तीरथ में भी मांगा तुझको
कौन-सी जा की जिस जा में न ढूंढ़ा तुझको
पूरब ओ-पश्चिम ओ उत्तर से लगा ताब दकन
18वीं सदी की उर्दू शायरी में संभवतः अन्य स्त्रोत ग्रंथों की अपेक्षा उपर्युक्त विचारधाराओं व युग प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन होता है।
वस्तुतः पिछली दो शताब्दियों के सामाजिक व सांस्कृतिक समन्वय की प्रवृत्तियों को मुखरित करती है।
आज जबकि साम्प्रदायिकता मुंह बाए खड़ी है यह याद करना सुखद लगता है कि ग़ालिब के शागिर्दो में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई हर तरह के लोग थे। ग़ालिब की शायरी में एक जगह जहाँ ईद नौराज का जिक्र किया है, वहाँ होली और दीवाली की रंगीनियों का भी बयान है:
शहर में कू-ब-कू अबीर-ओ-गुलाल
बाग में सू-ब-सू गुले – नसरी
तीन त्यौहार और ऐसे खूब
जमा हरगिज न हुए होंगे कभी
है तमाशगाह सोज़े ताज हर यक उज्वेतन
जूँ चरागाने-दीवाली सफ-ब-सफ जलता हूँ मै
स्वतंत्रता और विभाजन के बाद लगातार यह साबित करने की कोशिश की एक उर्दू तकसीम की ज़बान है। यहीं से ज़बान की सियासत का आग़ाज़ हुआ और आगे चलकर अलगाववादी तंजीमों ने उर्दू को शिद्दत पंसदों की जबान करार दिया। इससे उर्दू पर साम्प्रदायकि होने का दाग़ भी लग गया। उर्दू के वजूद को लेकर यह बड़ी सांस्कृतिक मुश्किल बन गई। जबकि इसी उर्दू ने इक़बाल के माध्यम से ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ का सुर दिया था।
हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की जीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की जीनत
‘उर्दू भारतीय भाषाओं के दरम्यान एक सेतु की हैसियत रखती है। जैसा कि इकबाल ने कहा था – ‘शिकोह तुर्क मानी, जहने हिन्दी‘
‘ग़ज़ल का शेर दोहे की तरह दो पंक्तियों का होता है और आज़ाद है। उर्दू ग़ज़ल का आग़ाज़ फ़ारसी ग़ज़ल के साए में कमोबेश उसी मध्यकाल में हुआ जो कबीर और खुसरो का दौर था।
आज भी उर्दू भारत-पाक को जोड़ने का एक माध्यम है।
अहमद फराज उधर से लिखते हैं:-
चलों मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए
और इधर से अली सरदार जाफरी लिखते है
इसी सरहद पे कल डूबा था
सूरज होके दो टुकड़े
इसी सरहद पे कल, ज़ख़्मी हुई थी
सुब्हे आज़ादीतुम आओ गुलशने-लाहौर से चमन बरदोश
हम आएं सुब्हे बनारस की रोशनी लेकर
हिमालिया की हवाओं की ताज़गी लेकर
फिर उसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है ?गुफ़्तगू बंद न हो बात से बात चले
सुबह तक शामे – मुलाक़ात चले
सर पे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले
निदा फ़ाज़ली लिखते हैं
हिन्दू भी सुकूँ से है मुसलमाँ भी सुकूँ से
इंसान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी
रहमान की रहमत हो कि भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी
उठता है दिल-ओ-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये ‘मीर’ का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी
और जावेद अख्तर लिखते हैं
अपनी अपनी तारीक़ी को लोग उजाला कहते हैं
तारीक़ी के नाम लिखूँ तो क़ौमें , फ़िरक़े , जात लिखूं
नेहरू कहते हैं
‘‘उर्दू भारत में एकता का एक उदाहरण है, यह सिर्फ भाषा नहीं बल्कि चिंतन, साहित्य और संस्कृति की एकता का प्रतीक है।”
और यह कथन एक मुकम्मल निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। निःसंदेह उर्दू ने भारतीय चिंतन और संस्कृति को समृद्ध किया है।
संदर्भ:
1. इकबाल, जीवनी और संकलन, राजपाल एण्ड सन्स प्रकाशन, 1992
2. फाजली, निदा, खोया हुआ सा कुछ, वाणी प्रकाशन, 2000
3. नारंग, गोपीचंद, उर्दू पर खुलता दरीचा, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, दिल्ली, 2008
4. जाफरी, अली सरदार, मेरा सफर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाश, नई दिल्ली
5. अख्तर, जावेद, तरकश, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000
6. गोयलिया, अयोध्याप्रसाद, शेर-ओ-सुखन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, तीसरा संस्करण, नई दिल्ली, 1999
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