पुस्तक समीक्षा : आज़ादी का मतलब क्या?
[ जाने-माने इतिहासकार प्रो लालबहादुर वर्मा को पिछले वर्ष हमने कोविड की लहर में खो दिया। उनकी आखिरी किताब ‘आज़ादी का मतलब क्या’ राजपाल प्रकाशन दिल्ली से हाल ही में प्रकाशित हुई है। उसी किताब पर एक टिप्पणी]
विचारों का सौन्दर्यबोध आज़ादी की आकांक्षा का विस्तार करता है
- देवेन्द्र कुमार आर्य
ऐसे समय में जब ‘आज़ादी’ के कोरस को जे.एन.यू से जोड़ कर चिढ़ौनी बना दिया गया हो और सांस्कृतिक ग़ुलामी का महिमामंडन हो रहा हो, लालबहादुर वर्मा की अब तक की अंतिम किताब, आज़ादी का मतलब क्या का महत्व और बढ़ जाता है.
‘आज ऐसे संकीर्ण, आक्रामक, सैन्यवादी और विकृत राष्ट्रवाद से मुक्ति की बात करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कि आज शासकों के हाथ में यही सबसे बड़ा हथकंडा जमा है. ऐसे राष्ट्रवाद को राष्ट्रप्रेम का पर्याय बनाने के लिए सरकारें तरह तरह के हथकंडे अपनाती हैं और समाज को विभाजित कर एक बड़े हिस्से को अपने सम्मोहन तंत्र में जकड़ कर अपने निहित हितों का पोषण करती हैं.’ (पृष्ठ 78)
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह पूरी विवेचना हमारे देश के हालिया माहौल पर लागू दिखती है.
डा. वर्मा मुक्ति से भी मुक्ति के आकांक्षी जन-बुद्धिजीवी थे. आज़ादी यदि मुक्ति के अर्थ में है तो ग़ुलामी के कितने प्रकार हो सकते हैं, यह सूची और उनमें से प्रत्येक की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ज़मीनी विवेचना लालबहादुर वर्मा के ही बूते की बात है. उनके लिए मुक्ति वह शै है जो ‘मनुष्य में विवेक, न्यायबोध और सौन्दर्यबोध का संचार करे ताकि एक की मुक्ति दूसरे की दासता का कारण न बने.’ (पृष्ठ 17)
वर्मा जी न तो मुक्ति को व्यक्तिगत मानते हैं न ही ग़ुलामी को . वे मुक्ति से भी मुक्ति की कामना करते हुए मुक्ति की सहजावस्था की कल्पना करते हैं.
भारतीय दर्शन के जबरिया नकार के वामपंथी और अम्बेडकरवादी माहौल में लालबहादुर वर्मा ग़लत समझे जाने का ख़तरा उठा कर भी भारतीय दर्शन का एक तरह का विस्तार करते हैं जहाँ मुक्ति साध्य नहीं , साधन होगी और रूसो का कथन “मनुष्य प्रकृत्या स्वतंत्र है पर हर कहीं बंधनों में जकड़ा हुआ है “, ग़लत साबित होगा.
कठिनतम सैद्धांतिक विषय को सरलतम भाषा में आम जनता तक सम्प्रेषित करने का गुण पिछले तीन दशक में और किसी विश्वसनीय विद्वान के भीतर नहीं देखा गया. प्रमाण चाहिए तो राजपाल प्रकाशन से आई उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक पढ़ लीजिए जिसमें अठारह तरह की ग़ुलामी और उनसे व्यवहारिक आज़ादी के अध्याय हैं.
‘पूंजीवाद में जितना अनिवार्य उत्पाद है अमीरी उतना ही है ग़रीबी. इस व्यवस्था में चाहे जितनी समृद्धि आ जाए, ग़रीबी मिट ही नहीं सकती. क्योंकि कि पूंजीवाद का प्राण है मुनाफ़ा और मुनाफ़ा शोषण द्वारा ही कमाया जा सकता है. जब शोषण होगा तो कोई तो शोषित होगा ही और शोषित होने वालों में अंतिम पायदान तो वंचित रहेगा ही….. यहाँ चिन्हित करते चलें कि पूंजी का चरित्र बदल चुका है. अब उसे मेहनतकश का ख़ून चूसने की ज़रूरत नहीं. जब ग़रीब भी उपभोक्ता हों तभी पूंजी फलती फूलती रह सकती है….. यह भी साबित हो चुका है कि फ़ासीवाद को भी पराजित करने वाली शक्ति पूंजीवादी घुसपैठ को नहीं रोक पाती है. रूस और चीन दोनों ही देशों में आरम्भिक असाधारण सफलताओं के बावजूद समाजवाद के पूंजीकरण को नहीं रोका जा सका.’
समाधान की खोज करते हुए लालबहादुर वर्मा की नज़र बार बार गांधी की तरफ़ जाती है. वे ‘पाप से धृणा करो, पापी से नहीं’ के सूत्र को ‘मुजरिम पूंजीवाद है, पूंजीपति नहीं’ तक ले जाते हैं और आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक ग़रीबी का मुद्दा उठाते हैं.
‘युवा गांधी ने 1909 में हिन्द स्वराज नामक पुस्तिका लिख पाश्चात्य सभ्यता की खरी आलोचना की थी. 20वीं शताब्दी की आपाधापी में उस पुस्तिका पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया. पूरे 100 साल बाद… उस पुस्तिका ने असाधारण रूप से लोगों का ध्यान आकर्षित किया था और आज सारी दुनिया में गांधीवादी विचारों का ही नहीं अर्थशास्त्र का भी पुनर्पाठ हो रहा है.’ ( पृष्ठ 73 )
बताइये कि मार्क्सवादी के रूप में कुख्यात लालबहादुर विश्वसनीय हैं कि नहीं? या कि इसे उनके जीवन के अंतिम वर्षो में आए वैचारिक विपथन के रूप में ही देखा जाना चाहिए ? ध्यान रहे कि लालबहादुर वर्मा सदैव स्वयं सम्बोधित होकर अपने विचारों को संशोधित और अपडेट करते रहने वाले जनपक्षधर बुद्धिजीवी थे जिनके लिए अंतिम कुछ भी नहीं होता था. अंतिम केवल जनता का हित है, वह जैसे भी सधे.
लालबहादुर वर्मा ‘अवसर की समानता’ के पाखंड से भी टकराते हैं और उसे व्यक्ति की सामर्थ्य और ज़रूरत के संदर्भ में देखने की सिफ़ारिश करते हैं.
‘एक जनपक्षधर व्यवस्था को तो मनुष्य की उन ज़रूरतों का भी पता होना चाहिए जिसका पता स्वयं व्यक्ति को भी न हो…. दो रोटी के लिए भूखे इंसान को कहाँ परवाह होगी कि रोटी साफ़ और अच्छी तरह से पकी होनी चाहिए–अच्छी तरह परोसने का महत्व तो उसकी कल्पना से बाहर है ‘ (पृष्ठ 107)यह है वर्मा के विचारों का सौन्दर्यबोध.
आप महसूस कर सकते हैं कि वर्मा जी हर मुद्दे को उसके ज़मीनी सच्चाई और व्यावहारिक कठिनाई के साथ ही उसकी दार्शनिक इंतहा तक ले जाकर समझते और सरल भाषा में समझाते हैं. जार्गन्स से बचते हुए और सिद्धांत बधारने की प्रवृत्तिगत सीमाओं को तोड़ कर यथार्थ की बात करते हैं.
‘ व्यक्तिगत सम्पत्ति तो अलग से नहीं ख़त्म की जा सकती लेकिन सहकारिता और सहभागिता के माध्यम से सम्पत्ति के प्रति मोह और अपने पराये का भाव कम किया जा सकता है ‘ (पृष्ठ 110-111)वे लिखते हैं -‘ बाहर के हर तरह के बंधनों से मुक्त हो जाने के बाद भी अगर मनुष्य की मनीषा मुक्त नहीं है तो मुक्ति वास्तव में चरितार्थ नहीं होगी. (पृष्ठ 14-15 )अनायास नहीं कि पुस्तक में ‘संकिर्णता से आज़ादी’ का भी एक अध्याय है.
इस पुस्तक को मंज़रेआम पर लाने के लिए अशोक कुमार पाण्डेय बधाई के पात्र हैं. उनकी व्यावहारिक दिक़्क़तों को समझते हुए भी उम्मीद है कि पुस्तक के दूसरे संस्करण में अशुद्धियाँ और असावधानियां, मसलन अध्याय-7, दूर कर ली जाएंगी.
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पृष्ठ संख्या : 160
मूल्य : रु. 265अमेजन लिंक : आज़ादी का मतलब क्या
देवेन्द्र कुमार आर्य जाने-माने गीतकार और कवि हैं।