शोएबुल्लाह खान: सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक निडर देशभक्त की शहादत
22 अगस्त 1948 को हैदराबाद में एक खौफनाक मंज़र पेश आया। शहर के इलाके लिंगमपल्ली के पास उर्दू अखबार इमरोज़ (“इमरोज़” का अर्थ है आज के दिन) के संपादक शोएबुल्लाह खान अपने रिश्तेदार इस्माइल के साथ रात घर लौट रहे थे। उस समय 16 साल के इन्टरमीडीएट में पढ़ने वाले छात्र बरगुला नरसिंह राव से उनकी दुआ सलाम हुई और वे आगे बढ़े। कुछ देर बाद राव के घर के नौकर चंद्रैया ने आकर बताया कि उन्होंने गोलियों की आवाज सुनी है। शोएब व इस्माइल पर चार लोगों ने हमला किया था। शोएब के हाथ काट दिए गए और उन्हें गोली मारी गई जबकि इस्माइल का एक हाथ कट गया। शोएबुल्लाह खान की तीन घंटे बाद उस्मानिया जनरल अस्पताल में 23 अगस्त सुबह तड़के मौत हो गई।
हत्यारे रजाकार
यह हत्या की थी रजाकारों ने। उस समय हैदराबाद सिर्फ एक शहर का नाम नहीं, अपितु हजारों वर्गमील में फैले एक राज्य का नाम था। आज का तेलंगाना राज्य, महाराष्ट्र का मराठवाडा एवं कर्नाटक के उत्तर पूर्वी जिले हैदराबाद रियासत के अधीन थे जिनपर अठहराहवी सदी से निजाम का शासन रहा था।
1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो अंग्रेजों ने सांप्रदायिक आग में झुलसते देश को जल्दी-से-जल्दी छोड़ने हेतु सभी रियासतों को यह स्वतंत्रता दे दी थी कि वे या तो भारत और पाकिस्तान में विलय कर लें, अथवा आजाद रहें। हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान को कश्मीर के राज्य हरी सिंह व जोधपुर एवं त्रावणकूर के राजाओं की तरह ही अपनी तानाशाही सामंती व्यवस्था एवं शान-ओ-शौकत छोड़ एक धर्मनिरपेक्ष भारत में मिलने में दिक्कत हो रही थी।
उसी समय 1930 के दशक से सक्रिय मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन नामक राजनैतिक दल के नेता कासिम रजवी ने हैदराबाद रियासत की शासन व्यवस्था पर कब्जा कर लिया। रजवी सांप्रदायिक सोच के नशे में डूबा एक पागल था जिसे आधुनिक युग में भी हिन्दू-मुसलमान ही सूझता था। रजाकार इसी कासिम रजवी द्वारा बनाया हुआ संगठन था और शोएबुल्लाह खान का क़ुसूर था कि वे अपने अखबार में निजाम की भारत में न मिलने की हठधर्मिता एवं रजाकारों के ज़ुल्म के खिलाफ लिख रहे थे। रजवी ने यह खुली चेतावनी दी हुई थी कि निजाम व रजाकारों के खिलाफ लिखने वाले व्यक्ति को जिंदा नहीं छोड़ा जाएगा।
सिद्धांतनिष्ठ- सेक्युलर पत्रकार शोएबुल्लाह
शोएबुल्लाह खान ने अपनी 28 साल के छोटे से जीवन में पत्रकारिता के मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया, जिनके अनुसार सत्ता के सामने सच बोलना सबसे जरूरी है। उन्होंने सांप्रदायिक उन्माद को खारिज कर एक ऐसे देश के लिए जान दे दी जिसमें हर धर्म के लोग आपसी सद्भाव से रह सकें। सबसे बड़ी बात यह कि शोएब ने अपने राज्य और समाज के भीतर व्याप्त कट्टरपंथी और नफरती ताकतों को बिना किसी भी के चुनौती दी।
उनकी बर्बर हत्या के बाद जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- “हैदराबाद में अलग विचार रखने वाला मुसलमान भी सुरक्षित नहीं है!” इस सब के बावजूद शोएबुल्लाह खान का नाम आम जनमानस तो दूर, अकादमिक ऐतिहासिक व हल्कों में भी नहीं सुनाई देता। उनके जीवन से संबंधित ततथ्यों के स्त्रोत भी कम हैं।
विकिपिडिया के तेलुगु पेज (इसे गूगल ट्रांस्लेट की मदद से पढ़ा जा सकता है) के अनुसार शोएबुल्लाह खान का जन्म 1920 में आज के तेलंगाना राज्य स्थित खम्मम में हुआ। उनका परिवार उत्तर प्रदेश से हैदराबाद राज्य आया जहां उनके पिता हबीबुल्लाह निजाम के रेलवे विभाग में कर्मचारी थे।
हालांकि उसी लेख में सय्यद नासिर अहमद नामक लेखक के हवाले से बताया गया है कि हबीबुल्लाह पुलिस में थे जिन्हें 1920 में गांधीजी की विजयवाड़ा यात्रा के दौरान रास्ते में पढ़ने वाले महबूबनगर स्टेशन पर ट्रेन रुकने के दौरान इंतेजाम देखने के लिए भेज गया था। ड्यूटी से लौटकर हबीबुल्लाह को अपने बेटे के जन्म की जानकारी मिली। पिता ने गांधी के आगमन और बेटे के जन्म को सुखद संयोग मानते हुए शोएब की उनसे तुलना करनी शुरू कर दी।
कहते हैं कि शोएब को बचपन में “शोएबुल्लाह गांधी” कहके बुलाया जाने लगा। इसका असर यह हुआ कि शोएब ने गांधी को किशोरावस्था में पढ़ और उनके “सर्वधर्म संभाव” और देश को आजादी दिलाने की विचारधारा से प्रभावित हो गए। उस्मानिया विश्वविद्यालय में पढ़ाई पूरी करने के उपरांत शोएब ने पत्रकारिता शुरू की। चूंकि उनका रुझान हैदराबाद राज्य में निजाम के अलोकतांत्रिक शासन को समाप्त करने की ओर था इसीलिए वे जिस भी पत्रिका में काम करते उसपर प्रतिबंध लगा दिया जाता था।
हैदराबाद के निजाम सिर्फ ऐसे पत्र-पत्रिकाओं को छपने की इजाजत देते थे जो उनके गुण गायें लेकिन न तो उनकी सरकार के किसी फैसले पर सवाल उठाएँ और न ही राजनैतिक मामलों पर टीका टिप्पणी करें। 2009 में ‘इंडियन हिस्ट्री काँग्रेस’ में प्रस्तुत किये गए एक शोध पत्र के लेखक श्रीनिवास राव लिखते हैं:
उन दिनों कोई भी अखबार शुरू करने की प्रक्रिया बहुत जटिल थी। सबसे पहले होम सेक्रेटरी और पुलिस कमिश्नर को आवेदन देना होता था। उसके बाद वह आवेदन सरकार के विज्ञापन सम्वन्धी विभाग को भेजा जाता था। फिर पुलिस अपनी जांच पड़ताल करती थी। वह जांच अखबार के संपादकों, चाहे वह मुल्की हो या गैर-मुल्की, के बारे में विस्तृत रूप से पता करने के लिए होती थी, मसलन उनकी कितनी जायदाद है, इत्यादि। इतनी लंबी प्रक्रिया होने के बाद संपादक व सरकार के बीच एक करारनामा तैयार होता था, जिसमें संपादक यह भरोसा दिलाता था कि वह अपने अखबार में राजनैतिक विषयों या सांप्रदायिक दंगों के बारे में कुछ नहीं लिखेगा। अतः प्रेस की आजादी नाम-मात्र की भी नहीं थी।
इमरोज़ अखबार शुरू करने से पूर्व शोएब रय्यत नामक पत्रिका में काम करते थे। निजाम शासन की आलोचना करने व काँग्रेस एवं कम्युनिस्ट पार्टी के पक्ष में लेख लिखने के लिए उन्हें उस पत्रिका में संपादक के पद से निकाल दिया गया। तत्पश्चात हैदराबाद स्टेट्स काँग्रेस के दो नेताओं रामकृष्ण राव एवं रंगनाथ राव की मदद एवं अपने घर के जेवर गिरवी रख कर शोएब ने इमरोज़ शुरू किया। 1940 के इस दशक में जहां पूरा देश अंग्रेजी शासन के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने को जद्दोजहद कर रहा था, हैदराबाद में सदियों की दासता से परेशान गरीब किसानों ने विद्रोह कर दिया।
निज़ाम का शासन और विद्रोह
दरअसल निजाम शासन में खेती की ज़मीनों को जागीरों के रूप में हिन्दू व मुस्लिम समाज की उच्च जातियों से आने वाले जमींदारों को बाँट दिया गया था। ये लोग किसानों से अनुचित लगान लेते, बंधुआ मजदूरी करवाते एवं उनपर अन्य कई ज़ुल्म करते। जातिवाद एवं महिलाओं की बदहाल स्थिति जैसी कुप्रथाएँ भी घर कर गईं थीं।
ऐसे में कम्युनिस्ट पार्टी ने तेलंगाना क्षेत्र में किसानों को संगठित करना शुरू किया। किसानों का नारा था कि जो जमीन वे जोतते हैं, फसल पैदा करते हैं, उसपर उन्हीं का हक होना चाहिए न कि जमींदार का। गाँव-गाँव में विद्रोह होने लगा और जमींदारों की सत्ता को उखाड़ फेंका गया। तेलंगाना में इस विद्रोह का नेतृत्व पी सुंदरैया एवं रवि नारायण रेड्डी जैसे नेता कर रहे थे, वहीं मराठवाड़ा से स्वामी रमानंद तीर्थ जैसे किसान नेता इनका समर्थन।
तेलंगाना विद्रोह के साथ ही हैदराबाद को भारत में विलीन करने की मांग भी जोर पकड़ती जा रही थी।
लेकिन हठधर्मी निजाम उस्मान अली खान ने जनता की लोकतान्त्रिक मांगों को मानने की वजाय दमन का रास्ता चुना। इत्तेहादुल मुस्लिमीन एवं रजाकारों ने कासिम रजवी के नेतृत्व में शासन व्यवस्था पर कब्जा कर लिया। 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया लेकिन रजाकारों का सांप्रदायिक गिरोह किसी कीमत पर हैदराबाद को भारत में नहीं मिलने देना चाहता था।
इन्होंने तेलंगाना विद्रोह को दबाने एवं हैदराबाद को भारत में मिलने से रोकने के लिए राज्य भर में अत्याचार, आतंक और अराजकता का माहौल बना दिया। इसके नतीजे में हैदराबाद के संबंध नए आजाद भारत से बिगड़ने लगे और निजाम एकीकरण पर टाल-मटोल करने लगे।
शोएबुल्लाह खान ने अपने अखबार में रजाकारों व इत्तेहादुल मुस्लिमीन के शासन में बढ़ते दखल और आपराधिक कृत्यों पर जम कर लिखा। 29 जनवरी 1948 को “दिन में हुकूमत और रात में हुकूमत” शीर्षक से छपे संपादकीय में शोएब ने लिखा:
आज गाँव-गाँव में सरकार द्वारा दमन किया जा रहा है। जो वाकये हुए हैं, वह सब जनता के सामने हैं। सबको पता है किस प्रकार अराजकता का बोलबाला है। इत्तेहादुल मुस्लिमीन के कार्यकर्ता गांधी टोपी पहन के गांवों में लूटमार करने जाते हैं और दूसरी तरफ “गांधी जी की जय” का नारा लगाने का ढोंग करते हैं। उधर प्रशासन में बैठे जिम्मेदार लोग इन्हें महज चोरी की घटनाओं का नाम देते हैं। हमारी नजर में यह अराजकता का एक दुश्चक्र है। एक नागरिक के द्वारा कही गई बात कि “दिन मे कोई एक हुकूमत राज करती है और रात में कोई और” सच्चाई से बहुत दूर नहीं है। सरकार इत्तेहादुल मुस्लिमीन की गतिविधियों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगती है। क्या यह सरकार हर समुदाय की नहीं है?
निश्चित तौर पर यह शब्द तीर की तरह सत्ता की आँखों में चुभे। आजादी के बाद हैदराबाद के प्रथम मुख्यमंत्री बरगुला रामकृष्ण राव ने शोएब को सावधान रहने की सलाह दी। जवाब में उस निडर देशभक्त ने कहा- “क्या गांधी जी नहीं कहते कि कोई सत्य की राह में चलते हुए मर भी जाए तो यह गर्व की बात है? ऐसे में मैं क्यों डरूँ!”
बाबू हम जा रहे हैं ..
शोएबुल्लाह खान के जमींदारों के खिलाफ किसानों के विद्रोह का पक्ष लेने, भारत में मिलने की वकालत करने एवं धार्मिक सौहार्द और भाईचारे का संदेश देने के कारण रजाकारों ने उन्हें खत्म करने की तैयारी कर ली।
हत्या से दो दिन पूर्व 19 अगस्त 1948 को कासिम रजवी ने एक सिनेमा हाल में हो रही सभा में कहा- “मुसलमानों की एकता तोड़ने वाले लोग जिंदा नहीं रह सकते। जो लोग हैदराबाद में भारत के एजेंट और कठपुतलियों की तरह काम कर रहे हैं, उनके उठे हाथ काट देने होंगे।“
उस बर्बर हत्या के बाद निजाम ने जनाज़े में लोगों को इकट्ठा होने की भी अनुमति नहीं दी। हत्या की जांच के नाम पर लीपापोती करते हुए यह कह दिया गया कि यह हत्या राजनैतिक नहीं बल्कि आपसी रंजिश का परिणाम थी। दम तोड़ते समय शोएब ने नर्सिंह राव से कहा- “बाबू हम जा रहे हैं”। पीछे वे बूढ़े माँ-बाप, पत्नी व ढाई-तीन साल की बच्ची छोड़ गए थे। उनकी मौत के बाद आर्थिक दिक्कतों से जूझता परिवार उत्तर प्रदेश चला गया और कई साल बाद जाकर आंध्र प्रदेश सरकार ने उनकी बेवा को पेंशन मुहैया कराई।
हैदराबाद का भारत में विलय बहुत खूनखराबे व त्रासदी के बीच हुआ जिसके नतीजे में सभी धर्मों के मासूम लोगों पर अत्याचार की इबारत लिखी गई। आज जब, सांप्रदायिकता अलग-अलग रूप से फिर सर उठाया रही है और धर्म के झगड़े बढ़ रहे हैं, ऐसे में शोएबुल्लाह खान जैसे लोगों को याद रखना बहुत जरूरी है, जो अन्याय के खिलाफ निडर रहने, आपसी भाईचारे जैसे मूल्यों की बात करते हैं।
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।