शाहनवाज़ खान: आजाद हिन्द फौज के नायक और नेताजी के साथी
1945 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की असामयिक मृत्यु के बाद अंग्रेज सरकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर बंदी बना लिए गए आजाद हिन्द फौज के अफसरों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाना शुरू किया। नवंबर 1945 से लाल किले में शुरू हुए इन मुकदमों में ब्रिटिश सरकार ने कोर्ट मार्शल के जरिए इन स्वतंत्रता सेनानियों को देश की आजादी के लिए लड़ने का सबक सिखाने की तैयारी कर ली थी।
राजद्रोह व युद्ध अपराध से लेकर ब्रिटिश फौज का अनुशासन तोड़ने का आरोप साबित होने पर् फांसी या अंडमान में कठोर कारावास तय था। लेकिन देशभर में इन मुकदमों का भीषण विरोध शुरू हो गया। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने जहां नेताजी के इन सिपाहियों का बचाव करने के लिए ‘INA डिफेन्स कमिटी’ के तहत देश के चुनिंदा वकीलों का समूह बनाया वहीं आम तौर पर सांप्रदायिक चश्मे से हर विषय को देखने वाली जिन्ना की मुस्लिम लीग भी इन अफसरों के बचाव में उतार आई।
1946 आते-आते प्रदर्शन उग्र हो उठे चूंकि दशकों तक अंग्रेजों की मनमानी के आगे भारतीय जनमानस के सब्र का बांध टूटने लगा था। उन दिनों एक ही नारा हर सच्चे देसभक्त की ज़बान पर चढ़ा रहता था:
लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज़!
ये नाम सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के तीन प्रमुख अधिकारियों के थे- मेजर जनरल प्रेम कुमार सहगल, मेजर जनरल गुरबक्ष सिंह ढिल्लों एवं मेजर जनरल शाहनवाज़ खान। इन्हीं में से एक स्वतंत्रता सेनानी शाहनवाज़ खान खान ने न सिर्फ नेताजी के साथ आजादी की जंग में अपने शौर्य का परिचय दिया बल्कि आने वाले समय में मुस्लिम लीग की देश को तोड़ने की नीति के मुखालिफ रहे। पाकिस्तान बनने पर वहाँ जाने की जगह धर्मनिरपेक्ष भारत में रहकर जीवन पर्यंत गांधी के सिद्धांतों पर चलते हुए जनता की सेवा की।
शुरुआती वर्ष और फौजी जीवन
शाहनवाज़ खान का जन्म 1914 में पंजाब के रावलपिंडी जिले में हुआ था। शाहनवाज़ जंजवा राजपूत बिरादरी से आते थे और उनके संयुक्त परिवार के कई लोग ब्रिटिश भारतीय सेना में पीढ़ियों से रहे थे। उनके पिता टिक्का खान फौज में लेफ्टिनेंट थे और प्रथम विश्वयुद्ध में अपनी सेवाएँ दे चुके थे। 1923 में पिता की मौत के बाद शाहनवाज़ की परवरिश उनके दादा के भाई के. एस. रिसालदार नूर खान के द्वारा की गई।
नूर खान भी एक सम्मानित फौजी थे और शाहनवाज़ अपने परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए देहरादून चले गए। वहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा रॉयल इंडियन मिलिटरी कॉलेज में हुई और तत्पश्चात 1932 में उन्होंने प्रतिष्ठित इंडियन मिलिटरी अकादमी का इम्तेहान पास कर लिया। उन्हें अपने संस्थान में सबसे अच्छा कडेट होने के लिए जोधपुर के पूर्व राजा और ब्रिटिश इंडियन आर्मी के एक और अफसर सर प्रताप सिंह के नाम पर स्मृति पुरस्कार भी दिया गया। फरवरी
1936 में उन्हें फौज में कमिशन दिया गया और उनकी पहली पोस्टिंग झांसी में हुई। इसके बाद वह पंजाब के अलग-अलग हिस्सों, जैसे झेलम और फिरोजपुर के अलावा वजीरिस्तान में भी तैनात रहे। उस दौर के बारे में शहनवाज़ ने बाद में लिखा था:
संक्षिप्त में कहा जाए तो मेरी परवरिश पूरी तरह से फौजी माहौल में हुई थी और जुलाई 1943 में सिंगापूर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस से मिलने तक मैं राजनतिक रूप से अशिक्षित था। मुझे भारत को एक ब्रिटिश अफसर की नजर से देखना सिखाया गया था और मैं सिर्फ फौजी गतिविधियों और खेलों में रुचि लेता था।[i]
द्वितीय विश्वयुद्ध और अंग्रेजों का छल
इस बीच एक और विश्वयुद्ध के बादल धीरे-धीरे गहने होने लगे। जर्मनी में हिटलर और नाजी पार्टी ने जर्मनी के यहूदी व अन्य अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के बाद घृणित नस्लवाद के सिद्धांत के तहत पूरे यूरोप पर कब्जा करने की तैयारी कर ली थी। 1936 और 37 में चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा करने के बाद 1 सितंबर 1939 को पोलैंड पर जर्मनी ने हमला कर दिया और विश्वयुद्ध की शुरुआत हो गई।
इधर जापान ने भी इसी नस्लीय और साम्राज्यवादी सिद्धांत के आधार पर वर्षों से चीन और कोरिया के लोगों पर ज़ुल्म किया था। अब जर्मनी के साथ संधि कर जापान ने पूरे एशिया पर अधिकार करना शुरू किया। ब्रिटेन ने बिना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे बड़ी पार्टी काँग्रेस या भारतीय लोगों से सलाह-मशवरा किए देश को युद्ध की आग में झोंक दिया।
ब्रिटेन लोकतंत्र बनाम फासीवाद के युद्ध की दुहाई तो देता था लेकिन भारत के लोगों को आजादी देने को तैयार नहीं था। ऐसे में जहां काँग्रेस की आधिकारिक नीति कभी फासीवाद की समर्थक नहीं रही, लेकिन अंग्रेजों के दोगलेपन पर प्रथम विश्वयुद्ध के धोखे के बाद भरोसा नहीं किया जा सकता था।
इसीलिए, जहां 1942 आते-आते गांधी ने “भारत छोड़ो” और “न देंगे एक पाई, न देंगे एक भाई” की घोषणा की, नेताजी सुभाषचंद्र बोस कलकत्ता से भाग कर देश के बाहर जाने में सफल रहे जहां उन्होंने देश को आजाद करवाने के लिए समर्थन जुटाना शुरू किया।
इस बीच शाहनवाज़ खान को फिरोजपुर छोड़कर ब्रिटेन के एक और उपनिवेश मलाया (अब मलेशिया) जाने के निर्देश मिले। जनवरी 1942 तक शाहनवाज़ मलाया पहुंचे। युद्ध के इस दौर में जापान ने दक्षिण पूर्वी एशिया के यूरोपीय उपनिवेशों पर एक-एक कर कब्जा कर लिया था और मलाया में भी अंग्रेज बुरी तरह हारे।
इसके बाद शाहनवाज़ की बटालियन को सिंगापूर जाने के निर्देश मिले और 15 फरवरी को उनके अंग्रेज कमांडिंग अफसर द्वारा उन्हें जापानियों के सामने आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया। शाहनवाज़ इस आत्मसमर्पण के बिल्कुल पक्ष में नहीं थे पर उनके भयभीत अंग्रेज अफसर ने हार मान ली।
इसके बाद की घटना अंग्रेजों द्वारा लोकतंत्र की रक्षा के झूठे तर्क की पोल खुलने का एक और उदाहरण है। ब्रिटिश भारतीय सेना में वैसे भी किसी भारतीय को बटालियन का नेतृत्व करने या शीर्ष अफसर पदों पर पहुँचने का अवसर नहीं दिया जाता था। जहां सिपाही से लेकर जूनियर अफसर भारतीय थे, उच्च पदों पर अंग्रेजों को ही प्रमोशन दिया जाता था।
इस नस्लभेद के बावजूद अंग्रेज यह उम्मीद रखते थे कि भारत के सभी लोग उनका बिना किसी शर्त युद्ध में साथ दें। सिंगापूर में आत्मसमर्पण के दौरान अंग्रेजों ने सभी भारतीय सिपाहियों और अफसरों को एक तरफ एकत्र किया व खुद अलग जाकर सरेन्डर किया। शाहनवाज़ लिखते हैं:
हम सभी, खासकर भारतीय अफसर इस निर्देश से हैरान हुए, क्योंकि युद्ध के नियमों के अनुसार सभी पकड़े गए ब्रिटिश या भारतीय अफसर, चाहे वे ब्रिटिश हों या भारतीय, सिपाहियों से अलग रखे जाने थे। [ii]
अंग्रेजों के इस नस्लीय व्यवहार ने शाहनवाज़ को यह समझने में मदद की कि वे सिर्फ भारतीयों का फायदा उठाना जानते हैं। लेकिन वे जापानियों के मंसूबों को लेकर मुतमइन नहीं थे। जून 1942 में भारत को आजाद करने के लिए “इंडियन नैशनल आर्मी” अर्थात आजाद हिन्द फौज की स्थापना हो चुकी थी। शाहनवाज़ ने मुकदमे के दौरान अपने बचाव में यह कहा है कि वे शुरू में INA में शामिल होना नहीं चाहते थे चूंकि जापानी जनरल फूजीवारा के उद्देश्य पर उन्हें संशय था।
जापान यह कहता था कि वह सभी एशियाई देशों को यूरोपियन उपनिवेशवाद से आजाद करना चाहता है लेकिन खुद चीन और कोरिया के लोगों के साथ क्रूर व्यवहार कर रहा था। कालांतर में शाहनवाज़ आजाद हिन्द फौज से जुड़े। सितंबर 1942 में उन्होंने INA कडेट्स को दिए एक भाषण में कहा
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसके लिए हमें अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। साथ ही यदि जापानी भारत पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश करें तो हमें उनसे लड़ने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। [iii]
नेताजी का आगमन और आजाद हिन्द फौज
नेताजी सुभाषचंद्र बोस कलकत्ता से भागकर अफगानिस्तान के रास्ते पहले रूसे गए और वहाँ से जर्मनी। लेकिन यूरोप के भारत से दूर होने और हिटलर के बहुत दिलचस्पी न दिखाने पर उन्होंने जापान जाने का फैसला कर लिया। नाजी जर्मनी और जापान से सहायता मांगने के सुभाष के कदम पर असहमतियां रही हैं। लेकिन INA को दिए अपने भाषणों में नेताजी ने बार-बार जापान से सावधान रहने को कहा, और कमसेकम भारत में नेताजी का उद्देश्य सभी धर्मों को साथ लेकर चलना था जो हिटलर के नस्लीय सिद्धांत के एकदम विपरीत था।
इसके साथ-साथ बंगाल में ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने उसी दौरान सभी अनाज की सप्लाइ अंग्रेज सिपाहियों के लिए भिजवा कर एक कृत्रिम अकाल खड़ा कर दिया था जिससे लगभग तीस लाख लोगों की जान गई। अतः यह समझना मुश्किल था कि किस तरह से हिटलर का विरोध करने वाले अंग्रेज उससे अलग थे।
जून 1943 में नेताजी के सिंगापूर पहुँचने तक आजाद हिन्द फौज किसी भी तरह से एक सशक्त सैन्य शक्ति नहीं थी। आजाद हिन्द फौज में मुख्यतः लड़ाई में ब्रिटिश भारतीय सेना की हार के बाद बंदी बना लिए गए सैनिकों की भर्ती की कोशिश की गई। लेकिन नेताजी जैसा करिश्माई और दृढ़ नेतृत्व न होने व जापानी सैन्य नेतृत्व से असहमति के चलते फौज कोई बड़ा कदम नहीं उठाया पाई थी।
उनके आने के बाद स्थितियाँ बदलीं और शाहनवाज़ खान पूरे मन से नेताजी के साथ जुड़ गए। स्वतंत्र भारत के लिए एक आजाद हिन्द सरकार का गठन किया गया और शाहनवाज़ को उसमें मंत्री पद दिया गया। साथ ही उन्हें मेजर जनरल की रैंक भी दी गई। इसके बाद आजाद हिन्द फौज की कई टुकड़ियाँ लड़ने के लिए जापानियों के साथ मणिपुर भेज दी गईं जो बर्मा (आज का म्यांमार) और भारत का सीमा क्षेत्र था।
शाहनवाज़ का सामना मणिपुर में अपने खुद के परिवार के लोगों से हुआ जो अंग्रेजों के साथ लड़ रहे थे और उनका एक भाई इसमें घायल भी हुआ। अपनी लगातार विजय से अति-उत्साहित जापानी सेना ने इम्फाल और कोहिमा की लड़ाइयों में भारी चूक की और लड़ाई का रुख बदलने लगा।
1944 आते-आते अंग्रेज एक तरफ तो अमेरिका दूसरे छोर से जापान को घेरता जा रहा था। आजाद हिन्द फौज बहुत बहादुरी से लड़ी लेकिन इतने बड़े विश्वयुद्ध में वह जापान जैसी बड़ी शक्तियों के सहियोग पर निर्भर थी। इसीलिए उन्हें पीछे हटते हुए बर्मा जाना पड़ा। मार्च 1945 तक आते-आते बर्मा में भी लड़ाई हारी जा चुकी थी।
ऐसे में शाहनवाज़, सहगल और ढिल्लों ने लगभग एक महीने तक अंग्रेजों को रोके रखा। 7 मार्च को शाहनवाज़ और नेताजी की अंतिम मुलाकात हुई जिसमें नेताजी ने शाहनवाज़ के नेतृत्व वाली टुकड़ी नंबर एक के कार्य पर संतुष्टि जाहिर की। अंततः बर्मा के मंडले प्रांत में स्थित पोपया नामक ज्वालामुखी पहाड़ पर लड़ाई में शाहनवाज़ को गिरफ्तार कर लिया गया। शाहनवाज़ ने अंत तक अपनी मर्जी से आत्मसमर्पण नहीं किया।
लाल किले का मुकदमा
जब अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज के सेनानियों पर मुकदमे चलाने शुरू किए तो सबसे पहले शाहनवाज़, सहगल और ढिल्लों का केस लाल किले में शुरू हुआ। चूंकि मुकदमा सार्वजनिक रूप से चल रहा था तो उसकी चर्चा भी खूब हुई और देश भर में प्रदर्शन हुए। काँग्रेस की बनाई डिफेन्स कमिटी में तेज बहादुर सप्रू, आसिफ अली, कैलाशनाथ काटजू और होरीलाल वर्मा जैसे जाने-माने वकील शामिल थे।
उसी मुकदमे के दौरान प्रेम सहगल, गुरबक्ष ढिल्लों एवं शाहनवाज़ खान ने अपना पक्ष रखा। इसमें उन्होंने मजबूती से स्वतंत्रता के लिए लड़ने के अपने अधिकार को स्पष्ट किया। शाहनवाज़ ने अदालत को दिए बयान में कहा:
मुझे एक नेता मिला और मैंने तय किया मैं उसका अनुसरण करूंगा। यह मेरे जीवन का सबसे मुश्किल फैसला था क्योंकि मेरे कई रिश्तेदार ब्रिटिश भारतीय फौज में थे जिन्हें मैं अपनी तरफ आने को नहीं मना सकता था लेकिन उनके खिलाफ मुझे युद्ध लड़ना था।
जब मैंने अंग्रेजों द्वारा बेरहमी से शोषित किए जा रहे करोड़ों भारतीय लोगों के बारे में सोचा तो मेरे भीतर इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए नफरत भर उठी। इसलिए मैंने मेरे घर, परिवार और परंपराओं को त्यागने का फैसला लिया। मैंने तय किया कि इस लड़ाई में अगर मेरा भाई मेरे सामने होगा तो उससे भी लड़ूँगा और 1944 में मणिपुर में हम दोनों का सामना हुआ जिसमें वह घायल भी हुआ। [iv]
एक अन्य जगह शाहनवाज़ ने लिखा:
मुझे यह करने में इस एहसास ने सहायता की कि अंग्रेज भारत का लगातार खून चूस रहे हैं। उन खून की धाराओं में से एक दो बूंद हमारे कबीले को देकर वे इस घिनौने कार्य में हमारी सहायता चाहते हैं। मैंने खून से सींची हुई हमारे कबीले की इस समृद्धि को अनैतिक माना। [v]
गांधी की राह पर चलने का संकल्प
सभी जानते हैं कि जनता के भारी दबाव और विश्वयुद्ध के बाद जर्जर हो चुके सैन्य तंत्र के चलते अंग्रेजों को अंततः मुकदमे रोकने पड़े और आजाद हिन्द फौज के सभी सिपाहियों को माफी देनी पड़ी। तीनों अफसरों- शाहनवाज़, सहगल और ढिल्लों को जरूर् सेना से बर्खास्त किया गया लेकिन अब वैसे भी इनमें से कोई अंग्रेजों की नौकरी नहीं करना चाहता था।
इसके बाद शाहनवाज़ खान काँग्रेस में शामिल हो गए और जीवन भर महात्मा गांधी के दिखाए अहिंसा के रास्ते पर चलने का प्रण लिया। खुद गांधी ने नेताजी की आजाद हिन्द फौज का जिक्र करते हुए लिखा:
मैं कप्तान शाहनवाज़ की उस घोषणा का स्वागत करता हूँ जिसमें उन्होंने यह प्रण किया है कि नेताजी के आदर्शों पर चलने हेतु वे भारत की भूमि पर कदम रखते ही काँग्रेस के भीतर अहिंसा के सच्चे सिपाही बनने जा रहे हैं। [vi]
शाहनवाज़ खान ने बंटवारे के दंगों के दौरान खान अब्दुल गफ्फार खान व महात्मा गांधी के साथ मिलकर दंगों से पीड़ित हर समुदाय के लोगों की सहायता की- चाहे वे नोआखाली के हिन्दू हों या बिहार के मुसलमान। उन्होंने पाकिस्तान बनने पर वहाँ जाने से इनकार कर दिया जबकि उनके निकट परिवार के लोग वहाँ चले गए थे।
आजादी के बाद संसदीय जीवन
1951 के पहले आम चुनाव में वे मेरठ लोक सभा क्षेत्र से संसद निर्वाचित हुए और 1957, 1962 व 1971 भी जीते। वे इस बीच सरकार का यहां हिस्सा रहे। 1965 में जब भारत पाकिस्तान के बीच जंग हुई तो शाहनवाज़ लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में मंत्री थे। शाहनवाज़ का खुद का बेटा महमूद पाकिस्तानी सेना की ओर से भारत के खिलाफ लड़ रहा था और उन्हें इस कारण मंत्री पद से हटाने की मांग की गई।
शास्त्री ने यह कहते हुए साफ मना कर दिया कि शाहनवाज़ ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की ओर वे देश से कभी गद्दारी नहीं कर सकते। शाहनवाज़ ने महात्मा गांधी व सुभाष बाबू के आदर्शों पर चलते हुए देश के लिए अपने परिवार को भी ठुकरा दिया।
1945 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस हवाई दुर्घटना में मृत्यु को लेकर कई सवाल थे और 1955-56 में सरकार ने शाहनवाज़ खान के नेतृत्व में एक समिति बनाई जिसका काम नेताजी की मृत्यु से जुड़े सवालों की जांच करना था। इस समिति में एक प्रशासनिक अधिकारी व सुभाष के भाई सुरेशचंद्र बोस भी शामिल रहे थे।
9 दिसम्बर 1980 को शानवाज़ की मौत हुई। उस समय वे काँग्रेस सेवा दल के अध्यक्ष थे।
शाहनवाज़ का किरदार कई बकार नेताजी पर बनी फिल्मों में दर्शाया जा चुका है। उनके ऊपर 1987 में भारत सरकार के फिल्म डिविजन ऑफ इंडिया द्वारा एक वृत्तचित्र (डाक्यूमेंट्री) भी फिल्माई जा चुकी है। प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान शाहनवाज़ खान के ही परिवार से हैं।
संदर्भ-स्त्रोत
[i] -(1946 में लाहौर से प्रकाशित शाहनवाज़, सहगल व गुरबक्ष सिंह की आत्मकथा, पृष्ठ 14)
[ii] -(आत्मकथा, पृष्ठ 15)
[iii] -(आत्मकथा, पृष्ठ 33)
[iv] -(आत्मकथा, पृष्ठ 78)
[v] -(पृष्ठ 44)
[vi] -(हरिजन पत्रिका में 24 फरवरी 1946 को छपा लेख जो अहमदाबाद से छपी पुस्तक Non Violence in Peace and War में प्रकाशित हुआ; पृष्ठ 31)
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।