प्रकृति के पुजारी- गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर
रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने ही नहीं, आज के समय में भी एक विशाल, अनंत सागर की तरह, एक आश्चर्यजनक और अतुलनीय व्यक्तित्व है, जिसका प्रतिबिम्ब उनके कृतित्व में भी पूरी तरह से नहीं समा पाता है।
उनकी रचनाओं के विषय में लिखना या बात करना शुरू करें तो वह कभी खत्म ही नहीं होगी! 2000 के ऊपर तो बस गाने ही लिखे हैं उन्होंने, जो कि बांग्ला गानों के भंडार में चार चाँद लगा देते हैं। उनके गाने पूजा, स्वदेश, प्रेम, प्रकृति, विचित्र और अनुष्ठानिक-ये सारे भाग में विभाजित है। गुरुदेव अपने मन की एक भावनाओं को अनन्य शब्दों में लिखकर बयाँ करने का आश्चर्य क्षमता रखते थे, लेकिन वह अपनी खुद की किसी भी लेखन से एक ही बार में संतुष्ट नहीं होते थे।
अब लाल कनेर को ही लेते है (रक्तोकरोबी-बांग्ला) एक कालातीत और प्रख्यात नाटक; जिसकी कहानी और नामकरण उन्होंने तकरीबन चार बार बदला। वह बचपन से ही अपने समाज संसार के नियमों से परे थे। स्कूल, कॉलेज जैसे ‘शिक्षा के पिंजरे’ में कैद हो के नहीं, शिक्षा में जो मुक्ति है वह चारदीवारी के अंदर बाँध के नहीं रखा जा सकता-ये ज्ञान उनको बहुत छोटी उम्र में ही हो चुकी थी।
शिक्षा के प्राणिक शक्ति को ऐसे मारा नहीं जा सकता, बाँधा नहीं जा सकता। इसीलिए उन्होंने जब विश्व भारती विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा की तब वहाँ प्राचीन काल के मुनि ऋषियों की वैदिक गुरुकुल की तरह खुले आसमान के नीचे खुली हवा में, पेड़ के नीचे कक्षाएँ शुरू कीं, जो परम्परा आज भी वैसी ही है।
असल में गुरुदेव प्रकृति के पुजारी थे, उनके हर एक रचना का आधार प्रकृति है। जब भी अवसर मिलता वह अकेला रहना पसंद करते थे प्रकृति के साथ। विश्व-प्रकृति में विलीन होकर खुद को खोकर खुद के स्वरूप को खोजते रहते थे। खुद को बार-बार तोड़ मरोड़ के, बास्ताबिकता के अग्नि में तप कर उभर कर आया जो कुछ था वह ही है गुरुदेव रवीन्द्रनाथ…
मृत्यु के शोक पर विजय पा चुके गुरुदेव
उनके अपने जीवन में उन्होंने मृत्यु को कई बार देखा उन्होंने अपने दिल के करीबी लोगों को बार-बार खोया हैं उन्होंने, लेकिन उस शोक से भी। वह पत्थर नहीं बने बल्कि उससे उबरकर सारी वेदनाओं को उन्होंने अपने रचना में नई कृत्ति को जन्म दिया। जो सारी रचना ने जन्म ली वह उनकी अपनी थी।
उनकी अपनी संतान मीरा के मृत्यु के दिन भी, शाम को बंगाल के विभाजन के विरुद्ध होने वाले सभा में उपस्थित रहना, गुरुदेव ने सही समझा। क्या कहेंगे इन है हम? कठोर? निर्दयी? नहीं… महानता, निश्चलता, निर्मोह और आत्मसंयम। उनकी जिंदगी में आने वाले हर एक इंसान, हर एक रिश्ता, हर एक पल, हर एक घटना उनकी रचनाओ के आधार थे।
स्वयं को कठोर अनुशासन से कभी छूट देके नहीं रखा,
स्कूल नामक प्रतिष्ठान से दूर भागने वाले रवीन्द्रनाथ बचपन से ही जानते थे अपना स्वरूप। खुद को खुद से बढ़कर बनाने की कोशिश, रवीन्द्रनाथ बनने की अदम्य इच्छाशक्ति से वह खुद को हर पल मॉनिटर किया करते थे।
एक चाबुक के लिए हर पल खुद पर पहरा बिठा कर रखते थे। रवीन्द्रनाथ बन जाने की राह में, खुद को एक दिन भी छुट्टी नहीं दी। इतने कठोर थे अपने ऊपर, इतने अविचल थे वो। जीवन में प्रेम कई बार आये मगर उनके कर्तव्य से उनको टस से मस नहीं कर पाए।
एक खास बात उनके गाने में प्रेम और पूजा घूल मिलकर एक हो जाती है। 18 वीं सदी में इतनी आधुनिक सोच जो आजकल के आधुनिक प्रेमियों के होशो आवाज उठा दें! आज चारो तरफ आर्ट और साहित्य के नाम पर जो जटिल कुटिल नंगेपन की नुमाइश चल रही है उस धुंधले समय में रवीन्द्रनाथ, शुद्ध, निर्मल, निर्जोर, शुद्धता के प्रतिमूर्ति हैं, जो समय के धूल में कभी मैला नहीं हूँ, बल्कि काल की आग में तपकर खड़ा सोना बन के निकले।
सूर्य का प्रकाश बनके, सब को मानवीय और प्रकॄतिक समतुल्य ज्ञान बांटे। ये है रवीन्द्रनाथ। हमारे गुरुदेव। रवीन्द्रनाथ टैगोर।
Artist at Sabuj Sanskritic Kendra Kayadanga, Director at Tollywood and SABUJ Theatre & Culture.Founder directr and Secretary at S.T.C. KOLKATA