आदिवासी औरतों के संघर्षों का इतिहास
आदिवासी परंपराओं में एक फूलो-झानो मात्र नहीं हैं, उनके जैसी कई पुरखिन औरतें और वर्तमान समय में भी उनका निर्वाह करने वाली औरतें हैं। संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा है।
भारतीय इतिहास आदिवासियों के विद्रोहों से भरा हुआ है। उन्होंने प्रकृति को अपना पुरखा माना और कभी भी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की। 1857 के ग़दर से पहले आदिवासी अंग्रेजी राज के जंगल में घुसपैठ और महाजनों-सामंतों के खिलाफ लड़ते रहे हैं। इनमें ‘हूल’ और ‘उलगुलान’ , ‘भूमकाल’ जैसे विद्रोह तो इतिहास में रेखांकित भी किये गए, लेकिन ऐसे सैकड़ों विद्रोह देश भर में हुए, जिनका जिक्र तक नहीं है।
इन सभी विद्रोहों में महिला और पुरुषों दोनों ने बराबर की भागीदारी की है। यहाँ एक फूलो-झानो मात्र नहीं हैं, उनके जैसी कई पुरखिन औरतें और वर्तमान समय में भी उनका निर्वाह करने वाली औरतें हैं। संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा है।
बेहद खूबसूरत अंदाज में सजने वाले डोंगरिया कोंध आदिवासी महिलाओं का तो आभूषण ही एक छोटा-सा धारदार हंसिया है, जिसमें झूमर लगाकर वे अपने बालों में फंसाए रखती हैं और वक्त आने पर उसका सटीक इस्तेमाल भी करती हैं। जंगली जानवरों से जान बचाने के लिए भी, जंगलों में घुसपैठ करने वालों पर भी।
चुआड़ विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों का पहला विद्रोह माना जाता है, जो कि 1767 से 1772 और फिर 1795 से 1816 के बीच चला। इसका विस्तार बंगाल प्रेसीडेंसी के मेदिनीपुर, बांकुड़ा और बिहार तक था। इस विद्रोह में शामिल आदिवासियों, जिसमें भूमिज जनजाति के लोग ज्यादा थे, को ब्रिटिशों द्वारा उत्पाती या लुटेरा के सम्बंध में चुहाड़ कहकर बुलाया और अपमानित किया गया।
यह विद्रोह बढ़ते भू-राजस्व और जल-जंगल-जमीन पर अंग्रेजों के स्थापित होते आधिपत्य के खिलाफ था। आदिवासियों के निवास स्थान में घुसपैठ करते हुए अंग्रेजों ने उनसे कर वसूलना चाहा। इसके लिए उन्होंने आदिवासियों का उत्पीड़न शुरू कर दिया।
सन् 1760 तक पूरे मेदिनीपुर जिले में अंग्रेजों का कब्जा हो गया। इसके खिलाफ आदिवासियों ने पारंपरिक हथियारों से लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने पूरे क्षेत्र को उजाड़ दिया, ताकि उसका लाभ अंग्रेजों को न मिले।
सिनगी दई, चंपू दई और कइली दई
आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने इनके इलाके में सैन्य छावनी बना ली और क्रूर दमन शुरू कर दिया। उन्होने आदिवासी पुरुषों को अपना निशाना बनाया। इसलिए आदिवासी पुरुषों को जंगल और पहाड़ियों में छिपना पड़ा।
आदिवासी औरतें रात के अंधेरे में अंग्रेजी सेना को चकमा देकर पुरुषों को खाना और सान चढ़ाए हथियार पहुँचा आती थीं। साथ ही महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी। लेकिन इस आवाजाही में कई आदिवासी औरतें पकड़ी भी गईं और क्रूर यातना का शिकार भी हुईं, लेकिन उन्होंने पहाड़ों में छिपे छापामार लड़ाकों के खिलाफ मुंह नहीं खोला।
सिनगी दई, चंपू दई और कइली दई रोहतासगढ़ की राजकुमारी थीं। कइली दई सेनापति की बेटी थी। तीनों उरांव जनजाति की थीं।
14वीं शताब्दी में अफगान तुर्कों के विरुद्ध तीनों ने अपने समुदाय की महिलाओं को एकजुट किया, सिर पर पगड़ी बाँधकर पुरुषों का भेष धर हाथ में तलवार लेकर घोड़े पर सवार होकर एक ही रात में तीन बार उनकी सेना को सोन नदी के पार खदेड़ आईं थीं। तीन बार हराने की याद में उरांव औरतें ‘जनी शिकार’ नामक उत्सव मनाती हैं।
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रूनिया-झुनिया का कोल विद्रोह में संघर्ष
सन् 1827-32 के बीच में छोटानागपुर में अंग्रेजों के खिलाफ कोल विद्रोह हुआ। यह सिंहभूम, पलामू, हजारीबाग, मानभूम आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैला था। इस विद्रोह के नाम से यह अर्थ नहीं है कि केवल कोल समुदाय ही इस विद्रोह में शामिल था। इन क्षेत्रों के मुंडा, उरांव, हो तथा महली समुदाय भी इस विद्रोह के हिस्सा थे। इसके सबसे प्रसिद्ध अगुआ बुधु भगत थे।
उनकी दो बेटियाँ रूनिया-झुनिया भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ीं। बुधु ने गांव-गांव घूमकर लोगों को संगठित करना शुरू किया। जहां-जहाँ भी वे जाते, उनकी दोनों बेटियाँ भी उनके साथ जातीं। उन्होंने अपने को युद्धविद्या में पारंगत किया।
यह विद्रोह अंग्रजों के खिलाफ भूमि सम्बंधी असंतोष एवं परंपरागत व्यवस्था से छेड़छाड़ के कारण हुआ। यह विद्रोह अंग्रेजों के साथ-साथ दिकुओं यानी बाहरियों या गैर-आदिवासियों के खिलाफ भी था। ये बाहरी अंग्रेजों के दलाल बनकर इनके गांवों में वसूली के लिए आते थे और लोगों पर अत्याचार करने के साथ-साथ आदिवासी औरतों का यौन शोषण भी करते थे। यह आदिवासियों के लिए अपमान का बड़ा कारण बना।
इसी कारण इस विद्रोह में आदिवासी औरतें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी और गिरफ्तारी के बाद जेल भी गईं। इस विद्रोह में रूनिया-झुनिया भी शहीद हुईं। इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप 1833 में छोटानागपुर क्षेत्र को आंशिक स्वायत्तता प्रदान कर आदिवासियों के परंपरागत मानकी-मुंडा शासन व्यवस्था को पुनः बहाल किया गया।
खासी आदिवासियों के विद्रोह में फूलो और झानो
वहीं, सन् 1827-33 के बीच प्रसिद्ध खासी आदिवासियों का विद्रोह हुआ। खासी समुदाय तो वैसे भी अपने समाज में आज भी काफी हद तक मातृप्रधानता को बचाये रखने के लिए जाना जाता है। मातृप्रधान समाज का अध्ययन करने वाले नृवंशशास्त्री खासी समुदाय के गांवों की यात्रा जरूर करते हैं। यह बंगाल के पूरब में जयंतिया पहाड़ियों से पश्चिम में गारो पहाड़ियों के बीच स्थित है।
खासी समाज के मुखिया ने अंग्रेजी सेना के आवागमन के लिए बनाए जा रहे सड़क मार्ग योजना का विरोध किया और उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया, जिसमें स्वाभाविक तौर पर महिलाओं की बड़ी भागीदारी हुई।
अंग्रेजों के खिलाफ 1855 में हुई संथाल ‘हूल क्रांति’ इतिहास में काफी प्रसिद्ध है, जिसके नेता सिदो-कानू थे। झारखंड के हजारीबाग और गिरिडीह के बीच स्थित गाँव भोगनाडीह इसका केंद्र था। सिदो-कानू का परिवार यहीं का रहने वाला था। उनके परिवार के चार भाई सिदो, कानू, चांद, भैरव और दो बहने फूलो व झानू सभी ने हूल का बहादुरी के साथ नेतृत्व किया। यह आंदोलन स्थानीय महाजनों-साहूकारों और उनके लठैतों के खिलाफ शुरू हुआ। लेकिन उन्हें बचाने और समर्थन देने ईस्ट इंडिया कंपनी आ गई, इसलिए यह हूल अंग्रेजी राज के खिलाफ संथाल क्षेत्र में एक बड़े आंदोलन में बदल गया।
सिदो-कानू की बहनें फुलो और झानू ने आंदोलन के लिए महिलाओं को संगठित किया और विद्रोह को एक अनुशासित व्यवस्थित लड़ाई में बदल दिया। उन्होंने महिलाओं की छोटी-छोटी गुप्तचर समितियाँ बनाईं, प्राप्त सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुँचाने की टीमें बनाईं और तरीके ईजाद किये।
अपनी ही अगुआई में व्यवस्थित योजना बनाकर इन्होंने सुबह-सुबह अंग्रेजी कैंप पर हमला कर अंग्रेजी सेना के 21 लोगों को मार गिराया। इनकी बहादुरी के कारण बीरभूम जिला संथालों के कब्जे में आ गया। कई जगहों का शासन फुलो-झानों ने संभाला। अंग्रेजों को इस विद्रोह का दमन करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी। आखिर में फुलो और झानो भी पकड़ी गईं और इन्हें आम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई।
संथाली भाषा में आज भी गीतों में उनकी बहादुरी और फांसी पर लटकाये जाने के किस्से गाए जाते हैं। जो आदिवासी समुदाय अपनी बहादुरी को मौखिक परंपरा में कायम रख इतिहास अपने बच्चों का पढ़ाता है। इससे उनका जुझारूपन हमेशा बना रहता है।
यह विद्रोह आदिवासी इतिहास में ही नहीं, भारतीय क्रांतिकारी इतिहास की एक बड़ी घटना है। इसलिए वह ऐसे नायक-नायिकाओं को याद किये जाने से बचती है। जनता ने ही इन्हें ज़िंदा रखा हुआ है।
बिरसा विद्रोह में माकी, थींगी, नेगी, लिंबू और चंदी
अंग्रेजी राज के ही खिलाफ 1894-1900 के बीच बिरसा मुंडा की अगुआई में हुआ मुंड विद्रोह ‘उलगुलान’ भी इतिहास में प्रसिद्ध है। यह आंदोलन आज भी आदिवासियों ही नहीं, देश के अन्य समुदाय के आंदोलनकारियों को प्रेरणा दे रहा है। प्रसिद्ध साहित्यकार महाश्वेता देवी ने तो इस पर ” जंगल के दावेदार‘ उपन्यास ही लिख दिया है।
सीधे-सीधे अंग्रेजी राज के खिलाफ उसे हिला देने वाले इस आंदोलन के नेतृत्वकारी की भूमिका में केवल बिरसा मुंडा का नाम ही प्रसिद्ध है, लेकिन इस आंदोलन में बिरसा जिसके ऊपर सबसे ज्यादा यकीन करते थे, वह उनके साथ मजबूती से लड़ने वाली योद्धा साली थीं। साली के अलावा माकी, थींगी, नेगी, लिंबू और चंदी इस उलगुलान की मुख्य योद्धा रही हैं। इन्होंने महिलाओं को संगठित किया और अंग्रेजी राज के खिलाफ उलगुलान में पुरुषों के बराबर की साझेदार बनीं। माकी मुंडा गया मुंडा की पत्नी थीं। वह भाला-कुल्हाड़ी चलाने में माहिर थीं।
एक बार जब गया मुंडा अंग्रेजी सिपाहियों से घिर गये थे, तो उन्होंने एक अंग्रेज अफसर पर कुल्हाड़ी से वार किया। लेकिन वे पकड़ लिये गये और उन्हें दो साल की सजा हुई। जब कोई भी आदिवासी आंदोलन अपने चरम पर नहीं था, तब भी आदिवासी महिलाएँ पुरुषों के साथ आंदोलन की तैयारी में शामिल रहीं। ऐसी कुछ महिलाओं का जिक्र भी जरूरी है।
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मुंगारी उरांव का संघर्ष
ऐसी ही एक आदिवासी महिला थीं–मुंगारी उरांव, जो कि इस समुदाय से आसाम की पहली शहीद थीं। वह 1930 का समय था, जब वे एक अंग्रेज अफसर के यहाँ घरेलू नौकर थीं।
वह आदिवासियों द्वारा नियुक्त जासूस थीं, जो वहाँ से प्राप्त सूचनाओं को विद्रोहियों तक पहुँचाया करती थीं। लेकिन एक दिन यह राज खुल गया और अंग्रेज मालिक ने इनकी हत्या कर दी।
भगत सिंह ने कहा था–“गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों के आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।” इसे अच्छे तरीके से मुख्यधारा के लोगों ने नहीं, बल्कि आदिवासियों ने ही समझा। सामंती और नए काले अंग्रेजों के खिलाफ वे लगातार लड़ते रहे और आज भी वे लड़ते जा रहे हैं।
गोदावरी पारू / गोदुताई’ का संघर्ष
सन् 1945-46 के समय का वर्ली विद्रोह एक ऐसा आदिवासी विद्रोह है, जिसमें महिलाओं की भूमिका काफी बड़ी थी। यह स्थान महाराष्ट्र के ठाणे के पास स्थित है।
गोदावरी पारूलेकर इस आंदोलन में महिलाओं की अगुआ थीं। उन्हें लोग प्यार से ‘गोदुताई’ यानी बड़ी बहन कहते थे।
कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हुआ यह विद्रोह मूलतः जमींदारों के खिलाफ था। इस आदिवासी इलाके में जमींदारों का शोषण काफी क्रूर था। मौसम की पहली बरसात होने पर आदिवासियों को अपने खेत पर नहीं, बल्कि पहले जमींदार के खेत पर काम करना पड़ता था। जमींदार जब चाहे तब किसी आदिवासी औरत को अपने घर बुलाकर यौन शोषण करता था।
इसके खिलाफ आदिवासी महिलाओं में तीखा आक्रोश था। कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें संगठित किया। उसके बाद उनके जुझारू संघर्षों ने जमींदार ही नहीं, जमींदारी प्रथा की ही नींव हिला दी थी।
यह आंदोलन आदिवासी महिलाओं की नेतृत्वकारी भूमिका के कारण भी जाना जाता है।
संदर्भ
राकेश कुमार सिंह, जो इतिहास में नहीं है, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
डा. जनक सिंह मीना, डा. कुलदीप सिंह मीना, भारत के आदिवासी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
डा. जियाउद्दीन अहमद, बिहार के आदिवासी, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में