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पठन-पाठन : शेख़ मुजीब-उर-रहमान की अधूरी जीवनी

हालाँकि हर आत्मकथा लेखक के अपने पक्ष से ही लिखी जाती है, लेकिन पूर्वी बंगाल के पहले पूर्वी पाकिस्तान बनने और फिर बांगलादेश बनने की कहानी इसे थोड़ा सावधानी से पढ़ते जान सकते हैं
इतिहासबोध के साथ पढ़ेंगे तो यह भी जानेंगे कि धार्मिक पागलपन कैसे एक आदर्शवादी युवा को प्रभावित करता है। एक जगह मुजीब साहब लिखते हैं कि हमने अपने पड़ोसी बंगाली भाई की बात नहीं सुनी और पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों की बात सिर्फ़ मुसलमान होने के कारण सुनी। ज़ाहिर है उस माहौल में ‘मुसलमानों का अपना देश’ का सिद्धांत पागलपन की हद तक फैल गया था।
पाकिस्तान के लिए किसी हद तक जाने के लिए तैयार मुजीब जब सवाल करते हैं कि भारत में मुसलमान और पाकिस्तान में हिंदू क्यों नहीं चैन से रह सकते हैं तो मन करता है पूछूँ कि गांधी भी तो यही कह रहे थे कि एक हिंदुस्तान में दोनों क़ौमें चैन से रह सकती हैं। विभाजन की ज़रूरत नहीं। तब क्यों नहीं सुना!  आज लेकिन हिंदुस्तान में ही एक पक्ष गांधी को ग़लत और जिन्ना को सही साबित करने में लगा है तो यह सवाल पूछते शर्म भी आती है।
मुजीब जहाँ भी टैगोर को याद करते हैं, उन्हें गुरुदेव कहते हैं।

भाषा का सवाल धर्म से बड़ा बन गया

कभी धर्म के नाम पर पागल हुए पूर्वी पाकिस्तान को आज़ादी के बाद समझ आया कि पश्चिमी पाकिस्तान किस तरह अपनी संस्कृति सबपर लादना चाहता है। आज़ादी के पहले जेलों में रहे शेख एक बार फिर जेल पहुँच गए।

उर्दू थोपे जाने के खिलाफ़ चला आंदोलन बांग्लादेश मुक्ति युद्ध तक पहुँचा।

वैसे यह जीवनी अधूरी ही रह गई है। काश पूरी होती तो बांग्लादेश की राजनीति के अनेक षड्यंत्रों के साथ यह भी समझना आसान होता कि तानाशाही के खिलाफ़ लड़ कर सत्ता में आए लोग खुद कैसे उन्हीं प्रवृत्तियों के शिकार हो जाते हैं। वे हालात भी समझ आते जिनमें उनके अपने विश्वस्त लोगों ने उनके लगभग पूरे खानदान का सफ़ाया कर डाला था।

अनुवाद

अनुवाद बेहतर है और पढ़ने में कोई समस्या नहीं पैदा करता। साथ में अनुवाद के बावजूद कुछ मज़ेदार शब्दप्रयोग हैं बांगला के। जैसे बाधा देना या फिर गोलमाल जो गड़बड़ी करने, मार पिटाई करने वग़ैरह के लिए उपयोग हुआ है। इससे भाषा का सौन्दर्य और बढ़ गया है।

एक बार पढ़ सकते हैं मन हो तो। हालाँकि पेपरबैक नहीं है और हार्डबाउंड 795 की है।

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