गणेशशंकर विद्यार्थी को प्रेमचंद की श्रद्धांजलि
प्रेमचंद और गणेश शंकर विद्यार्थी दोनों समकालीन थे। प्रेमचंद कानपुर के आर्यसमाजी हिन्दी पत्र प्रताप के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आये और उनसे प्रभावित हुए, जिसकी चर्चा उन्होंने शिवरानी देवी से भी की।
कर्मवीर भारत से सदैव के लिए उठ गया
कानपुर हत्याकांड में राष्ट्र को जो सबसे भयंकर क्षति पहुँची है वह गणेशशंकर विद्यार्थी जी की शहादत है। लुटा हुआ धन फिर आ जाएगा, उजड़े हुए घर फिर आबाद हो जाएंगे, माताओं के गोद में फिर बच्चे खेलेंगे, पर वह कर्मवीर (गणेशशंकर विद्यार्थी ) भारत से सदैव के लिए उठ गया।
विद्यार्थी जी के जीवन की सरलता और पवित्रता सात्त्विक थी। हम यह तो नहीं कह सकते कि हमारी उनसे घनिष्ठा थी, पर साल में दो-तीन बार उमें उनके दर्शनों का सौभाग्य अवश्य हो जाता था और उनके दर्शनों से आत्मा पर आशीवार्द का जो असर पड़ता था, वह अकथनीय है।
स्वार्थ-चिन्ता ने कभी उनकी आत्मा को मलिन नहीं किया। उनका समस्त जीवन यज्ञमय था और कदाचित ईश्वर की इच्छा थी कि उनकी मृत्यु उस यज्ञ की पूर्णाहुति हो।
उस विद्रोह के एक या दो दिन पहले लखनऊ कांग्रेस कमेटी के दफ्तर में हमें, उनके दर्शन हुए थे। उनके जेल से लौटने के बाद मैं उनसे मिल न सका था। कितने तपाक से गले मिले। विनोद महान आत्माओं का स्थायी गुण है। उनकी सीधी-सी बात में भी विनोद की कुछ-न-कुछ मात्रा होती है। अपने जेल जीवन की एक घटना हँस-हँस कर सुनाने लगे।
विक्टर ह्यूगो पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। नाइंटी थ्री की अनुवाद वह पहले कर चुके थे। अबकी जेल में ह्यूगो के जगत प्रसिद्ध ग्रन्थ लेमिजरेबुल का उन्होंने अनुवाद किया था। बोले, कोई पन्द्रह सौ पृष्ठ होंगे। आपका प्रेस छापना चाहे तो मैं दे सकता हूँ। यह तो उनका विनोद मात्र था।
कौन जानता था कि यह उनके अन्तिम दर्शन हैं। उस समय तो कराची जाने की बातचीत हो रही थी।
हिन्दू-मुसलमान एकता के अनन्य भक्त थे, विद्यार्थी जी
विद्यार्थी जी को देश में जो सम्मान और यश प्राप्त किया, वह उनकी सेवा का प्रसाद था। वह बहुत बड़े विद्धान न थे, बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ न प्राप्त की थीं, मगर हृदय में सेवा की ऐसी लगन थी, जिसने लेखनी को ओज, उनकी भाषा को स्फूर्ति, उनकी वाणी को प्रभाव और व्यक्तित्व को गौरव प्रदान कर दिया था। उनकी आत्मा निष्कपट और निर्भीक थी।
राजनीतिक समस्याओं पर वह जितने साहस से अपनी सम्मति प्रकट करते थे, उसने हमारे सम्पादकीय जीवन में अमर स्मृतियाँ छोड़ी हैं। अत्याचार के विरुद्ध उनकी तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। प्रताप ने अपने बीस वर्ष के जीवन में जितनी बाधाओं पर सफलता के साथ विजय पाई, वह विद्यार्थी जी के सदसाहस, न्याय-निष्ठा और कर्तव्य-प्रेम का उज्ज्वल प्रमाण है।
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हिन्दू-मुसलमान एकता के वह अनन्य भक्त थे। विद्यार्थी जी उन राष्ट्र-सेवियों में से थे जिन्होंने साम्प्रदायिकता को कभी अपने पास नहीं आने दिया। वह उनके राष्ट्रीय जीवन का मूल सिद्धान्त था।
हम यह अनुमान कर सकते हैं कि कानपुर में जब वह आग भड़की, तो उनकी आत्मा को कितना आघात पहुँचा। शहर में हाहाकार मचा हुआ था। शहर के नेता कर्तव्य-भ्रष्ट से अपने-अपने घरों में बैठे थे।
हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे पर अमानुषिक अत्यचार कर रहे थे, पर यह कर्मवीर अपने प्राणों को हथेली पर लिए पीड़ित परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाता, आहतों की सेवा और अनाथों की सहायता करता फिरता था।
हितचिन्तक गण समझाते थे पर जिसके जीवन का मूल आधार इतनी निर्दयता से पैरों तले रौंदा जा रहा हो, उसे ऐसी चेतावनियों की क्या परवाह हो सकती थी।
धर्म जैसी पवित्र वस्तु भी मलिन आत्माओं में जाकर इतना भयंकर रूप धारण कर लेती है। धर्म, जिसका उद्देश्य मनुष्य को सत्य की ओर ले जाना, उसकी परलोक बुद्धि को शक्ति देना वही मानवी दुर्बलताओं से कलुषित होकर आज हिंसक जन्तु के रूप में प्रकट हो रहा है।
वह धर्मान्धता जो ऐसी पवित्र आत्माओं के रक्त से अपने हाथ रंगती है, उसकी किन शब्दों में निन्दा की जाए। उन्हीं लोगों के हाथों यह अनर्थ हुआ कि जिनकी रक्षा के लिए वह निकले हुए थे। धर्मान्धता तेरी बलिहारी है तू शत्रु और मित्र का भी विवेक नहीं रखती।
आज इस कर्मवीर की मृत्यु ने हमारे राष्ट्रीय जीवन में ऐसा स्थान खाली कर दिया है, जिसकी पूर्ति होना कठिन है।
संदर्भ
(सम्पादकीय। हंस, मार्च 1931 में प्रकाशित। विविध प्रसंग, भाग-3 में संकलित)
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में