प्रेमचंद के पहली फिल्म पर बैन क्यों लगा?
कलम के जादूगर प्रेमचंद के कई कृतियों पर फ़िल्में, नाटक, टीवी-सीरियल और अब तो कई यूटूयूब पर कुछ एपिसोड देखने को मिल जाते है।
मुंशी प्रेमचंद ने जब अपनी रचनाओं के साथ सिनेमा जगत की यात्रा की। तब उनको काफ़ी निराशा हुई और जल्द ही फ़िल्मों से उनका मोहभंग भी हो गया। उनका फ़िल्मों से मोहभंग साहित्य का सिनेमा माध्यम में अभिव्यक्ति का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ कहा जा सकता है। बहरहाल, सिनेमा के तरफ पहला क़दम स्वयं मुंशी प्रेमचंद द्वारा ही उठाया गया था।
आखिर क्यों प्रेमचंद का सिनेमा से मोहभंग हो गया
जब 1933 में अपनी आर्थिक तंगी को दूर करने के विचार से मुंबई (तत्कालीन बम्बई) की ओर रुख किया और वहाँ फ़िल्म बनाने वाली एक कंपनी ‘अजंता सिने टोन‘ में 8000 रुपए सालाना पर बतौर लेखक जुड़ गए।
उनकी पहली फ़िल्म 1934 में “द मिल मजदूर” इसी कंपनी के बैनर तले बनी तथा इसका निर्देशन ‘मोहन भवनानी‘ ने किया। फ़िल्म में मजदूरों की समस्या, उन पर होने वाले अत्याचार, भेदभाव, उनके अधिकारों का हनन इत्यादि का चित्रण किया गया था। जब यह बात मुंबई के उद्योगपतियों को मालूम पड़ा तो उन्हें लगा कहीं मज़दूर फ़िल्म देखकर विद्रोह न कर दें।
इसलिए उद्योगपतियों के समूह ने मिलकर फ़िल्म को रिलीज ही नहीं होने दिया। कुछ समय बाद फ़िल्म को दिल्ली और लाहौर में रिलीज हुई और फ़िल्म देखकर मजदूरों ने अपने मालिकों का विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। फलतः फ़िल्म को प्रतिबंधित घोषित किया गया। प्रेमचंद इससे आहत हुए हर लेखक का अपनी रचना से भावनात्मक लगाव होता है, प्रेमचंद का भी था।
जब दूसरी कृति लिखते समय मेकर्स ने कहानी में काफ़ी फेरबदल करा दिये तब इस अवांछित हस्तक्षेप ने मुंशीजी का मुंबई से मोहभंग हो गया और उन्होंने अपने दो महीने का वेतन छोड़ इलाहाबाद की ओर रुख किया।
परंतु, मुंबई फ़िल्म जगत उनकी रचनाओं से स्वयं को अलग न रख सका। इसलिए उनकी कई कृतियों पर कई फ़िल्में बनी, उनके गुज़र जाने के बाद।
फ़िल्मों के दिन गिने हुए हैं
प्रेमचंद ने हंस पत्रिका में ही नहीं, कई जगहों पर प्रेमचंद सिनेमा पर समय-समय पर टिप्णीयाँ लेखों और सम्पादकीय के माध्यम से करते रहे। मसलन, दैनिक जागरण में सवाक फ़िल्मों के दिन गिने हुए हैं शीर्षक से प्रेमचंद ने 29 अगस्त 1932 को लिखते है-
ऐसा जान पड़ता है कि सवाक फ़िल्मों की हवा बहुत जल्दी बिगड़ जाएगी। मूक फ़िल्म एक साल तक भूमंडल में प्रचलित हो रही थी।
चारली(चार्ली चौप्लीन) के मसखरेपन का आनन्द आस्ट्रेलिया, रूप और चीन सभी उठा सकते थे। सवाक फ़िल्मों का क्षेत्र बहुत तंग हो गया है क्योंकि अंग्रेज़ी फ़िल्मों का आनन्द वही उठा सकते हैं, जो अंग्रेज़ी के ज्ञाता हों।
किसी देश की साधारण जनता विदेश की भाषाओं में इतनी कुशल नहीं होती कि विदेशी बोलचाल समझकर उसका आनन्द उठा सके, अतएव सवाक फ़िल्म बनानेवालों को बराबर घाटा हो रहा है और अवस्था बहुत दिन नहीं रह सकती। मूक चित्रों के दिन फिर लौटेंगे, इसकी आशा है।
सिनेमा स्टारों के अर्द्धनग्न चित्र
हंस पत्रिका में अगस्त, 1932 के सम्पादकीय में सिनेमा स्टारों के अर्द्धनग्न चित्र शीर्षक से प्रेमचंद लिखते है-
इंग्लैड के एक अंग्रेज़ी पत्र ने एक दूसरे अंग्रेज़ी पत्र को इसलिए ज़ोर की फटकार बताई है कि उसने एक सिनेमा-स्टार से उसके जीवन का अनुभव लिखवाकर प्रकाशित किया है और इसे लज्जास्पद कहा है।
भारत में भी अंग्रेज़ी पत्रों की देखा-देखी इस तरह की मनोवृत्ति बढ़ती जाती है जिन स्त्रियों का जीवन इतना घृणास्पद है कि कोई भला आदमी अपनी लड़की को उनके साथ एक मिनट के लिए भी छोड़ना पसन्द न करेगा।
वही स्त्री सिनेमा में एक्ट्रेस बनते ही देवी बना दी जाती है और हरेक पत्र में उसके चित्र छपते हैं, उसकी प्रशंसा की जाती है और यदि वह अपने जीवन के सनसनी पैदा करने वाले वृत्तान्त लिखे, तो उसे बड़े हर्ष से प्रकाशित किया जाता है।
हमारे विचार में समाचार-पत्रों का कर्तव्य केवल जनता में सनसनी पैदा करना और उनकी मनोवृत्तियों को विषाक्त करना नहीं, बल्कि उनमें स्वस्थ्य, निष्कलंक सुरुचि उत्पन्न करना है।
इसमें सन्देह नहीं कि हमें गुण का आदर करना चाहिए, चाहे वह कबीर के शब्दों में कितनी ही अपावन ठौर में क्यों न मिले, लेकिन अर्द्धनग्न स्त्रियों के निर्लज्जतापूर्ण चित्र खींचकर जनता में कुत्सित भावनाओं को उत्तेजित करना, अथवा उसके लज्जास्पद चरित्र वर्णन करके पाठकों में कुवासना को जगाना, भारतीय आदर्श के विरुद्ध है।
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‘बिजनेस इज बिजनेस’ सभी की ज़बान पर रहता है
हंस के सम्पादकीय मार्च 1935 को सिनेमा और जीवन शीर्षक में लिखते है– सिनेमा का प्रचार दिन-दिन बढ़ रहा है। केवल इंग्लैड में दो करोड़ दर्शक प्रति सप्ताह सिनेमा देखने जाते हैं। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र का फ़र्ज़ हो गया है कि वह सिनेमा की प्रगति पर कड़ी निगाह रखे और इसे केवल धन-लुटेरों के हाथ में न छोड़ दे।
व्यवसाय का यह नियम है कि जनता में जो माल ज़्यादा खपे, उसकी तैयारी में लगे। अगर जनता को ताड़ी-शराब से रुचि है, तो वह ताड़ी-शराब की दुकानें खोलेगा और ख़ूब धन कमाएगा। उसे इससे प्रयोजन नहीं कि ताड़ी-शराब से जनता को कितनी दैहिक, आत्मिक, चारित्रिक, आर्थिक और पारिवारिक हानि पहुँचाती है।
उसके जीवन का उद्देश्य तो धन है और धन कमाने का कोई भी साधन वह नहीं छोड़ सकता। यह काम उपदेशकों और सन्तों का है कि वे जनता में संयम और निषेध का प्रचार करें। व्यवसाय तो व्यवसाय है। बिजनेस इज बिजनेस यह वाक्य भी सभी की ज़बान पर रहता है।
इसका अर्थ यही है कि कारोबार में धर्म और अधर्म, उचित और अनुचित का विचार नहीं किया जा सकता है। बल्कि उसका विचार करना बेवकूफी है।
स्वदेशी के समय में हिम्मत थी जो बिजनेस इज बिजनेस की दुहाई देता
प्रेम के दृश्यों से भी जनता को रुचि है, लेकिन यह ख़्याल रखना कि आलिंगन और चुम्बन के बिना प्रेम का प्रदर्शन हो ही नहीं सकता और केवल नकली तलवार चलाना ही जवांमर्दी है और बिना ज़रूरत गीतों को गाना सुरुचि है और मन और कर्म कि हिंसा में ही जनता को आनन्द आता है, मनोविज्ञान का बिलकुल ग़लत अनुमान है।
कहा जाता है कि शेक्सपियर के शब्दों में, जनता अबोध बालक है और वह जिन बातों पर एकान्त में बैठकर घृणा करती है, या जिन घटनाओं को अनहोनी समझती है, उन्हीं पर सिनेमा-हांल में बैठकर उल्लास से तालियाँ बजाती है। इस कथन में सत्य है।
सामूहिक मनोविज्ञान की यह विशेषता अवश्य है। लेकिन अबोध बालक को क्या माँ की गोद पसंद नहीं? जनता नग्नता और फ्क्कड़ता और भंड़ैती ही पसन्द करती है, उसे चूम्मा-चाटी और बलात्कार में ही मज़ा आता है, तो क्या उसकी इन्हीं आवश्यकताओं को मज़बूत बनाना हमारा काम है?
व्यवसाय को भी देश और समाज के कल्याण के सामने झुकता पड़ता है। स्वदेशी आन्दोलन के समय में किसकी हिम्मत थी जो बिजनेस इज बिजनेस की दुहाई देता? बिजनेस से अगर समाज का हित होता है, तो ठीक है; वरना ऐसे बिजनेस में आग लगा देनी चाहिए।
सिनेमा अगर हमारे जीवन को स्वस्थ्य आनन्द दे सके, तो उसे जिन्दा रहने का हल है। अगर वह हमारे क्षुद्र मनोवेगों को उकसाता है, हममें निर्लज्जता और धूर्तता और कुरुचि को बढ़ावा है और हमें पशुता की ओर ले जाता है, तो जितनी जल्द उसका निशान मिट जाए, उतना ही अच्छा।
और अब यह बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी है कि अर्द्धनग्न तस्वीरें दिखाकर और नंगे नाचों का प्रदर्शन करके जनता को लूटना इतना आसान नहीं रहा।
ऐसी तस्वीरें अब आम तौर पर नापसन्द की जाती हैं और यद्यपि अभी कुछ दिनों जनता की बिगड़ी हुई रुचि आदर्श चित्रों को सफल न होने देगी लेकिन प्रतिक्रिया बहुत जल्द होने वाली है और जनमत अब सिनेमा में सच्चे और संस्कृत जीवन का प्रतिबिम्ब देखना चाहता है, राजाओं के विलासमय जीवन और उनकी अय्याशियों और लड़ाइयों से किसी को प्रेम नहीं रहा।
जाहिर है फिल्मों से कलम के जादूगर प्रेमचंद का मोहभंग अवश्य हुआ था। परंतु, पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मों पर प्रेमचंद का लेखन यह सिद्ध करता है कि फिल्मों को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम मानते थे। फिल्मों पर बाज़ार और उसपर अन्य प्रभावों पर उनकी नज़र बराबर बनी रहती थी।
सदर्भ
दैनिक जागरण सवाक फ़िल्मों के दिन गिने हुए हैं 29 अगस्त 1932
हंस अगस्त, 1932 सम्पादकीय, सिनेमा स्टारों के अर्द्धनग्न चित्र
हंस मार्च 1935 सम्पादकीय,सिनेमा और जीवन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में