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अंग्रेजी शिक्षा माध्यम ने हमारे बीच खाई पैदा कर दी है…
महात्मा गांधी मातृभाषा में शिक्षा के प्रबल समर्थक थे, अपने स्कूली शिक्षा के दौरान उन्होंने मातृभाषा और अंग्रेजी भाषा में शिक्षा के कठिनाईयों को महसूस किया था। मातृभाषा में शिक्षा क्यों जरूरी है, हरिजन में उन्होंने लेख लिखा था..
जब अंग्रेज़ी भाषा मे पढ़ना गांधीजी केलिए भी कठिन था
बारह बरस की उम्र तक मैंने जो भी शिक्षा पाई, वह मातृभाषा गुजराती में ही पाई थी। उस समय गणित, इतिहास और भूगोल का मुझे थोड़ा-थोड़ा ज्ञान था। इसके बाद मैं एक हाईस्कूल में दाखिल हुआ। इसमें भी पहले तीन साल तो मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम रही।
लेकिन स्कूल मास्टर का काम तो हम विद्यार्थियों के दिमाग़ में जबर्दस्ती अंग्रेज़ी ठूंसना था। इसलिए हमारा आधे से अधिक समय अंग्रेज़ी और उसके हिज्ज़ों तथा उच्चारण के काबू पाने में लगाया जाता थ। अंग्रेज़ी भाषा को पढ़ना हमारे लिए कष्टपूर्ण अनुभव था।
सबसे अधिक जिल्लत तब हुई जब सारे विषय की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में करने के बज़ाय अंग्रेज़ी में पढ़ना शुरू करना पड़ा। कक्षा में अगर कोई विद्यार्थी गुजराती, जिसे वह समझता था, बोलता तो उसे सजा दी जाती थी। अंग्रेज़ी को, जिसे न तो वह पूरी तरह समझ सकता था और न शुद्ध बोल सकता था, अगर वह बुरी तरह बोलता तो भी शिक्षक को आपत्ती नहीं होती थी।
शिक्षक भला इस बात की फ्रिक क्यों करें? क्योंकि ख़ुद उसकी अंग्रेज़ी निर्दोष नहीं थी, इसके सिवा और हो भी क्या सकता था? क्योंकि अंग्रेज़ी उनके लिए भी उसी तरह विदेशी भाषा थी, जिसतरह उनके विद्यार्थियों के लिए भी। इससे बड़ी गड़बढ़ होती थी। हम विद्यार्थियों ने अनेक बातें कंठस्त कर रखी थी, हालांकि हम उसे पूरी तरह से समझ नहीं सकते थे।
बारहवीं तक के शिक्षा को अंग्रेजी पर सांस्कृतिक विजय मानते थे गांधीजी
मेरी पूरी हाईस्कूल की शिक्षा तो अंग्रेज़ी की सांस्कृतिक विजय के लिए थी, हमने जो भी ज्ञान प्राप्त किया वह हम तक ही सीमित था, वह सर्वसाधारण तक पहुँचने के लिए तो था ही नहीं।
हमारी झूठी अभारतीय शिक्षा से लाखों आदमियों का दिन-दिन जो अधिकाधिक नुक़सान हो रहा है, उसका प्रमाण मैं रोज़ ही पा रहा हूँ। जो ग्रेज्युएट मेरे आदरणीय साथी हैं, उन्हें जब अपने आन्तिरिक विचारों को व्यक्त करना पड़ता है, तब वे ख़ुद ही परेशान हो जाते हैं। वे तो अपने ही घरों में अजनबी बन गए हैं।
अपनी मातृभाषा के शब्दों का उनका ज्ञान इतना सीमित है कि अंग्रेज़ी शब्दों और वाक्यों तक का सहारा लिए बगैर वे अपने भाषण को सामाप्त नहीं कर सकते और न अंग्रेज़ी किताबों के बगैर वे रह सकते हैं। आपस में भी वे अक्सर अंग्रेज़ी में ही लिखा-पढ़ी करते हैं।
अपने साथियों का उदाहरण मैं यह बताने के लिए दे रहा हूँ कि इस बुआई ने कितनी गहरी जड़ जमा ली है। क्योंकि हम लोगों ने अपने को सुधारने का ख़ुद जान-बूझकर प्रयत्न नहीं किया है।
गांधीजी ने जगदीश बसु के बारे में क्या कहा
हमारे कॉलेजों में जो समय की बरबादी होती है, उस पक्ष में दलील यह दी जाती है कि कॉलेजों में पढ़ने के कारण इतने विद्यार्थियों में से अगर एक जगदीश बसु भी पैदा हो सके, तो हमें बरबारी की चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं।
अगर यह बरबादी अनिवार्य होती तो मैं ज़रूर इस दलील का समर्थन करता, लेकिन मैं आशा करता हूँ कि मैंने यह बतला दिया है कि यह न तो पहले अनिवार्य थी और न आज ही अनिवार्य है। क्योंकि जगदीश बसु कोई वर्तमान शिक्षा की उपज नहीं थे। वे तो भयंकर कठिनाइयों और बाधाओं के बावजूद अपने परिश्रम की बदौलत ऊंचे उठे और उनका ज्ञान लगभग ऐसा बन गया जो सर्वसाधारण तक नहीं पहुँच सकता।
बल्कि मालूम ऐसा पड़ता है कि हम यह सोचने लगे हैं कि जब तक कोई अंग्रेज़ी न जाने, तब तक वह बसु के सदृश महान वैज्ञानिक होने की आशा नहीं कर सकता। यह ऐसी मिथ्या धारणा है, जिसमें अधिक बड़ी की मैं कल्पना ही नहीं कर सकता। जिस तरह हम अपने को लाचार समझते मालूम पड़ते हैं, उस तरह एक भी जापानी अपने को नहीं समझता।
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शिक्षा का माध्यम प्रान्तीय भाषाओं में न्यायसंगत होगी
शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाहिए और प्रान्तीय भाषाओं को उनका न्यायसंगत स्थान मिलना चाहिए। यह जो दंडनीय बरबादी रोज-ब-रोज हो रही है, इसके बजाय तो मैं अस्थायी रूप से अव्यवस्था हो जाना भी ज़्यादा पसंद करूंगा।
प्रान्तीय भाषाओं का दर्जा और व्यावहारिक मूल्य बढ़ाने के लिए मैं चाहूंगा कि अदालतों की कार्यवाही अपने-अपने प्रान्त की भाषा में हो। प्रान्तीय धारा सभाओं की कार्यवाही भी प्रान्तीय भाषा में हो या एक से अधिक भाषाएँ प्रचलित हों।
धारा सभाओं के सदस्यों से मैं कहना चाहता हूँ कि वे चाहे तो एक महीने के अन्दर-अन्दर अपने प्रान्तों की भाषाएँ भली-भाती समझ सकते हैं। तमिल भाषी के लिए ऐसी कोई रुकावट नहीं कि वह तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ का, जो कि सब तमिल से मिलती-जुलती ही हैं, मामूली व्याकरण और कुछ सौ शब्द आसानी से न सीख सके।
केंन्द्र में हिन्दुस्तानी का प्रमुख स्थान रहना चाहिए। मेरी सम्मति में यह कोई ऐसा प्रश्न नहीं, जिसका निर्णय साहित्यिकों के द्वारा हो। वे इस बात का निर्णय नहीं कर सकते कि किस स्थान के लड़के-लड़कियों की पढ़ाई किस भाषा में हो। क्योंकि इस प्रश्न का निर्णय कर सकते हैं कि किन विषयों की पढ़ाई हो।
यह उस देश की आवश्यकताओं पर निर्भर करता है, जिस देश के बालकों को शिक्षा देनी हो। उनमें तो बस यही सुविधा प्राप्त है कि राष्ट्र की इच्छा को यथासम्भव सर्वोत्तम रूप में अमल में लाए। अत: जब हमारा देश वस्तुत: स्वतंत्र होगा, तब शिक्षा का प्रश्न केवल एक ही तरह से हल होगा।
साहित्यक लोग पाठ्यक्रम बनाएंगे और फिर उनके अनुसार पाठ्य-पुस्तकें तैयार करेगे और स्वतंत्र भारत की शिक्षा पानेवाले लोग देश की ज़रूरते उसी तरह पूरी करंगे जिस तरह आज वे विदेशी शासकों की ज़रूरतें पूरी करते हैं।
जब तक हम शिक्षित वर्ग इस प्रश्न के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे, तब तक मुझे इस बात का भय है कि हम जिस स्वतंत्र और स्वस्थ भारत का स्वप्न देखते हैं, उसका निर्माण कर पाएंगे।
हमें जी-तोड़ प्रयत्न करके अपने बन्धन से मुक्त होना चाहिए, चाहे वह शिक्षात्मक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो या राजनीतिक हो। हमारी तीन-चौथाई लड़ाई तो वह प्रयत्न होगा जो कि इसके लिए किया जाएगा।
संदर्भ
हरिजन सेवक, 9.7.1938
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