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काकोरी-कांड’ के अमर शहीद – राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी

मैं हिन्दू होने के नाते पुनर्जन्म में आस्था रखता हूं। इसलिए मैं मरने नहीं, वरन् आज़ाद भारत में फिर से जन्म लेने के लिए जा रहा हूँ।’

यह उद्गार काकोरी ट्रेन लूट कांड के नायक अमर शहीद राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने गोंडा जेल में 17 दिसंबर 1927 को अपनी फाँसी से कुछ समय पूर्व तत्कालीन जेलर से व्यक्त किए थे।

 

बनारस में पढ़ते हुए वह उस क्रांतिकारी दल  से जुड़ गए थे लाहिड़ी

 

बंगाल के पावना ज़िले के मोहनपुर ग्राम में 23 जून 1921 को राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का जन्म हुआ था। पिता श्री क्षितिमोहन लाहिड़ी स्वयं अंग्रेजी शासन के विरोधी थे। बंग-भंग आन्दोलन में जेल-यातना सह चुके थे। नौ वर्ष के आयु में पिता ने बड़े भाई के साथ बनारस पढ़ने के लिए भेज दिया था। बनारस उन दिनों की शिक्षा के उत्तम स्थान के साथ क्रांतिकारियों  का भी गढ़ था। बंगाल से विद्यार्थी बनारस शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे, अत: बंगालियों की संख्या बहुत थी।

 

बनारस में शिक्षा के साथ-साथ राजेन्द्र लाहिड़ी क्रांति में भी दीक्षित हुए। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए वह उस क्रांतिकारी दल के सदस्य हो गए, जिसके मुख्य संगठक शचीन्द्रनाथ सान्याल थे। साहित्यक अभिरूचि के चलते उन्हें बंग साहित्य परिषद का सचिव पद दिया गया। बंगवाणी और शंख  नामक पत्रिकाओं में उनके लेख निरन्तर छपते रहते थे। क्रांतिकारी विचारधारा के हस्तलिखित मासिक अग्रदूत  का भी वह संपादन करते थे।

 

बंगाल में उन दिनों अनुशीलन समिति नामक क्रांतिकारी संस्था थी, जो संयुक्त प्रान्त में भी अपनी शाखा खोलना चाहती थी। बनारस दो कारणों से उचित स्थान था, एक तो क्रांतिकारियों का गढ़, दूसरे बंगाली बहुल। योगेशचन्द्र चटर्जी अनुशीलन समिति की शाखा खोलने में सफल रहे। परंतु, बनारस में शचीन्द्रनाथ सान्याल की पार्टी पहले से ही काम कर  रही थी। दोनों केलिए काम की गुंजाइश नहीं थी।

 

दोनों पार्टियों में एकीकरण का विचार हुआ और राजेन्द्र लाहिड़ी को बनारस जिले का संगठक नियुक्त किया गया। उस समय उनकी उम्र बाईस वर्ष की थी। उनकी सुकुमारता के कारण कुछ लोगों को वह अयोग्य प्रतीत हुए। पर उन्होंने इतनी योग्यता, राजनीतिक सूझबूझ और साहस के साथ कार्य किया कि आलोचक धीरे-धीरे उनके प्रशंसक बन गए। यद्यपि उनकी देह सुदृढ़ व कसरती थी,पर चमकदार आंखों व मुस्कुराते हुए चेहरे पर स्त्री-सुलभ कोमलता थी।

 

ज़िले के संगठक होने पर उन्होंने सेंट्रल हिंदू स्कूल के एक विद्यार्थी रामनारायण पाण्डेय को अपना पोस्टबाक्स बनाया। क्रांतिकारियों के पत्र वाहक को पोस्ट बाक्स कहा जाता था। लाहिड़ी राजनीतिक डकैतियों में भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने लगे। शीघ्र ही वह रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में हुई ट्रेन डकैती के दल के सदस्य बने, जो काकोरी षड्यंत्र कहलाया।

 


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काकोरी ट्रेन डकैती के नायक राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी

 

इसी दल की बैठक 7 अस्गत 1925 को शाहजहाँपुर  में हुई, जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी सम्मिलित हुए थे।

 

सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली पैसेंजर गाड़ी में कुछ क्रांतिकारी दल के राजेन्द्र लाहिड़ी ने जंजीर खींचकर गाड़ी रोक ली। गाड़ी खड़ी होने पर सभी क्रांतिकारी गाड़ी से नीचे कूद गए और गोलियां चलाने लगे। गार्ड और ड्राइवर को पेट के बल जमीन पर लेटे रहने को कहा गया, शेष यात्रियों को बाहर न निकलने की ताकीद की गई। रुपयो के सन्दूक को तोड़कर रुपया निकाला गया, जिसे लेकर क्रांतिकारी भाग गए।

 

काकोरी कांड में निरपराधों को भी पकड़ा गया, लेकिन उस समय शचीन्द्रनाथ बख्शी, अशफ़ाक उल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ीचंद्रशेखर आज़ाद नहीं  पकड़े गए। चंद्रशेखर आज़ाद तो कभी पकड़े ही नहीं गए, शेष तीन काफी समय बाद गिरफ्तार हुए।

 

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी इस कांड के बाद कलकत्ता चले गए। वहाँ दक्षिणेश्वर में बन बनाना सीखने लगे। जहां से वह उत्तरप्रदेश में बम बनाना शुरू करना चाहते थे। परंतु, दक्षिणेश्वर के बम के कारखाने में 10 नवम्बर 1925 को बंगाल पुलिस ने छापा मारकर क्रांतिकारियों को पकड़ा, जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भी थे। बम बनाने के जुर्म में दस वर्ष का कारावास मिला।

 


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मैं मर नहीं रहा हूँ, स्वतंत्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ

 

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी काकोरी कांड में सम्मिलित थे, यह पता चलने पर उन्हें कलकत्ता से लखनऊ लाया गया। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को कैदियों के कपड़ों में पैरों में बेड़ियाँ  डाकर जेल की अदालत ले जाया जाता था। जेल से अदालत आते-जाते वह सभी मिलकर गीत गाया करते थे।

 

एक दिन सूबेदार बरबण्ड सिंह ड्यूटी पर था। अदालत से निकलते ही क्रांतिकारी-सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, गाए लगे। बरबण्डसिंह ने चिल्लाकर चुप रखने को कहा। क्रांतिकारी उसकी उपेक्षा कर गाते रहे।

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी सबसे आगे थे। बरण्डसिंह ने उनका गला पकड़ लिया। स्वाभिमानी लाहिड़ी ने एक भरपूर तमाचा जड़ दिया। उसके दूसरे साथी जब लाहिड़ी  पर लपके तो क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ, रामनारायण पाण्डे आदि मुक्के तानक खड़े हो गए।

शोरगुल सुनकर जज बाहर आये और मामले को शांत किया। पुलिस ने अदालत में मुक़दमा भी चलाया, जो बाद में वापस ले लिया गया।

 

फाँसी पर चढ़ने से पहले उन्होंने स्नान और गीतापाठ के साथ कुछ व्यायाम भी किया तो अंग्रेज जिला मजिस्ट्रेट को आश्चर्य हुआ तो उसने लाहिड़ी से पूछा- आपने आगे आने वाली घटना के लिए स्नान करके धर्मग्रंथ का पाठ किया वह तो ठीक है, परंतु मैं यह नहीं समझ पाया कि इस अवसर पर आपने जो व्यायाम किया, उसकी क्या उपयोगिता है?

 

लाहिड़ी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- मैं हिन्दू हूँ और मेरा विश्वास है कि मैं अपने देश की आज़ादी के लिए पुन: दूसरा शरीर प्राप्त करने जा रहा हूं। उस स्वस्थ्य और बलिष्ठ शरीर में अपने देश को स्वतंत्र करने के लिए पुन: जन्म लूंगा। मैं आशा करता हूं कि एक भले अंग्रेज की तरह आप मेरा यह अन्तिम संदेश मेरे देशवासियों को  पहुंचा देंगे।

 

17 दिसम्बर 1927 की सुबह गौंडा जेल में लाहिडी को फाँसी दी गई।

यह एक रहस्य है कि जब काकोरी केस के चारो अभियुक्तों को 19 दिसंबर को फाँसी लगने वाली थी, तो लाहिड़ी को दो दिन पूर्व ही क्यों फाँसी दे दी गई।

 


 

संदर्भ

शचीन्द्र नाथ बख्शी,वतन पर मरने वालों का, ग्लोबल हारमनी पब्लिशर्श, दिल्ली, 2009

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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