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वीर तेलंगा खड़िया जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ी थी जंग

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में  झारखंड का एक महत्वपूर्ण स्थान है। प्रारंभ में यह क्षेत्र बंगाल राज्य का हिस्सा था। झारखंड की धरती ने कई वीर सपूतों को जन्म दिया, जिन्होंने जनजातीय समुदाय को संगठित कर अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया। ये वीर अपने प्राणों की परवाह किए बिना देश की स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए। हालांकि, उनके हृदय में विद्रोह की ज्वाला सदैव प्रज्वलित रही। इन आंदोलनों ने अंततः अंग्रेजी शासन को अपनी नीतियों में बदलाव करने पर मजबूर कर दिया।

स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड के अनेक वीर सपूतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनमें से एक प्रमुख नाम तेलंगा खड़िया का है। अनपढ़ होते हुए भी तेलंगा खड़िया अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनकी वाणी में जोश और आक्रोश स्पष्ट रूप से झलकता था, जो लोगों को बिना किसी भेदभाव के उनकी ओर खींच लाता था। छोटा नागपुर के विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने जनजातियों को संगठित किया और अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया।

अंग्रेजों का अत्याचार चरम पर था, लेकिन तेलंगा खड़िया ने इसे चुनौती देना अपना कर्तव्य समझा। उन्होंने गांव-गांव जाकर  जूरी पंचायतों का गठन किया और लोगों को संगठित किया। उनके नेतृत्व में जनजाति समुदाय तलवार और तीर-धनुष चलाने का प्रशिक्षण लेने लगा। अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों, जैसे बंदूक और राइफल, का सामना उन्होंने पारंपरिक तीर-धनुष और तलवारों से किया। उनके साहस और उमंग की कोई तुलना नहीं थी।

उनका बलिदान आज भी हमें अन्याय और अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है। झारखंड में उनके कारनामों को लोक गीतों के माध्यम से गाया जाता है, जो उनकी वीरता और संघर्ष की कहानी को जीवंत बनाए रखते हैं।




कौन थे तेलंगा खड़िया

अमर शहीद तेलंगा खड़िया का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ निडरता से आवाज उठाई। उनका जन्म 9 फरवरी 1806 को झारखंड के गुमला जिले के सिसई प्रखंड स्थित मुरगु गांव में एक साधारण गरीब किसान परिवार में हुआ। उनका परिवार गांव के जमींदार और पाहन वर्ग से संबंधित था। उनके दादा, सिठ खड़िया, धार्मिक, सरल, और साहित्यिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे।

खड़िया भाषा में साहसी और वाचाल व्यक्तियों को “तेब्बलंगा” कहा जाता है। इसी गुण के कारण उनका नाम तेलंगा खड़िया पड़ गया। खड़िया जनजाति के लोग सरना धर्म पर गहरी आस्था रखते थे, और तेलंगा खड़िया भी अपने समुदाय के इस विश्वास में दृढ़ थे। तेलंगा खड़िया की विशेषता यह थी कि वे एक साधारण किसान होने के बावजूद अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण थे और अपने लोगों को भी इसकी शिक्षा देते थे। वे बहादुरी और नेतृत्व के प्रतीक थे, जिन्होंने अपने समुदाय को संगठित कर अंग्रेजों के आतंक का सामना किया।

झारखंड में अंग्रेजों का आगमन 1767 में हुआ, और 1837 तक उन्होंने इस क्षेत्र पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया। अंग्रेजों की नीतियां मनमानी और शोषणकारी थीं। वे जमींदारों से कर वसूलते, जमींदार रैयतों से, और अंततः इनकी जमीनें बाहरी सूदखोरों या मध्यस्थों के हाथों चली जातीं। इस शोषण का परिणाम विद्रोह के रूप में सामने आया।

विलियम हंटर ने बंगाल की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा:

“वहां की आधी जमीन इस सेल लॉ के कारण सूदखोरों और मध्यस्थों के हाथ चली गई। सभी तबाह थे—राजा, जमींदार, रैयत सब। परिणामस्वरूप, विद्रोह पर विद्रोह होने लगे।”

जनजातीय समुदाय की जिंदगी जल, जंगल, और जमीन के इर्द-गिर्द घूमती थी। वे स्वतंत्र विचारधारा वाले लोग थे और आपसी सहयोग के साथ रहते थे। अंग्रेजी शासन ने उनकी स्वायत्तता और संस्कृति पर प्रहार किया। यहां तक कि उनकी महिलाओं की इज्जत पर भी खतरा मंडराने लगा।

तेलंगा खड़िया ने इस अन्याय के सामने झुकने से इनकार कर दिया। पढ़ा-लिखा न होने के बावजूद उनकी बुद्धिमत्ता और नेतृत्व क्षमता असाधारण थी। उन्होंने जनजातीय समुदाय के स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा के लिए अंग्रेजी शासन के आतंक का डटकर सामना किया।


भूमकाल के आदिवासी विद्रोह का नेता गुण्डाधूर


1880 का खड़िया विद्रोह

1880 का खड़िया विद्रोह
1880 का खड़िया विद्रोह

 

तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में खड़िया विद्रोह 1880 ई. में प्रारंभ हुआ। यह आंदोलन अपनी मिट्टी, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए जनजातीय समुदाय का संगठित प्रयास था। अंग्रेजों के शोषण और उनके अधिकारों के अतिक्रमण को समाप्त करने के लिए तेलंगा खड़िया ने युवा वर्ग को गदका, तीर, और तलवार चलाने का प्रशिक्षण दिया। इस संघर्ष में उनकी पत्नी, रतनी खड़िया, ने भी हर कदम पर उनका साथ दिया, जो उनके साहस और संकल्प को और मजबूत करता था।

तेलंगा खड़िया ने अंग्रेजी शासन को सिरे से नकार दिया और इसे अन्याय का प्रतीक माना। आतंक के सामने झुकना उन्होंने अपराध समझा। अपनी प्रखर वाणी और बुलंद वक्तव्यों से उन्होंने जनजातीय समुदाय को न केवल संगठित किया, बल्कि उन्हें विद्रोह के लिए प्रशिक्षित और प्रेरित भी किया।

उन्होंने अपनी एक प्रभावशाली उक्ति के माध्यम से जनजातीय समुदाय के अधिकारों पर जोर दिया। उन्होंने हथियारों की असमानता को मात देने के लिए साहस और एकता को सबसे बड़ा हथियार बनाया।

“जमीन हमारी, जंगल हमारी, मेहनत हमारी, तो फिर जमींदार और अंग्रेज कौन होते हैं हमसे लगान और मालगुजारी वसूलने वाले। अंग्रेजों के पास अगर गोली-बारूद है, तो हमारे पास भी तीर-धनुष, कुल्हाड़ी और फरसे हैं।”




जूरी पंचायतों की स्थापना

तेलंगा खड़िया ने अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति को भलीभांति समझ लिया था। उन्होंने यह महसूस किया कि जनजातीय समुदायों में एकता की कमी के कारण अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ रहा था। इस समस्या का समाधान करने के लिए उन्होंने गांव-गांव घूमकर जनजातियों के बीच संपर्क स्थापित करना शुरू किया। छोटानागपुर के पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में उन्होंने प्रत्येक गांव का दौरा किया और सभी वर्गों के बीच धार्मिक और सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया।

तेलंगा खड़िया ने जगह-जगह पंचायतों का गठन किया, जो जनजातीय समाज के संगठन और विद्रोह की नींव बने। इन पंचायतों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के बीज बोए। जूरी पंचायत एक ऐसा संगठन था जहां विद्रोहियों को न केवल युद्ध कौशल सिखाया जाता, बल्कि रणनीति बनाने और गोरिल्ला युद्ध की विधियों का भी प्रशिक्षण दिया जाता।

तेलंगा खड़िया ने जूरी पंचायतों को आपस में रणनीतिक तौर पर जोड़ा। इन पंचायतों के बीच अत्यधिक संगठित संवाद और तालमेल था।

जमींदारों के लठैतों और अंग्रेजी सेना की गतिविधियों की सूचना विद्रोहियों को समय से पहले मिल जाती थी, जिससे वे युद्ध के लिए तैयार रहते। प्रत्येक गांव में अखाड़ों की स्थापना की गई, जहां युवा तलवार, गदा और अन्य पारंपरिक हथियारों का अभ्यास करते। तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में विद्रोही सेना जंगलों और घाटियों में छिपकर गोरिल्ला युद्ध करती, जिसमें वे शत्रु को भारी नुकसान पहुंचाते।

तेलंगा खड़िया ने जूरी पंचायतों के माध्यम से छोटे स्तर पर अंग्रेजों की समानांतर सत्ता का विकल्प तैयार किया। इन पंचायतों ने न केवल विद्रोहियों का नेतृत्व किया, बल्कि जनजातीय समाज के लिए एक मजबूत संगठनात्मक ढांचा भी प्रदान किया। शोध से यह पता चलता है कि तेलंगा खड़िया ने अपने कार्यक्षेत्र में अनेक जूरी पंचायतों का गठन किया, जिनका केंद्र वर्तमान गुमला जिले के भीतर था।

तेलंगा खड़िया का नेतृत्व न केवल विद्रोह की दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि यह उनके संगठन कौशल और रणनीतिक सोच को भी प्रदर्शित करता है। उन्होंने जनजातीय समाज को न केवल एकजुट किया, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता और संघर्ष के लिए तैयार भी किया।

सरना धर्म

अन्य जनजाति विद्रोहों के समान खड़िया आंदोलन में भी धर्म की प्रधानता थी। वे सरना धर्म के अनुयायी थे । सरना धर्म झारखंड के आदिवासियों का आदि धर्म है।

आदिवासी आदिकाल जंगलों में रहते थे और प्रकृति के सारे गुण और सारे नियमों को समझते थे। उसी समय आदिवासियों में जो पूजा पद्धति व परंपरा विद्यमान थी, वही आज भी अस्तित्व में है । सरना धर्म में पेड़ पौधे पहाड़ इत्यादि प्राकृतिक संपदा की पूजा की जाती है ।

सरना स्थल पर पूजा के पश्चात ही जूरी पंचायत के नेता व सदस्य अखाड़े में प्रवेश कर पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र प्रशिक्षण ग्रहण करते थे। युवाओं को सभी तरह के युद्ध विद्याओं से पारंगत किया जाता था। कहा जाता है कि आस्था में बड़ा बल होता है, तेलंगा ने इसी बल द्वारा लोगों को संगठित कर उनका मनोबल बढ़ाया।

गुरिल्ला युद्ध

खड़िया आंदोलन में आदिवासियों ने गुरिल्ला रणनीति अपनाई । गुरिल्ला युद्ध प्रत्यक्ष रूप से न करके परोक्ष रूप से की जाती है। इस युद्धकी सबसे सफल रणनीति असावधान शत्रु पर प्रहार कर छुप जाने की होती है। यदि दोनों पक्ष बराबर के हो तो क्षति भी बराबर की होती है। और यदि एक पक्ष ज्यादा मजबूत हो तो कमजोर की हानि अधिक होती है, परंतु गोरिल्ला युद्ध के बात कुछ अलग ही होती है।

इसमें दुर्बल पक्ष अपने से कई गुना सफल पक्ष को हानि पहुंचाता है। गुरिल्ला युद्ध से लोग क्यों प्रेरित होते हैं, इस संबंध में क्यूबा के क्रांतिकारी नेता चे ग्वेरा का कहना है-

हमें इतिहास से पता चलता है कि अनेक देशों के क्रांतिकारियों ने गुरिल्ला युद्ध की तकनीक से कई सामर्थ्यवान साम्राज्यो को चुनौती दी, शक्तिशाली सेनाओं को परास्त किया और उन्हें वापस लौटने पर मजबूर किया। भगवान राम की सेना ने रावण की शक्तिशाली सेना को गुरिल्ला युद्ध से लड़कर ही परास्त किया था।


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तेलंगा का आंदोलन, गिरफ्तारी और शहादत

तेलंगा खड़िया
तेलंगा खड़िया

तेलंगा ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई की शुरुआत मुरगु गांव से की। अधिकतर गांव के जमींदार अंग्रेजी शासन से पीड़ित थे, इसलिए विद्रोहियों को ग्रामीणों का भरपूर समर्थन मिल रहा था। गुरिल्ला युद्ध में दुश्मनों को पछाड़ने के बाद विद्रोही जंगलों में भूमिगत हो जाते। तेलंगा, जमींदारों एवं अंग्रेजी शासन के लिए खौफ बन चुका था। तेलंगा के संगठनात्मक कार्य के बारे में अंग्रेज सरकार को जब पता चला तो तेलंगा को पकड़ने के लिए अंग्रेज सरकार द्वारा आदेश जारी किया गया। जब तेलंगा को इस बात की जानकारी मिली वह घर से बाहर रह कर ही संगठन का कार्य करने लगे। तेलंगा कभी-कभी घर आया करते थे क्योंकि उन्हें पकड़े जाने का डर था। उनका लक्ष्य अंग्रेजों को झारखंड से बाहर निकालना था।

तेलंगा को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने इनाम की घोषणा की। भारत में तेलंगा जैसे देश भक्त थे, तो कुछ देशद्रोही भी थे जो अंग्रेजों से मिले हुए थे और देशद्रोहियों के मुखबिरी के कारण ही तेलंगा कुम्हारी गांव में बैठक करते समय ही बंदी बना लिए गए। लोहरदगा में मुकदमा चला और तेलंगा को 14 साल की सजा सुनाई गई। उन्हें कोलकाता जेल भेज दिया गया।

14 साल बाद जब तेलंगा जेल से छूटा तो उसके विद्रोही तेवर और भी तल्ख हो गया। विद्रोहियों की दहाड़ से जमींदारों में डर समा गया। जूरी पंचायत फिर से जिंदा हो उठे और युद्ध प्रशिक्षण का दौर शुरू हो गया। बसिया से कोलेबिरा तक विद्रोह की लपट फैल गई। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं हर कोई विद्रोह में भाग ले रहे थे। तेलंगा, जमींदारों व अंग्रेजों के लिए एक भूखा शेर बन गया था।

 दुश्मन के पास एक ही रास्ता था, तेलंगा को मार गिराया जाए। जगह-जगह छुप-छुपकर जनजाति गुरिल्ला युद्ध कर अंग्रेजों से जूझ रहे थे। तेलंगा की पत्नी रतनी खड़िया भी मैदान में उतर आई। उन्होंने कई मोर्चों पर नेतृत्व संभाला। महिलाओं ने जम कर इस विद्रोह में भाग लिया और अंतिम साँस तक लड़ी।

तेलंगा मरा नहीं, मार दिया गयाऔर मर कर भी भारत का यह सपूत अमर हो गया। आगे से किसी को इस पर गोली चलाने की हिम्मत नहीं थी। अपने ही समुदाय केअंग्रेजों के एक सिपाही बोधन सिंह ने इसकी पीठ पर गोली दागी। तेलंगा गिर पड़ा, वह दिन 23 अप्रैल, 1880 था। वह सिसई मैदान में प्रशिक्षण देने के पूर्व सरना स्थल पर पूजा कर रहा था। वह दिव्य पुरुष और महान आत्माथा सफेद झंडे के नीचे, घुटने टेक, नमन कर, उसने सरना माता, सूर्य भगवान एवं अपने पूर्वजों का नाम लेकर आराधना की। परंतु इसी समय गोली लग जाने से वह गिर पड़ा। दुश्मन तेलंगा के शरीर पर अधिकार नहीं कर पाए। बेहोश तेलंगा के पास उन लोगों को आने की हिम्मत नहीं हुई। तेलंगा के अनुयायी उसके शरीर को लेकर जंगल में गायब हो गए। तेलंगा फिर कभी नजर नहीं आया। उनके शहीद स्थान को


संदर्भ

रंजना चितले, जनजातीय योद्धा, स्वाभिमान और स्वाधीनता का संघर्ष, प्रभात प्रकाशन

संजय कृष्ण, झारखंड के क्रांतिकारी, प्रभात प्रकाशन,

Anindita, Telanga Khadiya Ki Amar Kahani, Rajkamal Prakashan

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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