देश के आज़ादी के लिए फांसी का फंदा चूमने वाले, नवाब नूर समद ख़ान
वर्तमान हरिणाया के समस्त क्षेत्र को 1857 की क्रांति की लहर ने झकझोर दिया था। 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठों से एक संधि द्वारा हरियाणा पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। अंग्रेजों ने 1833 में नार्थ-वेस्टन प्राविंसिंस का निर्माण किया तथा इस प्रदेश के शासन प्रविधि को सुव्यवस्थित करने के लिए हिसार, रोहतक, गुड़गांव के क्षेत्र देहली डिवीजन के अतर्गत कर दिये। हरियाणा वासियों ने अंग्रेजी आधिपत्य को कभी स्वीकार नहीं किया। हरियाणा के ग्रामों में हमेशा से स्वतंत्र सत्ता रही थी। उस समय एक लोकगीत प्रचलित था।
” दिल्ली पाछे मरद भतेरे
वसें देश हरियाणा।
आपै बोवें, आपै खावें
किसी नैं दें न दाना।“
हरियाणा निवासी अंग्रेजों के शासन को कभी स्वीकार नहीं कर सके। क्रांति का आरंभ होते ही उन्होंने उसका साथ दिया। क्रांति का विस्फोट होते ही गुडगांव, भिवानी, रोहतक, हिसार, पानीपत, अम्बाला क्षेत्र अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए और स्वतंत्र हो गए। हरियाणा के क्रांति के इतिहास में रुणिया के नवाब नूर सदन ख़ान के बलिदान का महत्वपूर्ण स्थान हैं।
रियासत छोटी लेकिन जज़्बा बड़ा
नवाब नूर सदन ख़ान हरियाणा में हिसार के पार रुणिया नामी छोटी से रियासत के नवाब थे। भले ही वह रियासत छोटी थी परंतु उनके दिल में देश को आज़ाद कराने का जज़्बा भरा हुआ था।
नवाब की रियासत 1818 में कंपनी के क़ब्ज़े में जा चुकी थी। नवाब को गुजारे के लिए 5700/- प्रति वर्ष के हिसाब से पेंशन मंज़ूर थी। यह स्थिति उनके लिए पीड़ाजनक थी।
जैसे ही 1857 में क्रांति का आरंभ हुआ उन्होंने उसका स्वागत किया। दिल्ली पर क्रांतिकारियों का अधिपत्य स्थापित होते ही उन्होंने भी विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया।
नवाब की कूटनीति और सिरसा आज़ाद
क्रांति के आरम्भ से पहले ही सिरसा क्षेत्र में स्थिति असमान्य थी। वहाँ के सुपरिंटेंडेंट रोबर्टसन ने रुणिया के नवाब को बुलाया और उस क्षेत्र के लिए सेना एकत्रित करने को कहा। नवाब नूर सदन ख़ान ने अश्वारोहियों और पदातियों की एक बड़ी सेना का गठन कर लिया उन्हें इस कार्य के लिए व्यय की राशि अंग्रेजों द्वारा दी गई थी।
नवाब ने मौक़े का फ़ायदा उठाकर एक बड़ी सेना संगठित कर ली। नवाब के इस पुख्ता प्रबंध के बारे में सुपरिंटेंडेंट रोबर्टसन को भनक तक नहीं लगी। उसे अंदाज़ ही नहीं था कि वह नवाब की चाल और जाल में फंस रहा है।
क्रांति की लहर ऐसे ही उनके क्षेत्र में शुरू हुई वह उनवाब सिरसा में उपस्थित थे। उन्होंने अंग्रेजों का साथ देने स्थान पर क्रांतिकारियों की सहायता करना सही समझा। नवाब के कूटनीति के कारण अंग्रेजों के सिरसा से पैर उखड़ गए।
क्रांतिकारी सिपाहियों की सहायता से सिरसा क्षेत्र में नवाब नूर समद खान ने अंग्रेजों का विनाश कर दिया। दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफ़र के नेतृत्व में नवाब नवाब नूर सदन ख़ान को सिरसा क्षेत्र का शासक घोषित कर दिया गया। उनके चाचा गौहर अली ख़ान ने भी उनका साथ दिया। बाद में उन्हें भी पकड़ लिया गया और फाँसी पर लटका दिया गया।
नवाब नूर समद ख़ान के साथियों ने सिरसा शहर को तहस-नहस कर दिया तथा अंग्रेजों के खज़ाने को लूट लिया। राज्य के दफ्तरों था अन्य संपत्ति पर भी नवाब नूर समद ख़ान का अधिकार हो गया। बंदियों को जेल से छुड़ा दिया गया। सिरसा क्षेत्र में अंग्रेजों के राज्य का नामोनिशान मिट गया।
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शहादत
अंग्रेजी शासन को, नूर समद ख़ान की इतनी बड़ी कामयाबी को आसानी से हज़म नहीं हुई। जैसे-जैसे वह अपने आप को दोबारा मजबूत किया, विद्रोहियों पर उनकी पकड़ मजबूत हुई। वह किसी भी हालात में सिरसा पर से अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहते थे।
जून के महीने में पंजाब के चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस ने जनरल कोटलैंड को एक बड़ी सेना के साथ नवाब को पराजित करने के लिए भेजा। 17 जून को रुणिया के निकट उद्यान नामक ग्राम के पास डटकर युद्ध हुआ।
नवाब नूर समद ख़ान और उनके साथियों ने वीरता और साहस से अंग्रजों से से लोहा लिया। रुणिया के नवाब के 530 साथियों ने युद्ध के मैदान में ही वीरगति प्राप्त की। अंत में नूर समद ख़ान अंग्रजों द्वारा पराजित हुए। उनकी तथा उनके साथियों की वीरता निर्विवाद थी। परंतु, उनके पास सैनिक सामग्री और तोप गोले अंग्रेजों की अपेक्षा कम थे। यही उनकी पराजय का मुख्य कारण था।
नवाब साहब ने खुद को अंग्रेज सैनिकों में छिपा लिया। वह किसी तरह से लड़ाई के मैदान से बच कर निकल गये परंतु उन्हें लुधियाना के पास पकड़ लिया गया। नवाब साहब जो अपना अंज़ाम पता था।
जिस तरह से उन्होंने जंग के मैदान में अपनी वीरता के कारनामे दिखाए, उसी प्रकार बंदी बनाए जाने के बाद भी भरपूर साहस से काम लिया। वह समझ गए थे कि अब मौत के गले लगने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा। पंजाब में मॉन्टगुमरी के न्यायालय में उनपर मुक़दमा चल और उन्हें मृत्युदंड देकर लाहौर में फाँसी पर लटका दिया गया।
संदर्भ
उषा चंद्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1986, पेज न 71-72
नोट- उषा चंद्रा अपनी किताब, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद में नवाब साहब को नवाब नूर सनद ख़ान आता है। परंतु, दस्तावेजों में नवाब साहब का नाम नवाब नूर समद खान लिखा है।
नवाब नूर सनद ख़ान की तस्वीर उपलब्ध नहीं है, लेख में सांकेतिक तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है।
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