क्रांतिकारीयों में मास्साब के नाम से मशहूर, पं॰ गेंदालाल दीक्षित
देश को आजाद कराने के लिए क्रांतिकारियों ने अपना अमूल्य योगदान दिया। यद्यपि देश भर में क्रांतिकारी आंदोलन की व्यापक लहर फैली हुई थी। गदर दल का अलग ही आंदोलन चल रहा था जिसे रासबिहार बोस ने अन्य भारत में प्रचलित अन्य आंदोलन के साथ संयुक्त करने की कोशिश की, फिर भी कुछ छिटपुट आंदोलन ऐसे चल रहे थे, जिनका अन्य प्रचलित आंदोलन से प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। लेकिन अंग्रेजी राज की चूलें हिलाने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
बचपन में ही क्रांतिकारी पथ पर चलने का संकल्प कर लिया था पं गेंदालाल दीक्षित ने
ऐसे ही एक आंदोलन का नेतृत्व करने का उत्तरदायित्व पं गेंदालाल दीक्षित ने लिया, जिन्होंने बचपन से क्रांतिकारी पथ पर चलने का संकल्प ले लिया था। गेंदालाल दीक्षित को क्रांतिकारी द्रोणाचार्य मानते थे। उन्हें कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं था, पर मन की बात को आत्मा की चिनगारी से जलाकर वह निरंतर आगे बढ़ते रहे।
उनका जन्म आगरा जिले के एक गांव में 1886 में हुआ था। किसी तरह उन्होंने एंट्रेंस पास किया। वह और आगे पढ़ना चाहते थे, पर गरीबी के कारण नहीं पढ़ सके। आगरा मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ कर इटावा जिले की औरैया तहसील में डीएवी स्कूल के हेडमास्टर हो गए थे।
डी.ए.वी. स्कूल में कार्य करते हुए उनके मन में क्रांति की उमंग निरंतर उठती रहीं। उनको देश की नाजुक स्थिति पर बड़ा दुख होता था। गेंदालाल दीक्षित बंगाल और महराष्ट्र के क्रांतिकारी संगठन के संपर्क में धीरे-धीरे आ तो गए,पर उनका मन व्याकुल था कि किसी भी प्रकार इन क्रांतिकारियों से संपर्क कर आगरा में क्रांति की अलख जगाई जाए।
चंबल के डकैतों को भारत की आज़ादी के लिए बलिदान देने को प्रेरित किया
पं गेंदालाल दीक्षित ने एक समिति बनाई, जिसका नाम उन्होंने छत्रपति शिवाजी के नाम पर शिवाजी समिति रखा। इस समिति का उदेश्य देश को स्वतंत्र कराना था, उन्हीं उपयों से, जिनसे शिवाजी ने महाराष्ट्र को मुगलों की जंजीरों छुड़ाया था।
चंबल और जमुना के बीच बहुत से लोग डाकू बने हुए हैं और वह बड़े साहसी हैं। उन्हें अपने प्राणों की कोई परवाह नहीं है। वह शस्त्र चलाना भी जानते हैं, सजा से नहीं डरते है, उनका ध्यान स्वार्थी कार्यो की ओर से हटकर देश-सेवा की पर लग जाए तो बहुत लाभ हो सकता है। इसलिए वह बड़ी आशा के साथ डाकुओं की ओर बढ़े और उन्हें ब्रह्मचारी नामक एक व्यक्ति मिल गया, जो डाकुओं का सरदार था।
गेंदालाल दीक्षित को यह लगा कि अब उन्होंने वह व्यक्ति पा लिया, जिसके जरिए वह भारत को स्वतंत्र करा सकते हैं। यदि भारत के सारे डाकू संगठित हो जाएं और देश का कार्य करने पर तुल जाएं तो वह देश को स्वतंत्र करा सकेंगे। इसके अलावा धन की भी किल्लत नहीं रहेगी, क्योंकि जब धन की जरूरत होगी तो कहीं डाका डाल लिया जाएगा।
गेंदालाल दीक्षित डाकुओं का संगठन करने के साथ-साथ कुछ छात्रों को भी संगठित करने लगे। इस टोली का नाम मातृदेवी रखा गया और इसमें बहुत से शिक्षित घरों के लोग शामिल हुए, जिनमें राम प्रसाद बिस्मिल का नाम सबसे प्रमुख है। इसके अतिरिक्त औरैया के मुकंदीलाल भी इस दल में शामिल हुए। इस प्रकार एक दल खड़ा हो गया, जिसमें केवल शिक्षित लोग ही थे।
महान क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित के संगठन के बारे में क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने तारीफ करते हुए लिखा था- संयुक्त प्रांत का संगठन भारत के सब प्रांतों से उत्तम, सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था। क्रांति के लिए जितने अच्छे रूप में इस प्रांत ने तैयारी कर ली थी, उतनी किसी अन्य प्रांत ने नहीं की थी। संगठन में शामिल सैनिकों को देश के लिए मर मिटने की शपथ लेनी पड़ती थी। भाइयों आगे बढ़ो, फोर्ट विलियम छीन लो/जितने भी अंग्रेज सारे, उनको एक-एक बीन लो। यह नारा क्रांतिकारियों में एक नया जोश जागता था।
बाद में इस दल के लोगों पर मैनपुरी षड्यंत्र के नाम से मुकदमा भी चला। इस प्रकार गेंदालाल दीक्षित एक तरफ तो डाकुओं को संगठित करते रहे तो दूसरी तरफ स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में भी लगे रहे।
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क्रांतिकारी पं गेंदालाल दीक्षित का दुखद अंत
जल्द ही उनकी गिरफ्तारी भी हुई जिससे वह भाग निकलने में सफल भी हुए। जब गेंदालाल दीक्षित घर पहुंचे तो उनके घरवाले उनको देखकर खुश नहीं हुए। वह उनको पकड़वाना चाहते थे। गेंदालाल को इससे बहुत दुख हुआ पर साथ ही वह घरवालों से नाराज नहीं हुए। वह समझ गए पुलिसवालों ने जो आतंक फैला रखा है, उसीका नतीजा है, उसमें उनका कोई दोष नहीं है।
उन्होंने घरवालों को फ्रिक न करने को कहा और जल्द ही घर छोड़ कर दिल्ली पहुंच गए। अंग्रेज पुलिस से बचने के लिए दिल्ली में एक प्याऊ पर रहकर गेंदालाल ने लोगों को पानी भी पिलाया। वे इतने कमजोर हो चुके थे कि दस कदम चलने मात्र से मूर्छित हो जाते थे।
कुछ समय बाद उन्होंने अपने एक संबंधी को पत्र लिखा, जो उनकी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गये। तब तक उनकी दशा और बिगड़ चुकी थी। पत्नी यह देखकर रोने लगी। वह बोली कि मेरा अब इस संसार में कौन है ? पंडित जी ने कहा, ‘‘आज देश की लाखों विधवाओं, अनाथों, किसानों और दासता की बेड़ी में जकड़ी भारत माता का कौन है ? जो इन सबका मालिक है, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।’’
उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया। वहीं पर मातृभूमि को स्मरण करते हुए उन नरवीर ने 21 दिसम्बर, 1920 को प्राण त्याग दिये। गेंदालाल जी जैसे पं गेंदालाल दीक्षित इस दुनिया से चले गए और किसी को पता भी नहीं चला जबकि उनकी इच्छा थी कि मेरी मौत गोली से हो।
गेंदालाल दीक्षित के संबंध में किसी को कुछ भी पता न लगता, यदि उनके शिष्यों में रामप्रसाद बिस्मिल और मुकंदीलाल न होते, जिन्हें आगे चलकर काकोर षडयंत्र केस में सजा हुई। रामप्रसाद बिस्मिल ने गणेश शंकर विद्यार्थी संपादित प्रभा नाम के मासिक पत्रिका में गेंदालाल दीक्षित पर कुछ लेख लिखे थे, उन्हीं के आधार पर और रामप्रसाद बिस्मिल से सुनकर ही उनकी जीवनी का ब्योरा पहली बार 1938 में मन्मथनाथ गुप्त ने प्रस्तुत किया था।
संदर्भ
Shah Alam , Commander-In-Chief Gendalal Dixit, chambal foundation, 2020
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में