वतन पर अंग्रेजी हकूमत बर्दास्त नहीं करने वाले मौलाना फ़जले हक़ ख़ैराबादी
मौलाना फ़जले हक़ ख़ैराबादी अपने ज़माने के एक बड़े रईस थे और बड़े आलिम थे। अरबी के शायर थे और इस मैदान में अरब तक में उनका लोहा माना जाता था।
उनकी मौत कालेपानी की एक अंधेरी कोठी में हुई, क्योंकि उनको अपने देश से मुहब्बत थी और अपने देश पर वह किसी दूसरे की हकूमत बरदाश्त नहीं करने को तैयार नहीं थे।
अंग्रेजी ख़ुशामद के लिए तैयार नहीं हुए मौलाना फ़जले हक़
मौलाना फ़जले हक़ का जन्म सन 1767 में ख़ैराबाद में हुआ और उनकी परवरिश दिल्ली में हुई। तालीम चार साल के उम्र में शुरू हुई। थोड़े बड़े हुए हिन्दुस्तान के मशहूर इन्क़लाबी और अपने ज़माने के सबसे बड़े आलिम शाह के पास पढ़ने के लिए जाने लगे।
तेज़ दिमाग और अच्छी याददाश्त होने के वज़ह से मौलाना का दिमाग़ ख़ूब चलता था। नतीजा यह हुआ कि 1896 में सिर्फ़ 13 साल के उम्र में उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली।
जब कुछ और बड़े हुए, तो अग्रेज़ रेज़ीडेन्ट की अदालत में सरकारी नौकरी शुरू की। बादशाह अकबर शाह और रेज़ीडेन्ट दोनों ही मौलाना को बहुत मुहब्बत की नज़र से देखते थे।
इसी ज़माने में शायरी का शौक़ हुआ, लेकिन उर्दू, फ़ारसी को छोड़कर अरबी में शायरी करते थे। मशहूर शायर मोमिन और ग़ालिब साहब के साथ मौलाना का उठना-बैठना था। नौकरी से जो वक़्त बचता था वह शायरी और लिट्रेचर की चर्चा में ख़र्च हुआ करता था।
कुछ दिन बाद दिल्ली में एक नया रेज़ीडेन्ट आया, तो उसने अपने महकमें का नाज़िम मौलाना को मुक़रर्र किया। 1827 में जब वह विलायत के लिए चला, तो मौलाना मुफ्ती बनाए गये।
लेकिन इसके बाद के अफ़सरों से नहीं पट सकी। अंग्रेज जैसी ख़ुशामद चाहते थे मौलाना वैसी ख़ुशामद नहीं कर सकते थे। मौलाना को पहली बार ग़ुलामी की बुराई महसूस हुई और अग्रेजों की नौकरी उनको ज़िल्लत मालूम होने लगी।
दिल्ली से बाहर-इसी नाराज़गी की वज़ह से मौलाना को सरकारी वकील बनाकर इलाहाबाद भेजा गया। बहादुर शाह जफ़र उस समय वली अहद यानी युवराज थे। मौलाना जब दिल्ली से जाने लगे तो उन्होंने अपना क़ीमती शाल मौलाना को उढ़ा दिया और नम आंखों से विदा किया।
मौलाना कुछ दिनों सरकारी वकील की हैसियत से काम करते रहे, लेकिन अंग्रेजों की तरफ़ से अब तक बेदिल हो चुके थे। नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।
रियासतों के नौकरी में कभी दिल नहीं लगा
मौलाना के इस्तीफ़े की ख़बर जैसे ही फैली, झज्झर के नवाब फ़ैज़ मुहम्मद साहब ने पांच सौ रुपया माहवार पर फ़ौरन मौलाना को अपने यहाँ बुला लिया। मौलाना कुछ दिनों वहीं रहे। इसके बाद अलवर चले गये। वहाँ भी जी न लगा तो सहारनपुर पहुँचे और फिर टोंक के नवाब वज़ीरुद्दौला के यहाँ भी कुछ दिन तक रहे।
मौलाना रियासतों में इसलिए घूम रहे थे क्योंकि वह इन रईसों और नवाबों को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए तैयार करना चाहते थे लेकिन इस रियासतों का ख़ून सर्द हो चुका था, जिससे मौलाना को बड़ी निराशा हुई और फिर लखनऊ में आकर बड़े जज के ओहदे पर काम करने लगे।
लखनऊ में इस वक़्त नवाब वाजिद अली शाह की हुकूमत थी, लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजों के पंजों में यह रियासत भी कसती चली जा रही थी। नवाब साहब को अपनी रंग रलियों से ही फ़ुरसत नहीं थी फिर राजकीय कामों में कौन दिमाग़ ख़र्च करे।
नतीजा यह हुआ कि मौलाना का दिल यहाँ से भी ऊब गया और अच्छी भली नौकरी छोड़ कर रामपुर की राह ली। वहाँ कुछ दिनों तक नवाब यूसूफ़ अली को पढ़ाते रहे।
आजादी की लड़ाई के मैदान में मौलाना फ़जले हक़
मौलाना अब ख़ामोश नहीं बैठना चाहते थे। वह फ़ौरन दिल्ली के तरफ़ चल दिये और रास्ते में बड़े-बड़े जमींदारों से मिलते गये और उनको यह समझाते गये कि इस वक़्त आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने में ही उनकी भलाई है।
मौलाना को जैसे ही मालूम हुआ कि दिल्ली अब आज़ाद हूकूमत के हाथ में है तो वह फ़ौरन दिल्ली पहुँचे और बादशाह से मिले। शाही दरबार के मुन्शी जीवनलाल के रोज़नामचे में कई जगह मौलाना का ज़िक मिलता है और उससे यह भी मालूम होता है कि मौलाना बराबर बादशाह के मशविरों में शरीक हुआ करते थे।
लेकिन उस वक़्त दिल्ली की जो हालत थी उससे मौलाना को बड़ी तकलीफ़ हुई। ख़ुद शहज़ादों की भी हालत यह थी कि दिन रात लूट खसोट पर उनकी नज़र रहती थी। गुन्डे, बदमाशों की बन आई थी और नाक़ाबिल लोग बड़े-बड़े ओहदों पर क़ब्ज़ा करके बैठ गये थे।
इस हालत में भी रुहेलों की फ़ौज, जिनका जनरल बख़त ख़ां था, सच्चे दिल से सच्चे जज़्बे से लड़ाई में शरीक थे। इसी तरह का भरोसे लायक़ एक दूसरा संगठन मुजाहिदों का था, जिसकी बागडौर वलीउल्लाही मौलवियों के हाथों में थी।
यह लोग अक्सर मौलाना से मिलते रहते थे। ख़ास तौर पर जनरल बख़्त ख़ां मौलाना से मशविरा करके ही कोई काम करते थे, लेकिन शाहज़ादा मिर्ज़ा मुगल के सामने बेचारे बख़्त ख़ां की कुछ नहीं चलती थी। कुछ दिन बाद हालत यहाँ तक बिगड़ी कि मिरज़ा इलाही बख़्श ने बादशाह से कम्पनी के पास माफ़ी का ख़त तक भिजवा दिया, लेकिन अंग्रेज़ों ने उस पर भरोसा नहीं किया।
आख़िर बख़्त ख़ां के कहने पर मौलाना ख़ुद आगे बढ़े। जुमें के नमाज़ के बाद उन्होंने लम्बी तक़रीर जाम मस्जिद में की और एक फ़तवा पेश किया, जिसके मुताबिक़ इस लड़ाई में शरीक होना हर एक मज़हबी आदमी का फ़र्ज़ था।
इस फ़तवे का जादू जैसा असर हुआ और क़रीब नब्बे हज़ार सिपाही बादशाह के झंडे के नीचे आ गये। मौलाना ने अपने तरफ़ से काफ़ी ज़ोर लगाया। लेकिन इलाही बख़्श जैसे दग़ाबाज़ के कारण 16 सितंबर 1857 को कम्पनी की फ़ौज ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया।
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ख़ाना बदोशी की ज़िन्दगी बिताते रहे मौलाना फ़जले हक़
दिल्ली पर कम्पनी का क़ब्ज़ा होते ही मौलाना के तमाम अरमान मिट्टी में मिल गये। मौलाना ने जो फ़तवा दिया था उसकी ख़बर मुख़बिरों के ज़रिये अंग्रेजों को लग चुकी थी और मौलाना की बड़े ज़ोरों से तलाश की जा रही थी।
उसी हालात में 24 सितंबर 1857 को मौलाना अपने ख़ानदान को लेकर चुपचाप दिल्ली से निकल गए और भीकमपुर ज़िला अलीगढ़ के नवाब के यहाँ पनाह ली। वहाँ करीब 18 दिन रहे। इसके बाद नवाब साहब ने भीकमपुर से करीब 8 मील दूर सांकरा के घाट से मौलाना और उनके ख़ानदान को बदायूं की तरफ़ उतरवा दिया।
मौलाना क़रीब दो साल तक इधर-उधर ख़ानाबदोशी की ज़िन्दगी बिताते रहे। लेकिन कुछ ही दिन बाद विक्टोरिया का आम माफ़ी का एलान हुआ। इस पर मौलाना ज़ाहिर हो गये और अपने घर ख़ैराबाद में जाकर रहने लगे। मौलाना सरकारी फ़ेहरिस्त के उन लोगों में थे, जिनको माफ़ी नहीं दी गई थी। इसलिए कुछ ही दिन बाद मौलाना गिरफ़्तार कर लिये गये और लखनऊ जाकर उन पर मुक़दमा चलया गया।
मौलाना ने ख़ुद ही अपनी पैरवी की। जज मौलाना का एक पुराना शार्गिद था और मुख़बिर पर भी कुछ इस तरह का असर था कि शनाख़्त के वक़्त उसने कह दिया कि फ़तवा देने वाले फ़जलेहक़ यह नहीं हैं, इनको मैं नहीं जानता।
इस तरह मौलाना के छूटने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन मौलान को यह झूठ गवारा न हुआ। उन्होंने अपने आख़िरी बयान में कहा कि मुख़बिर ने किसी वज़ह से मेरी शनाख़्त नहीं की है, लेकिन फ़तवा मैंने ही दिया था और आज भी मेरी वही राय है।
जज और गवाह हैरान थे और घर वाले परेशान थे, लेकिन मौलाना ने बात बदलने से इन्कार कर दिया। मौलाना को उम्मीद थी कि फ़ांसी की सज़ा मिलेगी, लेकिन जज ने रिआयत की और कालेपानी की सज़ा दी। मौलाना की यह हिम्मत देखकर सब दंग रह गए।
और अन्त मौलाना फ़जले हक़ का कालेपानी में
मौलाना को काले–पानी पहुँचा दिया गया। वहाँ और भी बहुत से मौलवी थे। उन्होंने इनको हाथो-हाथ लिया। लेकिन मौलाना वहाँ दिन रात तड़पते रहते थे।
कालेपानी में लिखी हुई उनकी किताब सूरतुल हिन्दिया आंसुओं का एक बहता हुआ चश्मा है जिसमें एक-एक हरफ़ में मौलाना की तड़प मौजूद है। यह किताब कपड़ों पर कोयलों से लिखी गई और बड़ी मुश्किल से हिन्दुस्तान तक आई।
इधर मौलाना की रिहाई की कोशिश भी हो रही थी। आख़िर मौलाना के बेटे शम्सुलहक़ रिहाई का परवाना लेकर अंडमान रवाना हुए और जहाज़ से उतर कर जब शहर में गये तो देखा कि एक जनाज़ा चला आ रहा है जिसके साथ बहुत भीड़ है।
पूछने पर मालूम हुआ कि कल मौलाना फ़ज़लेहक़ साहब का इन्तिक़ाल हो गया और अब दफ़न करने के लिए ले जाया जा रहा है। मुसाफ़िर अपनी आख़िरी मंज़िल पर पहुँच गया था।
संदर्भ
रतनलाल बंसल फ़ीरोज़ाबादी, मुस्लिम देश भक्त, देश सेवा प्रेस, इलाहाबाद, 1949, पेज-87-91
नोट: मौलाना फ़जले हक़ ख़ैराबादी की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है, लेख में सांकेतिक चित्र का इस्तेमाल किया गया है।
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