बाबू कुंवर सिंह के गुमनाम कमांडर, जुल्फिकार अली
इतिहास गवाह है कि युद्ध भूमि में सम्मान हमेशा उन सेना नायकों को मिलता है जो नेतृत्व करते है। परंतु, सेना नायकों को युद्ध में सफलता उनके सेना कमांडर दिलवाते है जिसको वह सम्मान नहीं मिल पाता जिसके वह हकदार है। प्रसिद्ध देना नायकों के जांबाज कमांडर या योद्धा इतिहास के पन्नों से गुम हो जाते है या फिर पूरा सम्मान पाने की जद्दोजहद में संघर्ष करते रहते है। इतिहास की यह विडंबना है कि कई वीरों को उतना सम्मान नहीं मिल सका जितना षडयंत्रकारियों को मिला। परंतु, यह वीर और जांबाज योद्धा जीवित रहते है लोगों के बीच लोककथाओं में, उनकी स्मृतियों में, कभी –कभी लोक गीतों में भी…..
आज बात उस जांबाज योद्धाओं के बारे में, जिनकी दिलेरी ने बिहार में बाबू कुंवर सिंह को इतिहास में अमर कर दिया और खुद गुमनामी में खोकर रह गए काजी जुल्फिकार अली। काजी जुल्लिकार अली तो वह इतिहास पुरुष हैं जो अपने आप में इतिहास को समेटे हुए हैं, लेकिन इतिहास के पन्नों में गुम हैं। बहुत संभव यह भी है कि आज की पीढ़ी ने जुल्फिकार अली का नाम भी नहीं सुना होगा? देश में बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव से चिंतित और दिन-रात धर्मनिरपेक्ष का राग अलापने वाले लोगों को शायद मालूम भी नहीं है कि जुल्फिकार अली कौन थे?
बाबू कुंवर सिंह के कमांडर थे जुल्फिकार अली
बाबू कुंवर सिंह के कमांडर जुल्फिकार अली को इतिहास के वीराने से खोज निकालने का काम पटना में रहने वाले पत्रकार संजय कुमार ने किया है और अपनी किताब जुल्फिकार अली 1857 के गुमनाम योद्धा किताब में दर्ज किया है, जो किकट प्रकाशन से छपी है
इतिहास गवाह हैं कि 1857 विद्रोह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक योद्धा बाबू कुंवर सिंह, जिन्होंने बिहार में 1857 के भारतीय विद्रोह का नेतृत्व किया था। वे लगभग 80 वर्ष के थे। उनकी लड़ाई में कई क्रांतिकारियों ने उनका साथ दिया था जिनका नाम इतिहास में गुम है। इन्हीं में एक नाम है मौलवी काजी शेख मोहम्मद जुल्फिकार अली।
बाबू कुंवर सिंह के विश्वासपात्र सहयोगियों में मौलवी काजी शेख मोहम्मद जुल्फिकार अली का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। जुल्फिकार अली ने बाबू कुंवर सिंह के आदेश पर सेनापति का कार्यभार संभाला था। जुल्फिकार अली तेज तर्रार युवा यौद्धा एवं कूटनीति में माहिर व्यक्ति थे। उन्होंने देशभक्त वीरों की टुकड़ी तैयार कर खुफिया विभाग बनाया था और उसका सफलतापूर्वक संचालन किया था। इसलिए बाबू कुंवर सिंह उनका सम्मान करते थे।
उन्होंने नगवां गांव में राजपूत रेजिमेंट का गठन किया। इस रेजिमेंट ने मेरठ, गाजीपुर, बलिया आदि जगहों पर छापामार युद्ध कर अंग्रेजों को खूब छ्काया।
जुल्फिकार अली के वंशज
जुल्फिकार अली के बारे में दस्तावेज, बताते है कि जुल्फिकार अली ने वशंज को मुगल शासन ने काजी नियुक्त किया था। दस्तावेजों के अनुसार, काजी जुल्फिकार अली के वंशज सोवियत संघ के बल्ख से बिहार, भारत आए थे जो अब रूसी महासंघ में है। इसलिए इसके नाम के अंत में बल्खी जुड़ा हुआ है।
मुगल सम्राट अकबर के समय कई विदेशी यात्री भारत आए थे। उनसे कई अति बुद्धिमान और योग्यता वाले व्यक्ति थे। उनमें से कई को प्रशासन की विभिन्न विभागों में रख लिया गया था। इन्हीं में से एक नाम शेख सदर जहान फारूकी बल्खी, जो बल्ख से आए थे। जुल्फिकार के वंशज शेख सदर जहान, मदीना के दूसरे खलीफा हजरत उमर फारूखी के वंशज थे। जुल्फिकार अली शेख सदर जहान फारूकी के वंशज सूची में आठवें स्थान पर हैं।
अकबर ने शेख सदर जहान फारूखी बल्खी के गुण, विद्धता और प्रखर बुद्धि को देखकर अपने प्रशासन विभाग में रख लिया था। अकबर के बाद शाहजहां ने शेख सदर जहान फारूखी बल्खी के पोते गयासुद्दीन फारुखी बल्खी को जहानाबाद भेजा। 1654-55 में जहानाबाद में आबादी नाम की कोई चीज नहीं थी, जमीन बंजर थी, शाहजहां ने यहां मसौढ़ी में बंद पड़े एक मस्जिद के बाहर नमाज पढ़ी थी और यहां गयासुद्धीन फरुखी बल्खी को प्रशासन का सारा काम संभालने को कहा। उन्हें प्रशासनिक एंव न्यायिक अधिकार भी दिया गया।
काजी जुल्फिकार अली दौलतपुर के रहने वाले थे। 1857 की क्रांति की पूरी तैयारी में वह सक्रिय थे, इसकी जानकारी बाबू कुंवर सिंह के 1856 में लिखे पत्र में मिलती है जो कैथी लिपि में मिलती है जिसमें बार-बार युद्ध मीटिंग जैसी बातों का जिक्र मिलता है। इन खतों से यह भी पता चलता है कि 1857 की क्रांति केवल एक फौजी क्रांति नहीं थी यह बाबू कुंवर सिंह और जुल्फिकार अली जैसे देशभक्तों की लम्बी रणनीति का हिस्सा था।
बाबू कुंवर सिंह का पहला पत्र जुल्फिकार अली ने नाम मई 1856 को लिखा पत्र जो कैथी भाषा में लिखा गया था, उसका हिंदी अनुवाद
बेरादर जुल्फिकार
उस दिन के जलसे में जो बातें तय हुई वह तुम्हारे श्सरीक होने की वजह से हुई। अब वक्त आ गया है कि हम लोग अपनी तैयारी जल्दी करें। अब भारत को हम लोगों के खून की जरूरत है। तुम्हारी मदद से हम लोग इस तरह बेफिकर हैं, यह पत्र तुम्हें कहां से लिखा जा रहा है, तुम्हें खत देने वाला ही बताएगा। तुम्हारी अंगुसतरी मिल गई है। इससे सब हल मालूम हो गया। इससे हस्तार तलब करना तब जवाब पत्र दोगे। 15 जून को जलसा है। इस जगह तुम्हारा रहना जरूरी है। हम लोगों का आखिरी जलसा होगा। इससे सब कामों को मूर्तब कर लेना है।
मिनजानिब कुंवर सिंह
मुहर कुंवर सिंह
बारू जसवंत सिंह
बाबू कुंवर सिंह का दूसरा पत्र जुल्फिकार अली के नाम पत्र :-
अगस्त 1856
अजीज जुल्फिकार,
वक्त आ गया है। वो मेरठ कासिद रवाना हो, वहां ही इत्तला का इंतजार है। करवाई मोर्तब कर लिया गया। तुम होशियार हो। वो काम अंजाम हो। हम लोग की फ़ौज तैयार है। इधर से हम और उधर से तुम चलना। वहां अंग्रेजी फौजी थोड़ी है। आखिरी इशारे का इंतजार करना।
मिनजानिब कुंवर सिंह
मुहर कुंवर सिंह
बारू जसवंत सिंह
बाबू कुंवर सिंह का तीसरा पत्र जुल्फिकार अली ने नाम के नाम पत्र :-
9 जनवरी 1857
अजीज जुल्फिकार,
अफसोस मेरा ठीक हाल मालूम हुआ होगा। दिल्ली को रवाना हो चुके। हम लोगों को अपनी जान की बाजी लगा देना है। वक्त करीब है मगर मैदान में मरना अच्छा है। अफसोस तुम्हारे बारे में असल अली ने इत्तला कर दिया है। हमारा आदमी वहां मौजूद था। वह अंग्रेजों से मिला हुआ है, अंग्रेजी फौज उस तरफ जा रही है, सो तुम इस खत को देखते ही घर छोड़ दो और हमसे जहां यह निसान बल लगाया मिल जाओ। भगवान पर सब कुछ छोड़ दो। जिंदा गिरफ्तारी से बेहतर हम लोगों की लाश भी अंग्रेजों को न मिले। भगवान तुम्हारी रक्षा करेगा। इस फकीर से निसान तलब करना। हम भी वहीं रवाना हो रहे हैं। तुम फौरन पहुंच जाओ।
मिनजानिब कुंवर सिंह
मुहर कुंवर सिंह
बारू जसवंत सिंह
पहले पत्र से ही जाहिर होता है कि क्रांति की ज्वाला एक वर्ष पूर्व ही भड़क चुकी थी। योजनाएं पहले से ही बन चुकी थी। बस सही समय की तलाश थी। बाबू कुंवर सिंह का जुल्फिकार अली को लिखा तीसरा पत्र प्रेरणादायक और स्फूर्तिदायक है, स्वयं को देश के लिए समर्पित कर देने के लिए। इतना ही नहीं, लाश का अंग्रेजों का स्पर्श भी अपमानजनक है। इतिहास गवाह है कि कुंवर सिंह और जुल्फिकार अली ने इसका पालन भी किया।
जुल्फिकार अली के वंशज काजी अनवर अहमद बताते है कि जुल्फिकार अली ने 1857 के संग्राम के पूर्व ही अपनी फौज को पूरी तरह से तैयार किया था और बाबू कुंवर सिंह का संकेत मिलते ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जेहाद बोल दिया था। वह बताते है कि 1856 में वीर कुंवर सिंह के निर्देश पर जुल्फिकार अली अगस्त 1856 में मेरठ कूच पर गए थे। रास्ते में उन्हें विपरीत मौसम और परिस्थितियों में ब्रिटिश फौज का सामना करना पड़ा था। उस जंग में मात खाकर वे जुल्फिकार अली दौलतपुर लौट आये और फिर फौज को संगठित किया। पुन: तैयारी की और जनवरी 1857 की जंग-आज़ादी में कूद पड़े। इस बार उन्हें हारकर लौटना मंजूर नहीं था। अंतिम दम तक अंग्रेजी सेना को रौंदते हुए वे शहीद हुए।
दिल्ली प्रस्थान करते समय रास्ते में अंग्रेजों के साथ सैनिक झड़प में जुल्फिकार अली की मौत हो गई थी। मौत के बाद उनका शव नहीं मिला था। इसलिए शहादत की सही तारीख नहीं मिलती है।
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मरने के बाद जुल्फिकार अली पर मुकदमा
विद्रोह के मद्देनज़र अंग्रेजों ने जुल्फिकार अली सहित उनके कई सिपाहिंयों पर गया में एक्ट 14 आंफ 1857 गया के तहत मुकदमा चलाया और घर संपत्ति जब्त कर ली थी। जुल्फिकार के मरणोपरांत मुकदमा चला। कहा जाता है कि अंग्रेजों के साथ भिंड़त हुई थी जिसमें वह शहीद हुए। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत मानने को तैयार नहीं थी, उन्हें भूमिगत मानती थी। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। दोषी करार दिया और संपत्ति जब्त-कुर्क कर नीलाम कर दिया।
जिसकी जानकारी गया जिले अभिलेख कार्यालय के खंड संख्या 24, पेज न. 88-89 से 11 फरवरी 1857 से 14 जून 1858 के बीच तक भेजे गए विविध पत्रों से मुकदमे का निष्कर्ष से मिलती है। इस पत्र को ई.जे.लौटोर एस्क्वायर, कमीशनर, एक्ट 14 आंफ 1857 गया को मजिस्ट्रेट डब्लू. बल्टर ने लिखा था।
अंग्रेजों ने जुल्फिकार अली के ऊपर मुकदमा चलाया और घर संपत्ति जब्त–कुर्क, फिर नीलाम करने के बाद उनके परिवार पर जुल्म ढहाना शुरू किया। जिससे परेशान होकर जुल्फिकार अली के वंशज अपने यहां काम करने वाले महादेव दास के यहां भूमिगत होकर रहने को विवश हुआ।
जुल्फिकार अली का परिवार 1857 से 1900 तक भूमिगत रहा। महात्मा गांधी जब भारत के राजनीति में सक्रिय हुए तब जुल्फिकार अली का परिवार आजादी के आंदोलन में खुलकर सामने आया। परंतु, आज भी देश के आजादी के लिए शहीद जुल्फिकार अली को वह सम्मान नहीं मिल सका है, जिसके वह हकदार थे।
संदर्भ
संजय कुमार, जुल्फिकार अली, 1857 के गुमनाम योद्धा, कीकट प्रकाशन, पटना, बिहार
नोट: जुल्फिकार अली की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है इसलिए सांकेतिक तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है
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