गांधी ने क्यों कहा था, नेहरू ही होगा मेरा उत्तराधिकारी
जवाहर ही मेरा उत्तराधिकारी होगा- महात्मा गांधी
[ इस भाषण की पृष्ठभूमि में कांग्रेस वर्किंग कमेटी का वह प्रस्ताव है जो कि उसकी बैठक में 30 दिसंबर, 1941 को परित किया गया था।द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की साझेदारी होने की घोषणा ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से पूछे बिना कर दी गई थी। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि युद्ध के समाप्ति के बाद भारत की स्वाधीनता के सवाल को नज़रअंदाज कर दिया गया था। इस सबसे देश में बहुत बैचेनी थी और लोग गांधी के व्यक्तिगत सत्याग्रह की नीति से असन्तुष्ट हो रहे थे।
बारडोली का प्रस्ताव जनता के इस मूड को समझकर तैयार किया गया था। यह प्रस्ताव एक तरह से कांग्रेस पार्टी और भविष्य में बननेवाली स्वाधीन भारत की सरकार के लिए कट्टर अहिंसावाद की नीति से कुछ हटकर सोचने की पहल भी करता था। इसके पीछे मुख्य दिमाग नेहरू का था और उन्होंने आल इंडिया कांग्रेस कमेटी की जनवरी 1942 में वर्धा में हुई मींटिग में इसका ज़ोरदार समर्थन करते हुए प्रस्ताव के विरोधियों पर तीखा हमला भी बोला।
आन्दोलन हेतू पूर्ण अहिंसा का पालन और यहाँ तक कि भविष्य में राज्य संचालन हेतु भी पूर्ण अहिंसात्मक नीति पर ही चलने की विवशता, इन दोनों बिन्दुओं पर नेहरू की नीति पर ही चलने की विवशता- ने बिन्दुओं पर नेहरू की आलोचना इतनी तीखी थी कि उसने राजेन्द्र प्रसाद तक को विचलित कर दिया जैसा कि गांधीजी खुद इस भाषण में नोट करते हैं।
यह सन्दर्भ ध्यान में रखने से गांधीजी के इस ऐतिहासिक कथन का मर्म खुलता है कि- जवाहर ही मेरा उत्तराधिकारी होगा, और गांधीजी के इस भरोसे की वजह समझ में आती है कि जब मैं नहीं रहूँगा तब जवाहर वही करेगा जो मैं आज कर रहा हूँ, वह मेरी भाषा ही बोलेगा।]
मैं आपको यह समझाना चाहता हूँ कि आप इस प्रस्ताव पर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति में वोट लेकर उसमें फूट न पैदा करें। इसका एक कारण यह है कि मैं दुनिया में कांग्रेस की हँसी नहीं होने देना चाहता। हम कोरी तख्ती पर नहीं लिख रहें हैं। हमारे नेताओं में एक फ़ैसला किया है। उसका असर सारी दुनिया पर हुआ है। इस बात की ज़रा भी परवाह न करके उस फ़ैसले को बदल देना अक़्लमन्दी न होगी। इससे दुनिया में कांग्रेस की हंसी होगी। दुनिया यह आशा रखती है और उसे यह आशा रखने का हक है कि जो फ़ैसला कार्यवाहक मंडल ने किया था उसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी बहाल रखेगी। उसको बदलने के लिए आज हमारे पास कारण नहीं है। जो लोग मुझसे आगे बढ़कर अहिंसा को कायम रखने के लिए एक नया प्रस्ताव लाना चाहते हैं, उनसे मैं कहूँगा कि एक तरह से यह आपको शोभा देता है। अगर आप अहिंसा को घोंट-घोंटकर पी गए हैं, तो आपके पीछे-पीछे मैं चलूंगा और मौलाना साहब भी। परन्तु मैं देखना चाहता हूँ कि वह बात तो आप में आज नहीं है। मेरा नेतृत्व कायम रखने के लिए अगर आप कोई दूसरा प्रस्ताव लावें तो वह न सिर्फ एक बड़ी बेवकूफ़ी की बात होगी, बल्कि वह हिंसा भी होगी। इसलिए यह प्रस्ताव चाहे कितना ही अपूर्ण क्यों न हो, आपको इसे क़बूल कर लेना चाहिए।
कोई न समझे कि यह हमारे बीच की फूट का सूचक है। जैसा कि मौलाना साहब ने कहा है, एक कुटुम्ब के आदमियों की तरह इकट्ठे होकर कार्यवाहक मंडल ने यह फ़ैसला किया है। मुझे किसी ने कहा कि जवाहरलाल मेरे पंजे में आकर फँसा है, तब वह मुझसे झगड़ता ही रहा है। परन्तु जैसे पानी में कोई चाहे कितनी ही लकड़ी क्यों न पीटे, वह पानी को अलग नहीं कर सकता, वैसे हमें भी कोई अलग नहीं कर सकता। मैं हमेशा से कहता आया हूँ कि अगर मेरा वारिस कोई है तो वह राजाजी नहीं, सरदार वल्लभ भाई नहीं, जवाहरलाल है। वह जो जी में आता है, बोल देता है, मगर काम मेरा ही करता है। मेरे मरने के बाद वह मेरा सब काम करेगा। तब मेरी भाषा ही बोलेगा। आखिर हिन्दुस्तान में ही पैदा हुआ है न। हर रोज़ वह बहुत कुछ सीखता है। मैं हूँ तो मुझसे लड़ लेता है। परन्तु मैं चला जाऊंगा तो लड़ेगा किससे? और लड़ेगा तो उसे बर्दाश्त कौन करेगा? आखिर मेरी भाषा भी उसे इस्तेमाल करते ही बनेगी ऐसा न भी हो तो भी कम-से-कम मैं तो यहीं श्रद्धा लेकर मरूंगा।
इस प्रस्ताव को क्रायम रखने के लिए एक दूसरा कारण भी है। वह यह कि इत्तेफाक़ से यह प्रस्ताव कांग्रेस का आईना बन गया है। हर कांग्रेसवादी इसमें अपना चेहरा देख सकता है। मैं अपना देख सकता हूँ, राजेन्द्र बाबू, बादशाह ख़ान, और सरदार- सब अपना-अपना चेहरा इसमें देख सकते हैं। सारी ज़िंदगी सरकार को गाली देनेवाला भी इसमें अपना चेहरा देख सकता है और सरकार के साथ फ़ैसले की इच्छा करने वाला भी।
यह प्रस्ताव किस तरह से बना यह बताने में मौलाना साहब ने भूल की। जवाहरलाल ने जो प्रस्ताव तैयार किया था वह यह नहीं है। इसमें काफी कांट-छांट हुई है। राजाजी की क़लम भी इसपर चल चुकी हैं। जवाहरलाल के बारे में वैसे ही लोगों का यह ख्याल हो गया है कि वह अपनी आन को कभी छोड़ता नहीं। कम-कम-कम आज उसको यह प्रमाणपत्र नहीं मिल सकता। वह काफी झगड़ लेता है, मगर काम के वक़्त काफी समझौता भी वह कर सकता है। सबको साथ लेकर यह प्रस्ताव तैयार किया गया है। कार्यवाहक मंडल के सब सदस्यों के विचार इसमें प्रतिबिम्बित हैं। खिचड़ी की तरह इसमें दाल भी है,चावल भी है, नमक, मिर्च और मसाला भी है। कार्यवाहक मंडल में जो मतभेद था वह मौलाना साहब ने आपके आगे रखा।
हमारे बीच में कई पक्ष हैं। एक पक्ष का प्रतिनिधि जवाहरलाल है। उसका युद्ध सम्बन्धी विरोध मेरे जितना ही कड़ा है, हालांकि उसका कारण मुझसे जुदा है। वह यह बात क़बूल नहीं करेगा कि प्रस्ताव करके उसने अपनी बात को कुछ भी छोड़ा है। परंतु जवाहरलाल खुद यह क़बूल करेगा कि राजाजी वाला पक्ष इसमें दूसरी चीज़ देख सकता है। मूल प्रस्ताव में राजाजी-जैसे विचार रखनेवालों के लिए काम करने की जगह नहीं है। अगर सरकार कांग्रेस की शर्त मान ले तो राजाजी युद्ध में हिस्सा लेना चाहेंगे। इसके वास्ते उन्होंने अब अपने लिए एक छोटा सा सूराख बना लिया है। इस सूराख में राजाजी जवाहर जो अपनी तरफ खींचने की कोशिश करेंगे और जवाहर राजाजी को अपनी तरफ खीचने की।
इस प्रस्ताव के बाद सरकार या कांग्रेस के टीकाकारों को यह कहने का मौक़ा नहीं रहता कि कांग्रेस में अहिंसा के दार्शनिक सिद्धांन्त के कारण हमने समझौते का दरवाज़ा बंद कर दिया है। अब कांग्रेस की वाजिब शर्तो को स्वीकार करके उसे युद्ध में शरीक़ करने के लिए राजी करने की सारी जिम्मेदारी सरकार के कंधों पर आ जाती है। यह बात तो ठीक है कि हमने किसी बड़े परिणाम की आशा नहीं करनी चाहिए। परन्तु इस प्रस्ताव के फलस्वरूप दुनिया में अब कोई कांग्रेस पर यह आक्षेप नहीं कर सकता है कि वह सिद्धान्तवादियों की एक संस्था है। आज कांग्रेस में एक ऐसा पक्ष भी है, जो अगर सरकार कोई समझौता करने को तैयार हो कि जिसमें देश के स्वाभिमान की पूरी-पूरी रक्षा हो सके, तो उसका खुशी से स्वागत करे। इसलिए यह ज़रूरी था कि ऐसे पक्ष लिए भी कांग्रेस जगह कर दे। आखिर में कौन किसको खींच लेगा यह देखने की बात है। कोई भी किसी को खींच ले, इसमें आपको क्या आपत्ति हो सकती है? नहीं होने चाहिए।
एक तरह जो भी इसमें सब विचार के लोगों के लिए गुंजाइश रखी गई है, तो भी इसमें किसी तरह की धोखेबाजी नहीं। जुदा-जुदा प्रकार की बुद्धि रखने वाले एक-दूसरे के दिमाग पर असर डाल सकें, इसका सुभीता देना इस प्रस्ताव का हेतु है। इस दृष्टि से मैं इस प्रस्ताव को देखता हूँ। जवाहरलाल के लिए इसमें थोड़ी जगह है, तो थोड़ी राजाजी के लिए भी, वैसे ही राजेन्द्र बाबू के लिए और मेरे जैसे के लिए भी।
राजेन्द्र बाबू के लिए इस प्रस्ताव में जगह कैसे है? भविष्य के बारे में कुछ कल्पना आज हमने कर ली है। वह उनको चुभती है। परन्तु भविष्य में हम क्या करेंगे इसका फ़ैसला आज हम थोड़े ही करके बैठ गए है? जब हिंन्दुतान आज़ाद होगा तब इस प्रस्ताव के अनुसार हम अपनी हिफ़ाजत शस्त्र से कर सकते हैं। वैसे चीन, रूस की मदद भी करनी हो तो वैसा करने की छूट यह प्रस्ताव हमें देता है। हमारी अंग्रेजों से कोई अदावत नहीं है न ही जर्मनी इटली या जापान से; तो चीन और रूस से कैसे हो सकती है? रूस ने आज एक बड़ी चीज़ पैदा कर ली है। परन्तु अपनी आज़ादी को इस तरह कहाँ तक कायम रख सकेंगे इसकी मुझे खबर नहीं।
अनुभव हमें बताता है कि हथियार से जो बड़ा काम हम कर लेते हैं वह टिकाता नहीं। चीन तो हमारा ही साथी है वह एक बड़ा मुल्क़ है। उसके लिए मेरे दिल में बड़ा गर्व है। मेरी तो यही इच्छा हो सकती है कि ये सब देश आपस में सुलह-सफाई से रहें। लेकिन अगर चीन को अपनी रक्षा हथियार से करनी तो उसे आखिर में जापान जैसा बन जाना होगा। जो-जो बाते हिटलर या मुसोलनी करता है, वे सब बातें उसे भी करनी होगी।
मुझे आशा है कि जब सचमुच हिंन्दुस्तान की हिफ़ाजत करने का मौक़ा आएगा तो उसके लिए वह अहिंसा का ही सहारा लेगा और लेकर विश्वशांति का संदेश सारे जग में पहुँचाएगा। तब जवाहर भी यही काम करेगा-हथियार उठाने की बात नहीं। इसलिए राजेन्द्र बाबू भी आज इस प्रस्ताव में शरीक़ हो सकते हैं। यह सब परिणाम हमारी राजकीय अहिंसा में से निकल सकता है। राजकीय अहिंसा छोटी-मोटी चीज़ नहीं।
संदर्भ स्रोत
आंल इंडिया कांग्रेस कमेटी,अधिवेशन, 25 जनवरी, 1942 में गांधीजी के भाषण का अंश। स्त्रोत सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, भाग-75,(प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली1982,) पृ. 248-50
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में