डा. अम्बेडकर ने क्या कहा था झंडा समिति के बहस पर
डा. अम्बेडकर ने क्या कहा था झंडा समिति के बहस पर
22 जुलाई 1947 को भारत की संविधान सभा ने भारत के राष्ट्रीय झंडे का स्वरूप सर्वसम्मति से परित किया। इसे परित करते समय हुई बहस और उससे पहले का झंडे सम्बन्धी इतिहास दिलचस्प है। इस बहस ने और इस इतिहास ने झंडे के अर्थ, इसके रंग और रूप के मायने, उसकी धर्मनिरपेक्ष अपेक्षाओं और ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष में झंडे की भूमिका तय की।
यह एक दिलचस्प और सम्भावनाओं से भरा इतिहास है। इसलिए 22 जुलाई 1947 का दिन काफी महत्चपूर्ण हो जाता है। (प्रतिमान पत्रिका में,सदन झा ने, देखने की राजनीति-भारत का झंडा और आस्था की नज़र लेख में भारतीय झंडे के इतिहास और उसके साथ जुड़ी आस्था पर विस्तार से एक लेख लिखा है, उसका एक अंश-
रोचक है संविधान सभा में झंडे पर बहस
भारतीय झंडे का इतिहास प्राय: भारतीय राष्ट्रवाद से संबंधित इतिहास की मुख्यधारा, राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन के सरोकारों, सवालों और साक्ष्यों की समझ पर आधारित रहा है।
लेफ्टिनेंट कमांडर के.वी.सिंह की अहम किताब हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक ऐसा ही उदाहरण है। यह किताब भारतीय परंपरा, राजवाड़ों और धार्मिक साहित्य में उल्लिखित झंडों और पताकाओं की भूमिका देते हुए सिलसिलेवार रूप से सन 1857 के आंदोलन से भारतीय झंडे के इतिहास को आरंभ करती है और स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ इस इतिहास का अंत। भारतीय झंडे का इतिहास अर्थात भारत में अंग्रेजी राज के विरुद्ध हुए स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास।
हाल के दिनों में भारतीय झंडे के इतिहास पर अरुंधति विरमानी ने बहुत विस्तार से और पेशेवराना तरीके से लिखा है। [i] विरमानी का इतिहास का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय झंडे के इतिहास द्वारा भारतीय राष्ट्र के निर्माण के सांस्कृतिक इतिहास में योगदान करना है।
क्यों खफा से महात्मा गांधी झंडे से चरखा हटाने से
22 जुलाई, 1947 को भारत की संविधान सभा ने भारत के राष्ट्रीय झंडे का स्वरूप सर्वसम्मति से पारित किया। इसे पारित करते समय हुई बहस और उससे पहले का झंडा संबंधी इतिहास दिलचस्प है।
इस बहस ने और इस इतिहास ने झंडे के अर्थ, उसके रंग और रूप के मायने, उसकी धर्मनिरपेक्ष अपेक्षाओं और ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष में झंडे की भूमिका तय की। यह एक दिलचस्प और सम्भावनाओं से भरा इतिहास है।
संविधान सभा के बाहर नये झंडे के प्रारूप को लेकर एक राय नहीं थी। महात्मा गांधी झंडे पर चरखे की आकृति हटाये जाने से ख़फा थे।
उन्होंने यह तक कह दिया था कि यदि भारतीय संघ के झंडे में चरखे का प्रतीक नहीं होगा तो मैं उसे सलाम करने से इंकार कर दूंगा। उनका कहना था कि यदि हम चरखे को नज़रअंदाज़ करते हैं तो हम ऐसे आदमी का आचरण कर रहे होंगे जो दु;ख में तो भगवान को याद करता है लेकिन जब वहीं भगवान ख़ुशियां देते हैं तो उन्हें भूल जाता है।
महात्मा गांधी चरखा संघ के पास पड़े हुए दो लाख पुराने झंडे को लेकर भी चिन्तित थे। चरखा संघ गरीबों की संस्था थी और गांधीजी उसके अध्यक्ष थे। उनके लिए यह समस्या थी कि इन पुराने झंडे का क्या होगा?[ii] खैर गांधीजी धीरे-धीरे मान गये या इस मुद्दे पर बहस करना उन्होंने छोड़ दिया।
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सावरकर ने प्रशंसा की थी, झंडे से चरखे को हटाये जाने की
विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी विरोध जगाया लेकिन वे कुछ करने में या तो असमर्थ थे या फिर संविधान सभा की गणित में उनकी बातें अनसुनी रह गयीं। गैर-क्रांग्रेसी नेतागण लम्बे समय तक संविधान सभा द्वारा अनुमोदित झंडे के राष्ट्रीय चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे।
1977 में जब केंद्र में पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी तो यह मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया। राष्ट्रीय झंडे और कांग्रेस पर्टी के झंडे के बीच की समानताओं के आधार पर यह कहा कि इससे कांग्रेस पार्टी जनता के बीच असानी से एक सकारात्मक छवि मिल जाती है।
इसके पहले 1967 में राम मनोहर लोहिया ने भी इस बहस को उठाया था। दिनमान में लेखों की श्रृखंला प्रकाशित हुई थी, उदाहरण के लिए देखे, तिरगा किसका है? दिनमान 12-18 फरवरी1978, दिल्ली 16-17 [iii] चरखे को नये झंडे से हटाये जाने की सावरकर ने प्रशंसा भी की।
उनके अनुसार इस काम ने नये झंडे की अस्वीकृति को बहुत कम कर दिया। उनके विचार में भारत का संघ और संविधान सभा ब्रिटश इच्छाओं के उत्पाद थे, न कि जनमत आधारित राष्ट्र के स्वतन्त्र अभिमत के। इसी कारण उन्होंने नये झंडे को हिंदुस्तान का राष्ट्रीय झंडा मानने से इंकार कर दिया। वे कुण्डलिनी और कृपाण अंकित भगवा ध्वज के अलावा किसी भी दूसरे झंडे के लिए तैयार नहीं थे।[iv]
दरअसल, सावरकर और महाराष्ट्र के हिंदू राष्ट्रवादियों के एक गुट ने भगवा झंडे के पक्ष में पुरज़ोर मेहनत की थी।
बाबा साहब गेरुए झंडे के पक्ष में थे
महाराष्ट्र के कुछ नेता और बम्बई प्रोविंशियल हिंदू महासभा के कुछ सदस्य इस सिलसिले में डा.आम्बेडकर से भी 3 जुलाई 1947 को बम्बई में मिले। डा.आम्बेडकर भी झण्डा कमेटी के सदस्य थे जिसे नये राष्ट्र के झंडे के स्वरूप पर विचार कर संविधान सभा के समक्ष पेश करना था।
बाबा साहब के जीवनीकार धनंजय कीर के अनुसार- अम्बेडकर इस गुट के सामने इस बात पर राजी हो गये कि यदि समुचित दवाब और प्रदर्शन हो तो वे गेरुए झंडे के पक्ष में समर्थन देंगे। दिल्ली रवाना होते समय उन्हें एक गेरुआ झंडा भी भेंट किया गया।
हालांकि वे जल्दी ही इस वायदे से मुकर गये। हंसकर उन्होंने एस.के.बोले, अनन्तराव गाडरे और दूसरों से कहा कि क्या ये लोग एक महार के बेटे से संविधान सभा पर गेरुआ झण्डा फहराने की आशा कर रहे थे। [v]
जाहिर है झंडे के लेकर संविधान सभा ही नहीं बाहर भी बहस काफी रोचक रही है।
संदर्भ
[i] लेफिन्नेंट कर्नल के.वी.सिंह 1991, अवर नैशनल फ़्लैग, पब्लिक डिवीजन, दिल्ली
[ii] अरुंधती विरमानी 2008, अ नैशनल फ़ैग फार इंडिया: रिचुअल्स नैशनलिज़म, ऎंड द पालिटिक्स आंफ सेंटिमेंट, परमानेंट ब्लेक, रानीखेत
[iii] देखें, सदन झा 2008, द इंडियन नैशनल फ्लैग: अ साइट आंफ डेली प्लेविसाइट, इकोनांमिक एंड पालिटिकल वीकली,खंड 43, अंक 43:103-111
[iv] वी.डी.सावरकर ने बी.आर.आम्बेडकर, राजेन्द प्रसाद, सरदार पटेल और एन.वी.खरे को टेलिग्राम भेजकर लिखा: हिंन्दुस्तान की पताका भगवे-गेरुए रंग की होनी चाहिए। कोई भी ध्वज, जिसमें भगवे रंग की कम से कम एक पट्टी न हो, उसे हिंदू आदर से नहीं देख सकेंगे। चरखे को भी निश्चित तौर पर चक्र-धूरी से या ऐसे ही किसी प्रतीक से स्थानांतरित किया जाय जो विकास और शक्ति का सूचक हो। देखे नांट चरखा बट चक्र ऐड अ भगवा स्ट्रिप(7/7/1947), हिस्टोरिक स्टेटमेंट्स, एस.एस.सावरकर वी.डी.सावरकर के लिए, कर्नाटक प्रिंटिंग प्रेस, बम्बई” 125;http;//www.savarkar.org/content/pdfs/n/historic-by-savarkar001/pdf
[v] धनंजय कीर, 1990, डा. आम्बेडकर: लाइफ ऐड मिशन, पांपुलर प्रकाशन, मुबंई: 394-5.
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में