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जवाहरलाल नेहरू और प्रेस की आज़ादी
कुछ आलोचक पं.जवाहरलाल नेहरू पर समाचार-पत्र तथा विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर बहुत से प्रतिबंध लगाने का आरोप लगाते हैं। पं. नेहरू का मानना था कि समाचार-पत्र लोगों में विष न उगलें और साम्प्रदायिकता तथा कट्टरता का प्रचार न करें, लेकिन उन्हें नेहरू तथा उनकी सरकार के विरुद्ध लिखने की खुली छूट थी।[i]
युगांतर के बायकाट का विरोध करते नेहरू
युगांतर के बायकाट का विरोध करते हुए पंडित नेहरू ने कहा-
बी.पी.सी.सी की एक्जीक्यूटिव कमेटी ने युगांतर अख़बार का बायकाट करने के लिए रिजोल्यूशन पास कर यक़ीनन कोई अच्छा काम नहीं किया। यह तो सरासर एक नासमझी है। युगांतर में किस तरह के लेख और दूसरी चीज़ें छपती हैं, यह मैं ख़ुद नहीं जानता और इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता।
लेकिन मैं अख़बारों की आज़ादी का कट्टर समर्थक हूँऔर यही कहता हूँ कि उन्हें अपनी राय जाहिर करने और नीतियों की नुक्ताचीनी करने की पूरी छूट दी जानी चाहिए, जिसका यह मतलब नहीं कि कोई अख़बार अनापशनाप की अख़बारनवी करे, जो हमारे फिरकापरस्त अख़बारों बारों की खासियत रही है। मैं तो इस बात पर यक़ीन करता हूँ कि अख़बारों की आज़ादी ही हमारे सार्वजनिक जीवन की बुनियाद होनी चाहिए। इसलिए युगांतर को बायकाट करने की जो यह कार्यवाही हुई है, उसके लिए मुझे बेहद अफ़सोस है।
मै भी कहना चाहता हूँ कि बंगाल सरकार ने हिंदुस्तान स्टैन्डर्ड अख़बार वालों को जो यह हुक्म दिया है कि वह छापने से पहले सारा संपादकीय मैटर सेंसर के लिए भेजें, सरकारी ताक़त का बेजा इस्तेमाल है। अगर इस तरह की बातों को मान लिया जाए तो अख़बारों को आजादी के साथ संपादकीय लिखना बिल्कुल भी मुमकिन नहीं रह जायेगा।
तब उनके अग्रलेख उनके अपने न होकर सेंसर वालों के लिखे हुए होंगे। सभी जानते हैं कि जो कुछ सेंसरवाले किसी किसी खास मामले के बारे में लिखते हैं, उसे कोई नहीं पढ़ता। हर एक सरकार को सीधे ही अपनी राय ज़ाहिर करने और उसे जनता के सामने खुले तौर पर रखने का पूरा अधिकार होता है, लेकिन सरकार का अख़बारों के संपादकीय कालमों के मार्फत अपनी राय को अप्रत्यक्ष तरीके से प्रचारित करना या अपने कामों की आलोचना को दबाना एक ऐसी बात है, जो किसी भी अख़बार को निकालने के काम के लिए बुनियादी तौर पर एक ग़लत बात मानी गयी है।
इस तौहीन के आगे सिर झुका देने या अपनी आत्मा को बेचने के बजाय यह कहीं अच्छा है कि वह कोई संपादकीय छापे ही नहीं। मुझे खुशी है कि हिंदुस्तान स्टैंडर्ड ने यहीं रास्ता मुनासिब समझा और संपादकीय छापना बंद कर दिया।
सरकार की दखलंदाजी का विरोध करे जर्नलिस्ट एसोसिएशन
मशहूर राष्ट्रीय अख़बार, जिन्होंने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, काफी हद तक अपनी हिफाजत खुद ही कर सकते हैं। उन्हें कुछ भी होता है जो उसपर जनता का ध्यान जाता है और उन्हें जनता का सहारा मिलता है। छोटे-छोटे और ऐसे अख़बारों को जिन्हें लोग कम जानते हैं, सरकार की दख़लंदाजी अक्सर बरदाश्त करनी पड़ती है, क्योंकि वे मशहूर नहीं होते।
जो भी हो, अगर हम अपने छोटे से छोटे और कमज़ोर से कमज़ोर अख़बारों को सरकार की दख़लंदाजी और दमन का शिकार बनने देंगे तो यह ख़तरनाक बात होगी। इसका इस्तेमाल होने से आदत पड़ जायेगी और धीरे-धीरे लोग सरकार से अपने अधिकारों का दुरुपयोग होते देखने के आदी हो जाएंगे। इसलिए जर्नलिस्टों के एसोसिएशन और सभी अख़बारों को चाहिए कि वह कम मशहूर अख़बारों के साथ भी ऐसा कोई भी सलूक न होने दें।
अगर हम यह चाहते हैं कि अख़बारों की आजादी बनी रहे, तब हमें चाहिए कि हम इस आजादी की चौकस होकर हिफाजत करें और हर तरह की दख़लंदाजी की मुखालफ़त करें, चाहे कोई भी हो। यह राजनैतिक विचारों या मत-मतांतरों का मामला नहीं हैं, जिससे हम सहमत नहीं होते हैं, तब हम उसी वक्त सिद्धांत रूप में आत्मसमर्पण कर रहे होते हैं, इसका नतीजा होता है, कि यही हमला जब हम पर होता है, तब हमसे मुकाबला करने की ताकत नहीं रह जाती।
अख़बारों की आज़ादी का मतलब यह नहीं है कि हम जिन चीज़ोंको चाहते हैं, उन्हें छपने देते रहें। इस तरह की आजादी तो हर तानाशाही सरकार को मंजूर होगी। नागरिक स्वतंत्रता और अख़बारों की आजादी तो इस बात में है कि हम उसे भी छपने दें, जिसे हम नहीं चाहते।
अपनी नीतियों के बारे में लोगों की आलोचनाओं को बरदाश्त करें और जनता को अपनी अपनी राय बताने का मौका दें, जो हमारे मक़सद के पूरा होने के आड़े ही क्यों न आती हो। इसकी वजह यह है कि जब हम व्यापक हित या अंतिम ध्येय को नज़रंदाज कर अस्थायी लाभ चाहने लगते हैं, तब वह हमेशा खतरनाक साबित होता है।
अगर हम यह सोचकर भी कोई गलत आदर्श रखें या ग़लत साधन अपनायें कि इससे हमें अपने मक़सद को पूरा होने में मदद मिलेगी तो खुद उन्हीं आदर्शों और साधनों से हमारे मक़सद पर असर पड़ता है और पूरा नहीं हो पाता।
अगर हम जम्हूरियत और आज़ादी चाहते हैं, तब हमें अपने काम और तौर-तरीकों में इस लक्ष्य का बराबर ध्यान रखना चाहिए। अगर हम अपना काम इस तरह करते हैं कि वह जम्हूरियत और आज़ादी की भावना के अनुरूप न हो, तब हमारे काम का नतीजा जम्हूरियत और आज़ादी न होकर कुछ और ही होगा।
ऊंचे-ऊंचे आदर्श बनाना और उसपर अमल करना मुश्किल है
ऊंचे-ऊंचे आदर्श बनाना सचमुच एक आसान काम है, जो तर्कसंगत हों और जो सुनने में भी अच्छे लगते हो, लेकिन उनको अमल में लाना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि जिंदगी बहुत तर्कसंगत नहीं होती और इंसान के आचरण का स्तर भी उतना ऊंचा नहीं होता, जितना कि हम चाहते हैं।
हम जैसे एक जंगल में रहते हैं, जहां अक्सर अधिकतर लुटेरे व्यक्ति और मुल्क अपनी अपनी मर्जी के मुताबिक कहीं भी घुमते रहते हैं और समाज को नुकसान पहुंचाने की कोशिश में रहते हैं। अनेक तरह के संकट पैदा हों जैसे मुल्क की आजादी के लिए बड़ी व छोटी लड़ाईयां होती हैं, वर्ग-संघर्ष होते हैं, तो घटनाओं के सामान्य प्रवाह को उलट-पलट देते हैं।
ऐसी हालत में उन्हीं उंचे आदर्शों को अमल में लाना मुश्किल हो जाता है, जो हमारे बनाये होते हैं और जिनमें इंसान के आचरण का एक स्तर निर्धारित किया होता है। संकट के इस वक्त में या क्रांति की अवधि में किसी व्यक्ति या किसी वर्ग की आज़ादी के बारे में, जो उसे आमतौर पर मिली होती हैं, कुछ हद तक दुबारा विचार करना जरूरी हो जाता हैं। फिर भी ऐसा करना एक ख़राब बात है। अगर ज्यादा से ज्यादा सावधान नहीं रहा जाये तो इसके बुरे नतीजे हो सकते हैं, वरना हम उसी बुराई के शिकार हो जाते हैं, जिससे हम लड़ रहे होते हैं।
लोकतंत्र के आज़ादी के लिए प्रेस का आज़ाद होना जरुरी
हम जम्हूरियत और आजादी की और साथ ही नागरिक स्वतंत्रता की बात करते हैं, तब हमें बराबर यह याद रखना चाहिए कि इसके साथ जिम्मेदारी और अनुशासन भी जुड़ा हुआ है। सच्ची आजादी तब तक नहीं आ सकती, जब तक व्यक्ति या वर्ग में अनुशासन और जिम्मेदारी की भावना न हो।
गुलामी और बंदिशों के बाद जब आजाद होने की स्थिति आती है, तब बदलाव के उस दौर में लोगों का थोड़ा-बहुत झुकाव अधिक से अधिक छूट हासिल करने की ओर होना शायद एक लाजिम बात है। यह अफसोस की बात तो हैं लेकिन इसकी वजह भी बड़ी आसान है क्योंकि यह लंबे अरसे से चले आ रहे दमन की प्रतिक्रिया है।
हिंदुस्तान में लोगों को बर्दास्त करने की अद्भुत ताकत होती है। उसका इतिहास इस बात का जीता-जागता सबूत है। दुनिया में चीन को छोड़कर कोई दूसरा मूल्क नहीं है, जिसका ऐसा रिकार्ड रहा हो।
यूरोप और दूसरे देशों में मजहब के नाम पर लड़ाईयां हुई हैं, खून-खराबा हुआ है, लोगों के विचारों को कुचलने की कोशिशें होती रही हैं, लेकिन हिंदुस्तान और चीन ने, जिसके पास लाखों बरसों पुरानी संस्कृत्ति जी परंपरा रही है, दूसरे मुल्कों के विचारों और धर्मों के लिए हमेशा से अपने दरवाजे खोल रखे हैं। सहनशीलता और संस्कृति का यह इतिहास हमारे लिए अब एक अमूल्य विरासत है।
आज हमारी भावनाओं को तरह-तरह की बातों को लेकर भड़काने की कोशिश की जाती है, जिनका हम पर जबरदस्त असर पड़ता है। हमें उन बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और क्योंकि इसके नतीजों पर हमारे मुल्क का और दुनिया का भविष्य निर्भर करता है।
यह बहुत ठीक बात है कि मक़सद हमें प्यारा है, उसको पूरा करने के लिए हम अपनी पूरी ताक़त लगा दें। लेकिन कोई बात नहीं है कि अपने उन आदर्शों को छोड़कर दें या भूल जायें, जो गुज़रे जमाने में भारतीय सभ्यता के गौरव रहे हैं और जो कमोबेश कई अर्थों में हमारी जम्हूरियत और आज़ादी की बुनियाद रहे हैं।
सबसे बड़ी बात तो हमें यह करनी चाहिए कि हम आजादी और नागरिक स्वतंत्रता की बात करते वक्त अनुशासन और जिम्मेदारी को हमेशा ध्यान में रखें।
हो सकता है कि मेरे इस पत्र को पढ़ने में अख़बारों और जनता की दिलचस्पी हो, इसलिए मेरा सुझाव है कि आप इसे अख़बारों में छपने के लिए दे दे।
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इस ख़त को पढ़ते हुए कोई भी समझ सकता है कि नेहरू प्रेस के स्वतंत्रता के पक्ष में थे, जो दूसरों की स्वतंत्रता को न छीने। भारत जैसे देश में अनियंत्रित स्वतंत्रता से अराजकता के फैसले लेने की संभावना हो सकती है, जिससे लोगों के हितों को हानि पहुँचेगी।[ii] वह इस ख़तरे को पहचान चुके थे।
संदर्भ-स्त्रोत
4 मार्च, 1940 को जर्नलिस्ट एसोसिएशन आंफ इंडिया के प्रेसीडेंट और अमृत बाज़ार पत्रिका के संपादक तुषार कान्ति घोष को लिखे एक पत्र से। सेलेक्टेड वर्क्स, वाल्यूम 11,पृष्ठ 365-68 से संकलित।
[i] डॉ लाल बहादुर सिंह चौहान, युगपुरुष पं. जवाहरलाल नेहरू, सावित्री प्रकाशन, दिल्ली 1981, पेज न. 98
[ii] डॉ लाल बहादुर सिंह चौहान, युगपुरुष पं. जवाहरलाल नेहरू, सावित्री प्रकाशन, दिल्ली 1981, पेज न. 90
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