एक हत्या जो क़रीब ले आई नेहरू और पटेल को
[आज़ादी के बाद देश में फैले दंगों और प्रशासनिक कार्यवाहियों तथा कुछ अन्य चीज़ों के कारण नेहरू और पटेल के रिश्तों में थोड़ा तनाव या गया था। आखिरी प्रार्थना सभा के पहले गांधी ने पटेल को बुलाया था और उनके बीच लंबी बात हुई थी। यह घटना उसी बातचीत के तुरंत बाद की है।]
नेहरू और पटेल के बीच के जिन मतभेदों को लेकर गांधी आख़िरी समय तक चिंतित थे वे भी उनकी मौत से धुंधले पड़ गए थे।
30 जनवरी, 1948 को गांधी से मिलकर पटेल अभी घर पहुँचे ही थे कि गांधी के सहयोगी ब्रजकिशन दरवाज़े पर मणिबेन को देखकर बदहवास चिल्लाये – सरदार कहाँ हैं? बापू को गोली मार दी गई। बापू नहीं रहे।
पटेल उन्हीं की कार में बैठकर बिड़ला भवन पहुँचे तो गांधी की देह को एक दरी पर लिटाया गया था।[i] कुछ ही मिनट बाद नेहरू पहुँचे तो पटेल की गोद में सर रखकर फूट-फूटकर रो पड़े। मनुबेन लिखती हैं – अकेले वे (सरदार) सबको ढाँढस बंधा रहे थे।[ii]
कैम्पबेल बताते हैं कि जब अंतिम दर्शन के लिए बाहर भीड़ बढ़ने लगी तो नेहरू बिना किसी सुरक्षाकर्मी के उस भीड़ को समझाने निकल आए थे।[iii] उस रात सरदार और जवाहरलाल, दोनों ने देश को संबोधित किया।
2 फरवरी की रात पटेल ने नेहरू को एक पत्र लिखकर गांधी हत्या की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़े का पत्र लिखा। लेकिन वह पत्र डिस्पैच होता उसके पहले ही अगले दिन सुबह जवाहरलाल का पत्र उन तक पहुँचा जिसमें उन्होंने अपने लगाव और मित्रता का हवाला देते हुए लिखा था –
बापू की मृत्यु के साथ हर चीज़ बदल गई है और हमें एक अलग और मुश्किल दुनिया का सामना करना होगा…आपके और मेरे बारे में जो लगातार कानाफूसी और अफ़वाहें चल रही हैं, जिनमें हमारे बीच अगर कोई मतभेद हैं भी तो उन्हें बेहद बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा रहा है, मैं उनसे बेहद दुखी हूँ…हमें इस उत्पात को रोकना होगा।
शायद वल्लभभाई को इसी का इंतज़ार था। उन्होंने तुरंत लिखा –
मुझे यह बात गहरे छू गई है, असल में आपके पत्र के लगाव और स्नेह से आह्लादित हूँ। मैं आप द्वारा बेहद भावपूर्ण ढंग से व्यक्त भावनाओं से पूरी तरह सहमत हूँ। मेरी किस्मत थी कि बापू की मृत्यु के पहले उनसे एक घंटे बात करने का अवसर मिला था मुझे…उनका विचार भी हम दोनों को बांधता है और मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मैं इसी भाव से अपनी ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाता रहूँगा।
अगले दिन संविधान सभा में वल्लभभाई ने नेहरू के प्रति अपनी निष्ठा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की और उन्हें ‘मेरे नेता’ कहकर संबोधित किया।[iv] असहमतियाँ नहीं ख़त्म हुईं, गांधी उसके लिए कहते भी नहीं थे, लेकिन जो मनोमालिन्य और दुर्भाव पैदा होने लगा था, वह धुल गया।
स्रोत-संदर्भ
[i]देखें, पेज 468, पटेल : अ लाइफ, राजमोहन गाँधी, बारहवाँ संस्करण, नवजीवन, अहमदाबाद -2017
[ii]देखें, पेज 249, अंतिम झाँकी, मनुबेन गाँधी, अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ, काशी – 1960
[iii]देखें, पेज 318, मिशन विथ माउंटबेटन, एलेन कैम्पबेल जॉनसन, जैको पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली -1951
[iv]देखें, पेज 470, पटेल : अ लाइफ, राजमोहन गाँधी, बारहवाँ संस्करण, नवजीवन, अहमदाबाद -2017
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