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मई दिवस का गौरवशाली इतिहास: चुनौतियाँ आज भी बरक़रार
- सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय
आठ घंटे काम,आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम
औद्योगिक पूंजीवादी क्रांति ने सामंतवादी उत्पादन संबंधों को समाप्त किया. फलस्वरूप बड़ी संख्या में दस्तकार और भू-दास बेरोज़गार होकर और अपना सब कुछ खोकर फैक्ट्री व्यवस्था को मजदूर बनने के लिए बाध्य हुए.
औपनिवेशक व्यवस्था प्रारंभ होने के बाद पूंजीपतियों को जरूरी था कि वे उपनिवेशों के नए उभरते हुए बाज़ारों की आवश्यकता पूर्ति के लिए अधिक उत्पादन करें लेकिन ज्यादा मुनाफे की लालच में वे कम मजदूरों से ही काम लेते थे.
फलस्वरूप काम के घंटे बढ़ते गए और मजदूर 18 से 20 घंटे काम करने के लिए बाध्य हुए क्योंकि सूर्योदय से सूर्यास्त तक सामन्यतः काम लिया जाता था, और उनके पास अन्य कोई ठोस विकल्प नहीं था. इसके बदले में उन्हें इतना वेतन प्राप्त होता था कि वे रुखा सूखा भोजन खाकर अगले दिन के फिर काम करने के लायक उर्जा प्राप्त कर सकें.
19 वीं सदी इस अमानवीय शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की शक्ति लेकर आई और कई स्थानों पर मजदूरों ने संगठित होकर प्रतिरोध करना प्रारंभ किया. अमेरिका और फिलाडेल्फिया में मोचियों ने वेतन और काम के घंटे तय करने की मांगों को लेकर 1806 में हड़ताल की. इसके जवाब में साजिश रचने के मुकदमे में सरकार ने उन पर उनपर मुकदमे लगे.
इसके बाद के दशक तो उक्त दोनों मांगों पर केन्द्रित हड़तालों के दिन थे दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन, मेकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया ने 1827 में निर्माण उद्योग में काम करने वाले मजदूरों को हड़ताल के लिए आह्वान किया. काम के घंटे तय करने की मांग जोर पकडती जा रही थी कि 1837 का आर्थिक संकट आया और पूंजीपति वर्ग ने नरम पड़ते हुए दस घंटे काम का प्रावधान अमेरिका के कुछ राज्यों में किया.
लेकिन मांगें यहाँ रुकने वाली नहीं थीं. आखिर मजदूर तो आठ घंटे काम की मांग कर रहे थे. अब यह मांग केवल अमेरिका तक ही नहीं सीमित थी बल्कि पूरी दुनिया के मजदूरों के जुबां पर थी. सुदूर, ऑस्ट्रेलिया के मजदूरों ने इसी समय नारा दिया था ”आठ घंटे काम,आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम”.
आठ घंटे के कार्य दिवस की जरूरत
अमेरिका में गृह युद्ध के दौरान कर्र ट्रेड यूनियनों ने मिलकर शनल लेबर यूनियन का गठन किया. इसने आठ घंटे काम की मांग को लेकर अपने को प्रतिज्ञाबद्ध किया. यूनियन का नेता कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की अगुवाई में हो रही प्रथम इंटरनेशनल के भी निरंतर संपर्क में था. इसी दौर में आठ घंटे के कार्यदिवस की मांग को लेकर
आठ घंटा – दस्तवेज का भी निर्माण किया गया. सितबर 1866 में पहले इंटरनेश्नल की जेनेवा कांग्रेस ने इस मांग का पुरजोर समर्थन किया. कार्ल मार्क्स ने भी अपनी महानतम पुस्तक ”पूंजी’‘ में आठ घंटे के कार्य दिवस की जरूरत और मजदूरों की जायज मांगों के लिए गोरे और काले श्रमिकों की एकता की जरूरत को रेखांकित किया.
अगले बीस बरस दुनिया भर में, ख़ास तौर पर अमेरिका और यूरोप में मजदूर वर्ग के जुझारू आन्दोलनों के नाम रहे. मजदूरों की व्यापल हड़तालों के दमन के लिए पूंजीपतियों और उनकी पक्षधर सरकारों ने सेना का सहारा लिया. सैनिक दस्तों ने निर्ममता से हड़तालों को जरूर कुचला परन्तु वे सर्वहारा वर्ग में उभर रही वर्गीय चेतना को नहीं कुचल सके.
इस दौरान पूंजीवाद ने 1873 और 1884 के आर्थिक संकरों का दामन किया परन्तु जैसा पूंजीवाद आमतौर पर करता है, छटनी और बेरोज़गारी का सहारा लेकर उनसे वक्ती निजात पाई. इससे मजदूर वर्ग का गुस्सा और भड़क उठा. इसी दौरान मार्क्स और एंगेल्स मानवता की मुक्ति के दर्शन का सृजन कर रहे थे और मजदूरों के अंतरराष्ट्रीय संगठन इंटर नेशनल का सञ्चालन भी.
इसी दौरान पेरिस के मजदूरों ने बुर्जुआ सरकार का तख्ता पलटकर दुनिया की पहली मजदूर सरकार ‘ पेरिस कम्यून” का गठन किया. हालांकि यह प्रयोग 2 साल ही चल सका.
इस समय अमेरिका में दो बड़े श्रमिक संगठन काम कर रहे थे ” द अमेरिकन फेडरेशन आफ़ लेबर” और ”नाइट्स ऑफ लेबर” इनके अलावा ”आठ घंटा” एसोशियेसन भी थीं, अमेरिकन फेडरेशन और लेबर ने अपने चौथे सम्मलेन 1884 में घोषित किया कि पहली मई 1886 से आठ घंटे का कार्यदिवस होगा. फेडरेशन ने मजदूरों और अन्य मजदूर संगठनों से आठ घंटे ही काम करने का आह्वान किया.
आन्दोलन की तैयारियाँ और व्यापक हड़तालें
पहली मई 1986 के आन्दोलन की तैयारियों में कई स्थानों पर व्यापक हड़तालें हुईं. नाइट्स ऑफ लेबर भी आठ घंटे कार्य दिवस की व्यापक लोकप्रियता को भांपकर आन्दोलन के साथ जुड़ गया. इस कारण नाइट्स की बेतहाशा बढ़ी लोकप्रियता ने उसकी सदस्य संख्या 2 लाख से सात लाख तक पंहुचा दी.
फेडरेशन की सदस्य संख्या में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई. मजदूरों का मुद्दे के प्रति जुड़ाव और जुझारूपन इसी बातसे समझा जा सकता है कि 1881 से 1884 तक हड़तालों का वार्षिक औसत 500था और इनमें करीब 1500 लोगों ने भाग लिया, इसके विपरीत 1886 में हड़तालों की संख्या उत्तरोत्तर बढती हुई 1572 तक जा पंहुची और इसमें करीब 6 लाख लोगों ने हिस्सेदारी की.
व्यापक हड़ताल के दिन अर्थात 1 मई 1861 को शिकागो में हड़ताल सर्वाधिक आक्रामक थी क्योंकि यह शहर उस वक्त जुझारू वामपंथी आन्दोलन का प्रमुख केंद्र था. हड़ताल का आह्वान अमेरिकन फेडरेशन और लेबर और नाइट्स ऑफ लेबर ने किया. अमेरिका के मजदूर वर्ग की पहली संगठित राजनैतिक पार्टी सोशलिस्ट लेबर पार्टी भी इसमें शरीक हुई. हड़ताल के एक दिन पूर्व सेंट्रल लेबर यूनियन ने एक प्रदर्शन किया जिसमें 27000 मज़दूर शरीक हुए.
शिकागो की सड़कों पर पुलिस का कायराना हमला
1 मई को शिकागो में मुकम्मल हड़ताल हुई. सारी फैक्ट्रियां और कारखाने बंद रहे. ”काम के आठ घंटे” के नारे लगाते हुए जब मजदूर शहर की सड़कों पर निकले तो शहर जाम हो गया. मजदूरों के वर्गीय हितों को हुई इस महान एकजुटता को पूंजीपति और उनकी सरपरस्त सरकार बर्दाश्त नहीं कर पाई.
मजदूरों के आन्दोलन को कुचलने के लिए पुलिस ने जुलूस को गिरफ्तार कर लिया. सरकार की इस कार्यवाही का विरोध करने के लिए शिकागो के एक चैक पर 3 मई को मजदूरों की विशाल विरोध सभा हुई. इस सभा पर पुलिस ने हमला किया. इस बर्बर हमले में चाह मजदूर शहीद हुए और सैंकड़ों घायल हुए. अगले दिन पुनः आयोजित विरोध में सुबह-सुबह पुलिस ने कायराना हमला किया, और बमबारी की.
इस हमले में 4 मजदूर फिर शहीद हुए पुलिस ने अपनी वर्गीय पहचान उजागर करते हुए मुकदमे चलाए, और पार्सन्स, स्पाइस, फिशर तथा एंजेल को फांसी की सजा दी गई मजदूरों की वर्ग चेतना के विरुद्ध यह पूंजीवादी प्रतिशोध था जिसमें पूरी दुनिया के मजदूरों को उत्तेजित किया तथा एकजुटता के लिए प्रेरित भी किया.
इस आन्दोलन में मजदूरों का जो लहू बहा उसने मजदूरों को वर्गीय प्रतीक लाल झंडे के नीचे आने के लिए प्रेरित किया बाद में शहादत और प्रतिरोध की 1 मई की तारीख को दूसरे इंटरनेशनल समेत अनेक संगठनों ने अंतर राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
इस बलिदान में आठ घंटे के कार्य दिवस को भी व्यापक लोकप्रियता और कानूनी समर्थन दिलाने के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम किया. बाद में लगभग सभी देशों में आठ घंटे को ही वैधानिक कार्य दिवस स्वीकार किया गया.
आज 21वीं सदी में चुनौतिया बढ़ी हैं
आज जब हम इक्कीसवें शताब्दी में बैठकर मई दिवस के मुताल्लिक चर्चा कर रहे हैं तो हमें हालात ज्यादा कठिन और चुनौती भरे नजर आते हैं. सोवियत संघ के पतन के बाद एक ध्रुवीय हो चली दुनिया में पूंजी परस्त निजाम भू मंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की ऐसी भयंकर आंधी लेकर आया है कि तथाकथित लोकतंत्र का दमन भी तार-तार हो गया है.
पूंजीवाद नंगा दिखाई देने लगा है. हमारे देश में यद्यपि सार्वजानिक क्षेत्र में आठ घंटे का कार्य दिवस मानी है, परन्तु पूंजी परस्त सरकारें धीरे धीरे इसकी जडें खोदने में लगी हुई हैं.
देश की कुल श्रम शक्ति का 13 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है जहाँ न तो आठ घंटे के कार्य दिवस की सीमा है और न ही किसी तरह की सार्वजानिक सुरक्षा, ना ही परिवार के गुजारे लायक युक्ति-युक्त वेतन है. आवास शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए तो खैर कुछ नहीं ही है.
नए उत्पादन संबंधों में सेवा क्षेत्र को तैयार किया है, बी पी ओ कॉल सेंटर है जहाँ काम के कोई न्यूनतम घंटे नहीं है. यहाँ काम करने वाले 15 से 20 घंटे लगातार काम करने के लिए मजबूर हैं. यदि काम करना है तो ठीक वर्ना बाहर क्योंकि कोई सेवा शर्तें तो उन्हें बचाती नहीं.
किसी भी तरह के उत्पादन में दो वस्त में निवेश करनी होती हैं – श्रम और पूंजी. पूंजीवाद के नग्न दौर में पूंजी को ही सब कुछ माँ लिया गया है. वित्ते पूंजीवाद के समय में स्टाक मार्केट की आवारा पूंजी वास्तविक संपत्ति से अधिक महत्वपूर्ण हो गई है. स्टॉक मार्केट की इस पूंजी के पैरोकार हमारे राजनेता और पूंजीपति वेश्यालयों के दलालों की भूमिका निभाते हुए जानता को ठग रहे हैं. पूंजी के आवारापन और नव अमेरिकी साम्राज्यवाद ने मौजूदा आर्थिक महामारी को जन्म दिया है जिसने कई देशों की अर्थ व्यवस्थाओं को बर्बाद कर दिया है. साम्राज्यवादी सरकारें हमेशा की तरह आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए युद्धों की भूमिका तैयार कर रहे हैं.
यकीनन पूंजीवाद की इस विकसित अवस्था ने जो विशाल समृद्धि पैदा की है, उसका छोटा सा हिस्सा रिसकर मजदूरों की ओर भी आया है. (हालांकि अमीरी-गरीबी की खाई निरंतर बढती चली जा रही है). सार्वजनिक और सेवा क्षेत्रों में कर्मचारियों की जो नई बिरादरी पैदा की है.
वह स्वयं को मजदूर मानने से इन्कार करती है. और इस वजह से स्वयं पर हो रहे शोषण को प्रकारांतर से न्यायोचित ठहराती है.लम्बे समय से मजदूर आन्दोलन इन्ही सफेदपोश मजदूरों की नुमायन्दगी करता रहा है और इस कारण से उसकी लड़ाई वेतन भत्तों के बढ़ोत्तरी यानी अर्थवाद पर केन्द्रित रही है.
पूंजीवादी निजाम को ध्वस्त करने का सवाल कभी उसके एजेंडे पर आया ही नहीं. अभी पिछले कुछ समय से केन्द्रीय वामपंथी श्रमिक संगठनों में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के सवालों को उठाना और उन्हें स्वयं से जोड़ना शुरू किया है. यही आज के दौर का सर्वहारा है और यदि इसमें वर्गीय चेतना उत्पन्न की जा सकी तो समाज बदलने के लिए असली हथियार साबित होगी. और मई दिवस के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि भी.
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