उषा मेहता:जिन्होंने रेडियो को आज़ादी का हथियार बनाया
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष को रेडियो के नई तकनीक से जोड़ने वाली उषा मेहता अचानक इतिहास के पन्नों से निकलकर लोगों के ज़ेहन में अपनी ज़गह बना रही है। अभिनेत्री सारा अली ख़ान अमेजन प्राईम की आने वाली फ़िल्म ऐ वतन मेरे वतन में रेडियो विमेन उषा मेहता के चरित्र को निभा रही है।
ऐ वतन मेरे वतन एक ऐतिहासिक थ्रिलर-ड्रामा है। धर्माटिक एंटरटेनमेंट प्रोडक्शन की यह फ़िल्म करण जौहर, अपूर्व मेहता और सोमेन मिश्रा द्वारा निर्मित है।
कन्नन अय्यर द्वारा निर्देशित, यह फ़िल्म कन्नन अय्यर और दरब फारूकी द्वारा लिखी गई है और इसमें अभिनेता सारा अली खान मुख्य भूमिका में हैं, साथ ही सचिन खेडेकर, अभय वर्मा, स्पर्श श्रीवास्तव, एलेक्स ओ’ नेल और आनंद तिवारी भी महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं और एक विशेष अतिथि भूमिका में हैं।
कौन थी, रेडियो विमेन उषा मेहता
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों की मदद से गुजरात की उषा मेहता ने गुप्त रूप से रेडियो का प्रसारण शुरू किया। उन्होंने जनता को जागरूक किया और साथ ही युवाओं में यह विश्वास भी भरा कि स्वाधीनता के आंदोलन में रेडियो के नये तकनीक का सहारा लेकर लड़ाई लड़ी जा सकती है।
25 मार्च, 1920 को सूरत के पास एक गाँव में उषा मेहता का जन्म हुआ था उनके पिता ब्रिटिश राज में जज थे, जज साहब का नाम था हरिप्रसाद । आरंभिक पढ़ाई करने के बाद उषा मेहता बंबई के विल्सन कॉलेज में आ गई थीं।
उनके बारे में एक घटना चर्चित है। 1928 में जब स्वाधीनता का आंदोलन अपने चरम की ओर बढ़ रहा था, तब अंग्रेजों ने भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए ब्रिटिश संसद के सदस्यों की एक कमेटी जॉन साइमन की अध्यक्षता में भेजी थी, जिसको ‘साइमन कमीशन’ के नाम से जाना जाता है। ‘साइमन कमीशन’ का पूरे देश में काफ़ी विरोध हुआ था।
एक आठ साल की बच्ची, उषा मेहता भी ‘साइमन कमीशन के विरोध में आंदोलन में कूद पड़ी थीं। उनके पिता बहुत नाराज हुए, कई तरह की पाबंदियाँ लगाने की कोशिश की, लेकिन वह बच्ची नहीं मानी। कौन जानता था कि जिस आठ साल की बच्ची ने’ साइमन कमीशन’ का विरोध किया था, वह बड़ी होकर स्वाधीनता की लड़ाई में एक नया आयाम जोड़ देगी।
पढ़ाई छोड़ कर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में सक्रिय
उषा की आँखों में एक अलग ही सपना था जब गांधीजी ने 9 अगस्त, 1942 को मुंबई में अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का आह्वान किया, उस वक़्त उषा मेहता ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय हो गई।
‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के आहवान के बाद गांधीजी समेत कई काग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गए कुछ युवा नेता इस आंदोलन की अलख जगा रहे थे, लेकिन उनकी आवाज़ जनता तक नहीं पहुँच पा रही थी और वह बापू के संदेश को पूरे देश में पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील थे।
संदेश पहुँचाने की इसी कोशिश में बंबई में कुछ युवाओं ने एक बैठक की, जिसमें उषा नेहता, विठ्ठलदास झवेरी के अलावा नरीमन प्रिंटर भी शामिल हुए। इस मीटिंग में ‘भारत छोड़ो’ का संदेश अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने के लक्ष्य पर चर्चा हो रही थी। आरंभ में सभी समाचार-पत्र निकालने पर चर्चा कर रहे थे और लगभग तय हो गया था कि एक अख़बार निकाला जाए।
उषा मेहता ने बैठक में अखबारों को लेकर अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की चर्चा की। उन्होंने पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में सक्रिय भाग लेना शुरू कर दिया, लेकिन सिर्फ़ मोर्चा, धरना में हिस्सा लेकर वह संतुष्ट नहीं हुईं। इसके बाद विकल्प पर विचार आरंभ हुआ।
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जब उषा मेहता ने कांग्रेस रेडियो से जुड़ गई
उषा मेहता ने रेडियो की चर्चा की तो सारा ध्यान नरीमन प्रिंटर की ओर गया। कुछ ही समय पहले नरीमन ब्रिटेन से रेडियो की तकनीक सीखकर भारत लौटे थे। थोड़ी देर बाद यह निश्चित हुआ कि स्वाधीनता के विचार को जनता तक पहुँचाने के लिए गुप्त रेडियो आरंभ किया जाए।
उषा मेहता को समाचार पढ़ने की जिम्मेदारी दी गई। नरीमन और उषा मेहता ने साथ मिलकर पुराने ट्रांसमीटरों को जोड़कर गुप्त रेडियो सेवा आरंभ की। उन्होंने कुछ मित्रो की मदद से गुप्त प्रसारण सेवा शुरू करने के लिए एक गुप्त रेडियो की स्थापना की। उनके अलावा विट्ठल भाई जवेरी नामक एक अन्य देशभक्त भी गुप्त रेडियो की योजना बना रहे थे। उषा मेहता और सहयोगी बाबूभाई प्रसाद का ‘कांग्रेस रेडियो’ ज़्यादा सक्रिय रहे। उनका अपना ट्रांसमीटर स्टेशन और रिकार्डिंग स्टेशन था। उसकी अपनी विशिष्ट ‘वेव लाइन’ भी थी।
पुराने ट्रांसमीटर आदि जुटाने में शिकागो रेडियो के उस समय के मालिक ननका मोटवाणी ने उन युवाओं की मदद की थी। हौसले को पंख लगते देर नहीं लगी और 14 अगस्त, 1942 को किसी अज्ञात स्थान पर इस गुप्त रेडियो की स्थापना की गई। पहला प्रसारण हुआ। 14 अगस्त, 1942 को उनके गुप्त रेडियो ने संदेश भेजा, ‘यह कांग्रेस रेडियो है और 42.84 मीटर पर हिंदुस्तान की किसी जगह से प्रसारित हो रहा है।’ उषा मेहता का मुख्य काम समाचार प्रसारित करना और हिंदुस्तानी में वार्ताएँ प्रसारित करना था। इसी रेडियों स्टेशन ने पहली बार चटगाँव बम हमले की सूचना दी थी।
उषा मेहता की आवाज़ गूंजी। उन्होंने कहा-“ये कांग्रेस की रेडियो सेवा है, जो भारत के किसी हिस्से से प्रसारित की जा रही है।” इस पहले प्रसारण में उषा मेहता ने रेडियो की फ्रीक्वेंसी भी बताई थी। गुप्त रेडियो के प्रसारण से अंग्रेजों के कान खड़े हो गए।
अंग्रेजों ने इसके बारे में पता लगाना आरंभ कर दिया। गुप्त रेडियो के प्रसारणकर्ता एक प्रसारण के बाद जगह बदल देते थे। इस पर गांधी के विचारों का प्रसारण भी होने लगा। अंग्रेजों की परेशानी बढ़ने लगी और उन्होंने खोजबीन तेज कर दी।
डॉ. लोहिया, अरुणा आसफ अली के भी संदेश इससे प्रसारित होते थे। पुलिस क्योंकि, पीछे पड़ी थी, इसलिए रेडियो का प्रसारण-स्थल बार-बार बदलना पड़ता था। आखिरकार तीन महीने से कुछ अधिक समय बाद अंग्रेजों ने नवंबर 1942 में प्रसारण स्थान का पता लगा लिया और 12 नवंबर की रात को पुलिस ने छापा मारकर उषा मेहता, बाबूभाई प्रसाद और उनके सहयोगियों को पकड़ लिया।
सरकार छह महीने की कड़ी पूछताछ के बावजूद पुलिस उषा मेहता से कुछ न उगलवा सकी। उन पर अवैध वायरलैस टेलीग्राफ रखने और उसके इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया। उषा मेहता को चार साल की सजा हुई, वह अप्रैल 1946 तक जेल में रहीं।
मुकदमा चलता और उनको चार साल की जेल की सजा हुई। इस गुप्त रेडियो का प्रसारण तीन महीने ही हुआ, लेकिन इन तीन महीनों में उषा मेहता ने अपने प्रसारण से जनता को जागरूक करने का कार्य किया और युवाओं में यह विश्वास भी भर दिया कि स्वाधीनता के आंदोलन में तकनीक का सहारा लिया जा सकता है।
स्वाधीनता के बाद उषा मेहता का जीवन
स्वाधीनता के बाद उषा मेहता ने शिक्षा और समाज सेवा को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। उन्होंने गांधीजी के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों पर पीएचडी की और बंबई विश्वविद्यालय में अध्यापन आरंभ किया।
बाद में वह नागरिक शास्त्र एवं राजनीति विभाग की प्रमुख बनीं। इसी के साथ वह विभिन्न गांधीवादी संस्थानों से जुड़ी रहीं। उन्होंने अपने गांधीवादी प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए महिलाओं को जोड़ा। उन्हें गांधी स्मारक निधि का अध्यक्ष चुना गया और वह गांधी शांति प्रतिष्ठान की सदस्य भी थीं। भारत सरकार ने उन्हें पद्म-विभूषण से सम्मानित किया गया।
उषा मेहता का योगदान इस मायने में विशिष्ट हैं कि उन्होंने उस समय रेडियो तकनीक का सहारा लिया और रेडियो का इस्तेमाल हथियार के रूप में किया। जब इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। उनका निधन अस्सी वर्ष की उम्र में वर्ष 2000 में हुआ।
संदर्भ
Usha Thakkar, Congress Radio: Usha Mehta and the Underground Radio Station of 1942, Penguin,2021
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में