पटना का अफीम और चीन का कुख्यात अफीम युद्ध
सन 1541 ई. में जब शेरशाह पटना के सामरिक महत्व को समझते हुए यहां किले का निर्माण करवा रहा था तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि करीब तीन सौ वर्षों के बाद यहां से हजारों मील दूर चीन में हुए कुख्यात ‘अफीम युद्ध’ में पटना में उत्पादित अफीम की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
किले के निर्माण के बाद पटना तेजी से तरक्की करते हुए एक महत्वपूर्ण बड़ा शहर बन गया। इसके 45 वर्ष बाद 1586 ई. में अंग्रेज व्यापारी राल्फ फिच जब पटना आया तो उसने कुछ अफ़ीमचियों को शहर में एक किनारे पड़े देखा। मुग़लों के समय में पटना और उसके आस-पास अफीम का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो रहा था।
पटना उस वक़्त तक अफीम और उम्दा किस्म के सूती कपड़े के बड़े केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। लेकिन इसकी खपत स्थानीय बाजार में कम थी क्योंकि अफीम का सेवन करने वालों को सामाजिक तौर पर बहिष्कृत कर दिया जाता था। यहां व्यापार कर रहे डचों द्वारा इसका निर्यात चीन और पूरब के दूसरे देशों को किया जा रहा था। वे स्थानीय किसानों को अफीम की खेती के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। किसानों को भी भारी मुनाफा हो रहा था, इसलिए अधिकतर किसान दूसरे फसलों को छोड़ अफीम की खेती करने लगे।
1757 में प्लासी युद्ध के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल की दीवानी मिली तो उसका हिंदुस्तान के उन जगहों पर भी नियंत्रण हो गया
जहाँ अफीम का उत्पादन होता था। उस वक़्त पटना के कुछ व्यापारी रैयतों से सीधे-सीधे अफीम खरीद कर उसे डच व्यापारियों को चिनसुरा,
फ्रांसीसियों को चंद्रनगर और अंग्रेजों को कलकत्ता में बेचते थे। मुगलों के समय वे सालाना पेशकश देते थे। 1773 में वारेन हेस्टिंग्स ने अफीम पर व्यापारियों का नियंत्रण ख़त्म कर उसे कंपनी के अधीन कर लिया।
ब्रिटेन और चीन का व्यापारिक संघर्ष
यह वह समय था जब ब्रिटेन में चीन की चाय, सिल्क और पोर्सिलेन की जबरदस्त मांग थी। ब्रिटेन के अभिजात्य लोगों के बीच इन वस्तुओं का
क्रेज था। जबकि चीन में ब्रिटेन या यूरोप में बनी किसी भी वस्तुओं की कोई मांग नहीं थी। चीन अपनी जरूरत की चीजों का कमोबेश उत्पादन कर ले रहा था। 18वीं सदी के आखिर तक ब्रिटेन हर साल कैंटोन (अब ग्वांगझू) से 60 लाख पाउंड की चाय का आयात करने लगा था।
कैंटोन, दक्षिणी चीन में मैथेसन एंड कंपनी का मुख्यालय था, जिसके मालिक स्कॉटलैंड के दो कारोबारी- विलियम जार्डाइन और जेम्स मैथेसन थे। चीन में केवल कैंटोन से ही विदेशियों को कारोबार की अनुमति थी।
उन दिनों चीन में अफीम बहुत लोकप्रिय था। चीन की देसी चिकित्सा पद्धति में अफीम का प्रयोग हज़ारों साल से होता आ रहा था, लेकिन 15वीं सदी आते-आते स्थानीय निवासी इसे नशे के तौर पर इस्तेमाल करने लगे थे। फलस्वरूप 1729 ई. में चीनी सम्राट योंगझोंग ने चीन में अफीम की खरीद-बिक्री और सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया था।
ऐसे में अंग्रेजों ने चीनी तस्करों का एक ऐसा सिंडिकेट तैयार किया जो चीनियों को अफीम का अभ्यस्त बनाने लगी। शीघ्र ही लाखों चीनियों को इसकी लत लग गयी। अंग्रेज तो यही चाहते ही थे। चीनी तस्कर उनका लाभ उठाने लगे। और ब्रिटिश उन चीनी तस्करों का। ईस्ट इंडिया कंपनी चोरी-छुपे चीन के बन्दरगाहों तक अफीम पहुँचाने लगी। वहां से बिचौलियों के मार्फ़त यह चीन के अंदरुनी इलाकों में पहुँचने लगा। कंपनी अफीम का भुगतान चांदी में लेती थी।
अग्रेजों ने लगवाई पटना में अफीम फैक्ट्री
अफीम की मांग को पूरा करने के लिए अंग्रेजो ने पटना में अफीम की एक फैक्ट्री लगाई। यह वर्तमान गुलजारबाग़ प्रेस के परिसर में था अफीम की यह फैक्ट्री बहुत ही उन्नत किस्म की थी। यहां बहुत बड़े पैमाने पर अफीम का उत्पादन होने लगा। एक निपुण कारीगर से एक दिन में अफीम के सौ गोले तैयार करवाया जाता था।
तब इन अफ़ीमों को नेपाल से आयातित लकड़ी से बने बड़े-बड़े संदूकों में भर कर गंगा नदी के सहारे कलकत्ता भेज दिया जाता था परिष्कृत अफीम को कंपनी भारी मुनाफे के साथ कलकत्ता के मार्फ़त चीन निर्यात कर देती थी। कंपनी के राजस्व का मुख्य श्रोत अफीम और जमीन से मिलने वाला टैक्स ही था। पटना वस्तुतः अफीम व्यापार का पर्याय बन गया था।
अब चांदी का बहाव उलटी दिशा में होने लगा। पहले जो चांदी ब्रिटेन से चीन आ रही थी, वह अब वापस ब्रिटेन जाने लगी। कुछ दिनों के बाद चीन में बढ़ती अफ़ीमचियों की संख्या और ब्रिटेन की ओर चांदी के प्रवाह ने तत्कालीन चीनी शासक दाओगुआंग को चौकन्ना कर दिया। 1839 ई.में दाओगुआंग ने नशीले पदार्थों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।
दाओगुआंग ने अपने एक विश्वस्त और ईमानदार अधिकारी लिन झीयु को इन सबसे निपटने के लिए नियुक्त किया। उसने दो तीन दिन के
अंदर ही पटना से भेजे गए अफीम के 20,000 (करीब 1210 टन) बड़े संदूकों और 40,000 ओपियम पाइप्स को जब्त कर उसे नष्ट कर दिया और कई व्यापारियों को जेल में डाल दिया।
चीन और ब्रिटेन का गैर बराबरी की संधि
इससे परेशान होकर कारोबारी विलियम जार्डाइन, कैंटोन से लंदन की ओर रवाना हो गया और चीन पर जवाबी कार्रवाई की पैरवी की। क्योंकि अंग्रेज़ सरकार को अफीम के ज़रिए बड़ा राजस्व मिल रहा था, इसलिए उसने भी बिना कोई वक़्त गंवाए चीन में अपनी नौसेना को भेज दिया। यहीं से अफीम युद्ध शुरू हुआ।
ब्रिटेन से 16 युद्धपोत और 27 जहाज चीन की तरफ भेज दिए गए। यद्यपि चीन इस हमले के लिए तैयार था, लेकिन उसके पास ब्रिटेन जैसा कौशल नहीं था। उसे बहुत बुरी हार झेलनी पड़ी उसे। हारे हुए चीन को ब्रिटेन के साथ 1842 में संधि करनी पड़ी, जिसे ‘गैर बराबरी की संधि’ कहा जाता है। चीन को ब्रिटेन को दो करोड़ 10 लाख सिल्वर डॉलर हर्जाने के तौर पर देना पड़ा।
अंग्रेजों ने पटना में अपने अफीम एजेंट बहाल कर रखे थे। इन्हीं एजेंटों में मशहूर चित्रकार चार्ल्स डी’ऑयली भी था। पटना में उसने लिथोग्राफी प्रेस की स्थापना भी की थी। इसी लिथोग्राफी प्रेस में उसने कई ‘पटना कलम’ के कई चित्रों को छाप कर इंग्लैंड भेजे थे। 1911 ई. में हुए चीन के साथ एक अन्य समझौते के बाद ब्रिटेन ने धीरे धीरे अफीम का उत्पादन बंद कर दिया। अफीमके कारखाने बंद कर दिए गए। पटना का कारखाना भी बंद कर दिया गया।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. राल्फ फिच, इंग्लैंड’स पायनियर तो इंडिया एंड बर्मा; हिज कंपनेनियंस एंड कंटेम्पोररीज, विथ हिज रिमार्केबल नैरेटिव टोल्ड इन हिज ओन वर्ड्स- जॉन रेली हॉर्टन रैली, पब्लिशर- टी फिशर अनविन -1899
2. पटना पेंटिंग, मिल्ड्रेड आर्चर, द रॉयल इंडिया सोसाइटी, डेविड मार्लो लिमिटेड 1948
3. पटना डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, ओ’ मैली 1924
4. बाजार इंडिया, आनंद ए.यंग, मुंशीराम मनोहरलाल पब्लिशर्स, 2000
5. द फर्स्ट ओपियम वॉर/द एंग्लो-चाइनीज़ वॉर ऑफ़ 1839-1842, पीटर.सी.पर्ड्यू
6. ब्रिटिश ट्रेड एंड द ओपनिंग ऑफ़ चाइना – 1800-42. माइकल ग्रीनबर्ग
7. पटना खोया हुआ शहर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019