औरतों को लेकर मिथक : थोड़ी हकीकत ज्यादा फसाना
औरत व आदमी भले ही एक दूसरे के पूरक हों लेकिन उनके स्वभाव में विरोधाभासों की कोई कमी नहीं है। शायद उनके स्वभाव के अंतर को देखकर ही यह कहा गया होगा कि ‘मेन आर फ्राम मार्स एंड वुमेन आर फ्राम वीनस’। यही वज़ह है कि उनके बीच एक दूसरे को लेकर मिथक भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। आइए जानते हैं पांच ऐसी ही बातों को जो महिलाओं के बारे में सच होने का भ्रम फैलाती हैं लेकिन दरअसल हक़ीक़त से कोसों दूर हैं।
घोड़े पर आएगा बांका राजकुमार
अव्वल तो पैदा होते ही शादी के सपने नहीं बुनने लगतीं हमारे जिम्मे और भी तो काम हैं करने को। पता नहीं ऐसी कहावतें किस वक़्त जन्मीं होंगी। उस दौर में शायद लड़कियों के पास सज संवर का विवाह की प्रतीक्षा करने के अलावा दूसरा कोई काम होता ही नहीं होगा। लेकिन अब तो दूसरा वक़्त है। हम ओलंपिक्स से लेकर स्पेस तक अपने झंडे गाड़ रहे हैं। ऐसे में यह बात कुछ उटडेटेड-सी लगती है। इसलिए हे लड़कों प्लीज, बन ठन के टशन में हमारे आगे पीछे घूमना बंद करो यार।
एक और बात हाँ, हम चाहती हैं कि हमारा साथी बांका छबीला हो लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह हर जगह हमारी कमर के इर्दगिर्द हाथ डालकर हमें प्रोटेक्ट करता फिरे। क़सम से बहुत इरिटेटिंग लगता है ऐसा बिहैवियर। अगर वह अपने अपोनेंट का ताकत से नहीं बल्कि अपने विट और ह्यूमर से हरा दे तो यह हमारे लिए ज़्यादा ख़ुशी की बात होगी।
माफ कीजिए यह सोशल सर्विस नहीं हैसजना है मुझे सजना के लिए.. सौदागर फ़िल्म के इस गाने ने तो जीना मुहाल कर रखा है। नहीं-नहीं वैसे गाना अच्छा है, हम भी अक्सर गुनगुनाते हैं लेकिन इसे सुनते-सुनते लोगों को ऐसा लगने लगा है मानों हमारे सजने संवरने का बस एक ही मकसद है-अपने सो कॉल्ड प्रियतम को रिझाना। अरे जनाब और भी ग़म हैं ज़माने में सजने संवरने के सिवा! रवींद्र जैन साहब आपने न जाने कौन से जन्म की दुश्मनी निकाली है यह गीत लिखकर?
वैसे तो को-एड संस्थान हमारे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मायने रखते हैं लेकिन मुसीबतें यहाँ भी पीछा नहीं छोड़तीं। लड़कों को यह बात समझाना कितना मुश्किल है कि उनसे दो मिनट हंस कर बात कर लेने का यह मतलब नहीं है कि हम उसमें इंटरेस्टेड हैं या उनकी तरफ़ आकर्षित हैं। उनका भी कसूर नहीं है कसूर तो हमारी सोसाइटी का है जो बचपन से ही लड़कों के जेहन में यह बात डाल देती है कि लड़की हंसी तो फंसी। अमां यार, हम भी तुम्हारी तरह इंसान ही हैं। कोई बात अच्छी लगती है तो हंस देते हैं, बुरी लगती है तो दुखी होते हैं या रोकर मन हल्का कर लेते हैं। आपको ऐसा क्यों लगता है कि हम फंसने के लिए तैयार बैठे हैं।
टॉप जॉब के लिए परफेक्ट हैं हम
यह कहने में भी गुरेज नहीं किया जाना चाहिए कि यह एक तरह से लैंगिक भेदभाव भरी टिप्पणी है। एक के बाद एक विभिन्न शोधों से यह बात सामने आ चुकी है कि महिलाएँ शीर्ष पद संभालने के मामले में पुरुषों से कतई कमतर नहीं होती हैं। बल्कि बचपन से ही घरेलू जिम्मेदारियाँ संभाल रही महिलाओं में प्रबंधन की क्षमता पुरुषों के मुकाबले अधिक होती है। नैसर्गिक रूप से मौजूद विनम्रता उनको अपने सहयोगियों और कर्मचारियों का भरोसा जीतने में मदद करती हैं और वे उनको साथ लेकर आगे बढ़ती हैं। प्राय: ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं कि चूंकि महिलाओं को परिवार और करियर के दो मोर्चों पर जूझना पड़ता है इसलिए वह करियर को लेकर गंभीर नहीं होती हैं।
लेकिन ऐसा हरगिज़ नहीं है, इस बात को एक दूसरे पहलू से देखें तो तस्वीर ज़्यादा साफ़ नज़र आती है। अगर कोई महिला पारिवारिक जिम्मेदारियाँ संभालते हुए भी अपने करियर को आगे बढ़ा रही है तो इससे साफ़ जाहिर होता है कि वह करियर को लेकर गंभीर होने के कारण ही दोहरी मेहनत कर रही हैं। इन औरतों की करियर को लेकर प्रतिबद्घता पर भला कैसे शक किया जा सकता है?
क्या इंदिरा नूई, चंदा कोचर, मेग व्हिटमैन और ऐसे ही तमाम उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि महिलाएँ करियर को बहुत सधे हुए तरीके से आगे बढ़ा सकती है।
न औरतों से दुश्मनी न शॉपिंग से प्रेम
दूसरी बात यह मानना बंद कीजिए ही तमाम महिलाएँ शॉपिंग की दीवानी होती हैं। आपको सच जानना हो तो टीवी सीरियल्स की दुनिया से बाहर निकल उस समाज के बंद दरवाजों के पीछे झांकिए जहाँ क़दम कदम पर मर्दवादी ताले पड़े हुए हैं। आपको जाने कितनी औरतें चारदीवारी में बंद एक दूसरे का सहारा बनती नज़र आएंगी।
द्वेष और षड्यंत्र की जिस दुनिया की कल्पना हम महिलाओं के आपसी रिश्तों में करते हैं वह दुनिया महिला या पुरुष से इतर हर किसी के लिए एक समान विद्यमान है। कृपया इसे औरतों के लिए सीमित न करें। लोगों को लगता है कि शॉपिंग करके हमें जीवन की तमाम खुशियों मिल जाती हैं लेकिन हक़ीक़त ऐसी नहीं है।
आखिर कितने ऐसे पुरुष हैं जिनको यह पता होगा कि उनके घर में कौन-सी चीज घटी हुई है। किराने से लेकर पति के कपड़ों तक ज्यादातर चीजें खरीदने का जिम्मा जब वाइफ पर होगा तो यह उसका शौक हुआ या मजबूरी? हाँ यह ज़रूर है कि जब मजबूरी में इतना कुछ करेंगे तो थोड़ा बहुत तो अपने शौक के लिए भी करना बनता है।
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न पैसे से प्यार न ही बातूनी हैं हम
एक बात साफ-साफ समझ लो यह जो तुम रोज़ रोज मेरे सामने पैसे के किस्से उछालते रहते हो ना कि यह प्रॉपर्टी इतने की है, वह गाड़ी या मोबाइल उतने का है। जब तुम रुपये-पैसे के आंकड़ों का ज़िक्र करते हो न तो मेरे सिर पर वे कंकड़ की तरह बरसते हैं। मेरे लिए इतना काफ़ी है कि हम दोनों वक़्त अच्छा खाना खाएँ, ठीकठाक कपड़े पहनें और एक दूसरे के साथ थोड़ा क्वालिटी टाइम बिताएँ। अगर हमारे बीच स्नेह नहीं होगा, एक दूसरे को लेकर चिंता और फ़िक्र नहीं होगी, आपसी सम्मान नहीं होगा तो ये रुपये पैसे भला किस काम आएंगे पार्टनर?
ईमानदारी से ज़रा दिल पर हाथ रखकर कहिए न आखिरी बार कब आपने हमारी बात को तवज्जो देकर सुना था और उस पर अपनी राय दी थी। नहीं आपके पास उसके लिए वक़्त नहीं है, आप दिन भर ऑफिस में या काम पर व्यस्त रहते हैं और लौटने पर अगर हम दिल की कोई भी बात शेयर करना चाहें तो आपके पास रेडीमेड जवाब होता है-यार काम से थक कर आया हूँ दिमाग़ मत चाटो। अब आप ही बताइए ऐसे में हमारे पास किसी तरह अपनी बात कहने के अलावा क्या दूसरा कोई चारा बचता है? नहीं।
पूजा सिंह
भोपाल से पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद दैनिक भास्कर, नेटवर्क-18, इंडो-एशियन न्यूज सर्विस, तहलका में वरिष्ठ उप सम्पादक में काम किया।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में