सरदार उधम सिंह : सत्य हमेशा मेलोड्रामा से ज्यादा मार्मिक होता है।
निर्देशक शुजीत सरकार अपने सिनेमा में यथार्थ और ड्रामा को एक चौराहे पर लाकर खड़ा कर देते हैं जहां वे एक दूसरे का रास्ता काटते दिखते हैं। ‘सरदार उधम’ को इस नज़रिए से एक सफल प्रयास माना जा सकता है कि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक पारंपरिक दिक़्क़त को दूर करने का प्रयास किया है।
वह दिक़्क़त ये है कि इन फिल्मों में अंग्रेजी शासकों व भारतीयों को ‘अच्छे’ व ‘बुरे’ की स्याह और सफेद तस्वीर में दिखाया जाता रहा है।
अंग्रेज कोई राक्षस नहीं थे। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद एक विचारधारा है, पूरा एक सिस्टम है। जब तक आप उस मानसिकता को नहीं समझ पाएंगे जिसने दूसरों पर अत्याचार और शोषण करने करने का रास्ता दिया, तब तक उसका प्रतिकार थोथा ही है।
2001 में भगत सिंह पर फिल्मों की बाढ़ सी आ गई थी जिनमें एक फिल्म, जिसमें बॉबी देओल ने अभिनय किया था, भगत सिंह की विचारधारा पर पर्दा डाल कर उन्हें ऐसा दिखने का प्रयास थी मानो वे बस अपनी जान देने को आतुर थे। अजय देवगन के अभिनय वाली ‘दी लेजन्ड ऑफ भगत सिंह‘ इस मामले में बेहतर थी चूंकि उसने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और भगत सिंह के लेनिन से प्रेरित होने का मुद्दा उठाये । लेकिन शायद समय का तकाजा ही था कि उस समय अंग्रेजों की मानसिकता समझने की कोशिश नहीं की जा सकती थी।
जिस तरह से फिल्म में उधम सिंह का चरित्र है- अतीत की परछाइयों से लिपटा, बर्फ जैसा, वैसी ही शांति से निर्देशक ने ब्रिटिश अधिकारियों की मानसिकता को टटोलने का प्रयास किया है। जलियाँवाला बाग त्रासदी के समय पंजाब के गवर्नर रहे माइकेल ओ ड़वायर के यहाँ उधम सिंह ने हक़ीक़त में कोई नौकरी नहीं की, पर निर्देशक ने ‘क्रिएटिव लिबर्टी ‘ के हिसाब से यह दृश्य जोड़ा है, ताकि पता चले कि डायर को कोई मलाल नहीं था।
दरअसल माइकेल ओ ड़वायर आयरिश थे लेकिन उन्हें अपने देश में हो रहे ब्रिटिश अत्याचार से ही कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और वे आईसीएस की परीक्षा देकर आराम से उनकी नौकरी करने लगे।
उन्होंने रेजिनाल्ड डायर को पंजाब में मार्शल ला लगाने की इजाजत दी ही इसलिए चूंकि उन्हें लगता था कि भारतीय बेकार में उपद्रव और हिंसा करना चाहते हैं। वे अपने देश में हुए आयरिश अकाल और मरते लोगों से संवेदना नहीं रख पाए तो नस्लवाद से प्रभावित उस समय में भारतीय लोगों के दर्द से क्या ही रखते। इधर रेजिनाल्ड डायर खुद को बहुत कड़क सैनिक अफ़सर मानते थे पर जलियाँवाला बाग में लाशों के अंबार और खून की नदियों ने उन्हें भी झकझोर दिया। फिल्म में उन्हे अपने किए को सही ठहराते हुए और अंतरात्मा पर पड़ रहे बोझ पर पर्दा डालते देखा जा सकता है जब वे कहते हैं “मैंने अपने देश के लिए यह सब किया”।
उन्हें शायद डर भी था कि इतनी भयावह त्रासदी के बाद उनपर गाज गिरेगी। डायर उस गोलीकांड के चंद सालों बाद ही लकवे और ब्रेन हैमरेज से गुज़र गए। ये बीमारियाँ उनकी अंतरात्मा द्वारा किया गया न्याय ही था। फिल्म यह भी बहुत शांति और स्पष्टता से बात देती है कि ड़वायर और डायर के नाम में कन्फ़्युशन होने की वजह से उधम सिंह ने गोली नहीं चलाई थी, वे जानते थे वे क्या कर रहे हैं।
विकी कौशल ने जिस किरदार को निभाया उसे इरफान को करना था पर उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। कौशल ने बहुत अच्छी कोशिश की है। उधम जिस त्रासदी से इतने परिपक्व हो गए, उस मुर्दा शांति को दिखाना आसान नहीं। पर साथ-साथ हाइड पार्क में ‘फ्री स्पीच’ वाला सीन यह दर्शाता है कि वे कितने घायल थे भीतर से।
उनकी जिद एक इंसानी जिद थी न्याय को लेकर, किसी पागल हत्यारे की नहीं। मगर सबसे जरूरी बात यह कि बिना किसी शोर-शराबे या नारेबाजी के फिल्म यह तय कर देती है कि उधम सिंह एक समाजवादी थे और अपने विचार के प्रति प्रतिबद्ध।
पर फिल्म आखिरी आधे घंटे जैसे उस फोड़े की तरह फूट पड़ती है जो बरसों से दुख दे रहा था। जलियाँवाला बाग का चित्रण बहुत फिल्मों में हुआ है, किन्तु जिस डीटेल के साथ इस फिल्म में हुआ वह कई मायनों में हमारी आंखें खोलता है कि एक त्रासदी असल में कैसी हो सकती है।
यदि आप किसी भी जलसे में जाएँ और पुलिस को देखें तो यह समझ सकते हैं कि भीड़ में वे लोग थे जो अपने डर को पीछे छोड़कर आए थे। जब बंदूकें तानी गईं तो जो डर भीड़ में एक पल के लिए छाया वह भय भले ही एक काल्पनिक चित्रण हो, पर सच के बहुत करीब था। उसके आगे जो हुआ उसे फिल्म में जैसा दिखाया गया है उसे देखना एक अनुभव है जिससे गुजरना सिनेमा की विधा को सार्थक करता है।
शुजीत सरकार ने 2018-19 में ही सारी शूटिंग की थी अतः शोध, लोकेशन व सिनेमेटोग्राफी बेजोड़ है। शूटिंग हर उस देश में हुई जहां से उधम सिंह का वास्ता है। मुझे लगता है उन्होंने शायद एक दो तथ्य इधर उधर किए भी हों, पर इतिहास के साथ न्याय किया है। द्वितीय विश्ववयुद्ध की छाया से लेकर तमाम मुक्ति आंदोलनों का चित्रण सधा हुआ है। यहाँ तक कि यह भी ध्यान रखा गया है कि चूंकि ड़वायर आयरिश थे, अतः आयरिश अभिनेता शॉन स्कॉट ही वह किरदार निभाएँ। इस तरह सत्य को परत-दर-परत उजागर करना बहुत जरूरी है।
सत्य हमेशा मेलोड्रामा से ज्यादा मार्मिक होता है।
(‘सरदार उधम सिंह’ अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है)
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।