Editorial : मुद्दों को भटकाने का साधन नहीं बनने देंगे इतिहास को
हंगामाखेज रहे पिछले कुछ दिन। पहले किसान आंदोलन के बीच एक दलित की बर्बर हत्या और फिर सावरकर को लेकर हंगामा। जिस तरह देश दो ध्रुवों में बंट गया है, लाज़िमी है कि हर मुद्दे पर सीधे दो राहे बन जाते हैं, इन मुद्दों पर भी बने।
पहले बात सिंघू बॉर्डर पर हुई जघन्य हत्या की
ख़बर पुरानी हो चुकी है लेकिन यह एक ऐसी बीमारी है जो पुरानी होने के साथ-साथ और खतरनाक होती जा रही है। धर्म का या धार्मिक चिह्नों का अपमान एक ऐसा मुद्दा है कि इस पर तर्क क़ानून वगैरह सब एक किनारे कर दिया जाता है। हालांकि हमारे देश में कभी ईशनिंदा क़ानून नहीं रहे लेकिन ऐसी घटनाओं की कोई कमी नहीं रही। जो समाज अपने लोगों के साथ हुए अन्यायों पर खामोश रहते हैं, वे धार्मिक प्रतीकों के अपमान पर ज़मीन आसमान एक कर देते हैं।
मेरे कुछ साधारण से सवाल हैं। हर धर्म में ईश्वर को सर्वशक्तिमान कहा गया है। यानी उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता। तो अगर ऐसी हरक़त पर उसका खून नहीं खौलता, उन नादानों को वह सज़ा नहीं देता तो उसके शिष्यों को क्या हक़ है सज़ा देने का? ईश्वर के सामने तो सबको बच्चा ही माना जाता है न, तो छोड़ दीजिए उसके ऊपर कि वह किस बच्चे को सज़ा देगा और किसे माफ़ करेगा।
कोई काग़ज़, कोई किताब, कोई प्रतीक इंसानी जान से बड़ा नहीं। कोई बहाना किसी की हत्या के लिए जायज़ नहीं। एक लोकतान्त्रिक समाज में ऐसी हत्या को कहीं से न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
लेकिन इस बहाने किसानों के आंदोलन को निशाना बनाना?
आश्चर्यजनक रहा कि कुछ लोगों ने इस हत्या के बाद तुरंत किसान आंदोलन पर हमला किया। सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों के लिए तो यह स्वाभाविक था लेकिन बहुजन आंदोलन से जुड़े लोगों के हमले थोड़ा आश्चर्यचकित करने वाले थे। एक अपराध हुआ उसकी कड़ी से कड़ी सज़ा मिले। लेकिन उसकी वजह से आंदोलन कैसे ग़लत हो गया?
क्या MSP सिर्फ़ गैर-दलित किसानों का मामला है? फसलों के उचित दाम न मिलने पर क्या गैर दलित किसान को ही कष्ट होता है? मैं इस तर्क पर नहीं जाऊंगा कि हत्या करने वाले भी दलित थे। लेकिन यह ज़रूर कहूँगा कि एक उत्पीड़न की आड़ में दूसरे उत्पीड़न को सही नहीं ठहराया जा सकता।
राकेश टिकैत के उस इंटरव्यू से मेरी एकदम सहमति नहीं जिसमें आरक्षण को लेकर उनका बयान है।
यह एकदम संभव है कि किसान आंदोलन से जुड़े लोग विचारधारा के स्तर पर उतने परिपक्व नहीं हों।
लेकिन दो राय इस बात पर भी नहीं हो सकती कि जिन मुद्दों को लेकर साल भर से यह आंदोलन चल रहा है वह इस देश के करोड़ों किसानों से जुड़ा है।
दोषी को सज़ा हो और आंदोलन को आगे बढ़ाने तथा सफल करने के हर संभव प्रयास हों।
और इसमें सत्ता के खेल से भी इनकार नहीं किया जा सकता
जिस तरह से तस्वीरें और तथ्य सामने आ रहे हैं, इस जघन्य घटना के पीछे किसी साजिश से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। पंजाब सरकार ने जांच की बात की है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सच सामने आएगा।
सावरकर को वीर बनाने की कायर कोशिशें
चीन द्वारा भारतीय सैनिकों को बंधक बनाए जाने के वीडियो जारी होने के समय ही एक किताब के विमोचन के समय रक्षामंत्री का बयान आया सावरकर को लेकर। कहा गया कि सावरकर ने माफी गांधी के कहने पर मांगी थी। हालांकि हमने इसका विस्तृत जवाब उसी वक़्त दिया था – क्या गांधी के कहने पर माफ़ी मांगी थी सावरकर ने?
लेकिन सोचने वाली बात है कि अचानक दो-दो किताबों का रिलीज और सावरकर पर इतनी चर्चा क्यों है?
भारत रत्न मिले न मिले, कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन आज़ादी के पूरे आंदोलन को सिर के बल खड़ा करने की कोशिश, एक तरफ़ दक्षिणपंथी संगठनों की इस शर्म को छिपाने की कोशिश है कि उनके लोगों ने इस आंदोलन में कोई हिस्सा नहीं लिया था, दूसरी तरफ़ लगातार खस्ताहाल होते जा रहे देश में असल मुद्दों को छिपाने की।
कश्मीर में जिस तरह से हत्याओं का दौर फिर से शुरू हुआ है और प्रवासी मज़दूर वापस लौट रहे हैं वह बताता है कि नारों और ताक़त से समस्याएं हल नहीं होतीं। World Hunger Index में हमारी घटती रैंकिंग बदहाल अर्थव्यवस्था की कहानी कहती है तो बेरोज़गारी आंकड़ों के बाहर सड़कों पर साफ़ दिखने लगी है। लेकिन सरकार की असफलता को सांप्रदायिक मुद्दों और इतिहास के साथ तमाशों से ढंकने की कोशिशें हो रही हैं।
क्रेडिबल हिस्ट्री, इस माहौल में सत्य के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करता रहेगा। हम बहुत जल्द अंडमान निकोबार की सेल्यूलर जेल से जुड़े तथ्यों की एक सीरीज शुरू करेंगे और आपको परिचित कराएंगे उन वीरों से जो न झुके और रुके। जल्द ही हम ‘एक किताब रोज़’ की शृंखला भी शुरू करेंगे जिसमें इतिहास की ज़रूरी किताबों के बारे में बताएंगे। अगर आप भी किसी किताब पर लिखना चाहें तो हमें बताएं – [email protected] पर मेल करके।
हम मिलकर सत्य का संधान करेंगे और असत्य का मुक़ाबला।
आपका
अशोक कुमार पांडेय
प्रबंध संपादक