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जन्मदिन विशेष : अमर शहीद जतिन दास

जेल में 63 दिनों तक अनशन के बाद जतिन दास शहीद हुए तो उनकी उम्र केवल 24 साल थी।

ब्रिटिश पुलिस का दमन, मारपीट, लालच कुछ भी उन्हें तोड़ नहीं पाया। न झुके, न माफ़ी मांगी और न पेटीशन लिखीं। भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और राजगुरु तो फाँसी चढ़े लेकिन जतिन दास जेल के भीतर संघर्ष और प्रतिरोध करते हुए जिस शहादत को प्राप्त हुए वह अद्वितीय है।

 

27 अक्टूबर, 1904 को कलकत्ता में हुआ था उनका जन्म। नौ साल की उम्र में माता और पिता दोनों को खो देने वाले जतिन ने 1920 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और उसी साल असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए और दो बार जेल हो आए। फिर शचीन्द्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए और क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ गए। जब 1921 में  में दक्षिण कलकत्ता के नेशनल स्कूल में देशभर के क्रान्तिकारी संगठनो की बैठक में सान्याल के प्रस्ताव पर सभी दलों और संगठनो को मिलाकर ” हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन ” नामक क्रांति दल गठित किया गया तो जतिन उसके सदस्य बन गए।

दल के लिए ‘ द  रेवोलूशनरी ‘ और ‘पीला पर्चा ” छपवाकर देश भर में वितरण का अहम दायित्व उन्हें सौंपा गया , जिसे उन्होंने बखूबी किया।  फिर उन्होंने दल के लिए पैसा जुटाने के लिए इंडो-बर्मा पेट्रोलियम के पेट्रोल पंप की डकैती के साहसिक कारनामे को बिना किसी बम पिस्तौल के किया था। बाद में उन्होंने बम बनाना सीखा और इसमें महारत हासिल कर ली।

भगत सिंह से मुलाक़ात, बम फैक्ट्री की स्थापना और गिरफ़्तारी और शहादत

जब भगत सिंह कलकत्ता गए तो जतिन दास की उनसे मुलाक़ात हुई और फिर उन्होंने आगरा में बम फैक्ट्री स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

भगत सिंह और दत्त द्वारा दिल्ली में सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट के बाद गिरफ़्तारी दी । फिर हंसराज बोहरा और जयगोपाल की गद्दारी के कारण उन पर सांडर्स हत्याकांड का मुक़दमा चला। इधर फणीश्वर नाथ घोष की शिनाख्त पर 14 जून 1929 को को कलकत्ता से जतिन दास को भी गिरफ्तार करके लाहौर की जेल में भेज दिया गया। जेल मे क़ैदियों से दुर्व्यवहार के खिलाफ़ जब भगत सिंह और साथियों ने अनशन का फ़ैसला लिया तो जतिन उत्साह से उसमें शामिल हुए और सारी तक़लीफ़ों के बावजूद जमानत तक नहीं मांगी। जब लगा अंतिम वक़्त क़रीब आ पहुंचा है तो आखिरी बार साथियों से मिलकर क़ाज़ी नजरुल इस्लाम का गीत ‘ बोलो वीर ,चिर उन्नम मम शीर ‘ और ‘ वन्दे मातरम’ सुनते हुए 27 अक्टूबर, 1928 को शहीद हो गए।

जतिन की इस वीरता से अंग्रेज़ भी सहम गए थे सेंट्रल जेल के अंग्रेज जेलर ने फौजी सलाम से उन्हें सम्मान दिया था और लाहौर के डिप्टी कमिश्नर हैमिल्टन ने भी उनके सम्मान में अपना हैट उतार लिया था।

राष्ट्रवादी नेताओं ने जतिन की शहादत का हृदय से सम्मान किया। दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में उनके निधन पर मोतीलाल नेहरू ने स्थगन प्रस्ताव रखा तो सुभाषचंद्र बोस ने उनका पार्थिव शरीर कलकत्ता ले जाने के लिए ट्रेन में विशेष कूपे का इंतज़ाम किया। कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी और जवाहरलाल नेहरू उनके स्वागत के लिए खड़े थे तो इलाहाबाद में कमला नेहरू के नेतृत्व में भारी भीड़ आई थी। हर स्टेशन पर लोग अपने इस नायक के स्वागत के लिए खड़े थे। कलकत्ता की दीवारों पर उनके सम्मान में नारे लिखे गए थे। कोई सात लाख लोग उनकी अन्त्येष्टि में शामिल हुए और अंतिम श्रद्धांजलि दी।

 

आश्चर्यजनक है कि आज जहाँ सरकारें माफ़ी मांगकर रिहा होने वालों का उत्सव मनाती है वहीं जतिन दास जैसे वीर की स्मृतियों को सँजोने की कोई कोशिश नहीं दिखती। 


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