बिहार के एक गाँव में कश्मीर का इतिहास
[बिहार में कश्मीरी इतिहास का एक ज़र्द पन्ना आज भी साँस ले रहा है। इस गाँव में चक साम्राज्य के आख़िरी शासक युसुफ़ शाह चक और उसके बेटे याकूब शाह चक की क़ब्र है।]
कश्मीर में ग़ुलामी की शुरुआत
चक साम्राज्य के पतन के बाद कश्मीर में ग़ुलामी की शुरुआत मानी जाती है।
हिन्दू- मुस्लिम चश्मे से देखेंगे तो फँस जाएँगे। आख़िर चक साम्राज्य के बाद वहाँ मुग़ल काबिज़ हुए थे। तो एक मुस्लिम के बाद दूसरे मुस्लिम का आना ग़ुलामी कैसे! इतिहास की नज़र विकसित करेंगे तो समझ आ जायेगा। हिन्दू राजाओं का लंबा शासन हो, शाहमीर वंश का शासन हो या कि चकों का, यह सब शासक वहीँ श्रीनगर में रहते थे। वहीँ उनकी क़ब्रें बनीं। लेकिन मुग़ल शासन के बाद से प्रत्यक्ष शासन ख़त्म हो गया। सूबेदार नियुक्त किये जाने लगे और कश्मीर के लिए नीतियाँ बाहर से बनने लगीं। भारतेंदु ने ब्रिटिश शासन पर अफ़सोस जताते हुए लिखा था – पै धन विदेस चलि जात।
अकबर की निगाहें कश्मीर पर लगातार बनी हुई थीं। सीमावर्ती होना लालच की एक वजह थी तो ख़ूबसूरती दूसरी। कोशिश तो उसके पिता ने भी की थी लेकिन क़ामयाब न हो सके थे।
अकबर की चालें
1573 में अकबर ने कश्मीर में दूसरी बार अपने दूत भेजे । ज़ाहिर तौर पर यह शहजादा सलीम और हुसैन शाह चक की बेटी की शादी के प्रस्ताव के लिए था लेकिन असल में उसका इरादा कश्मीर के हालात का जायज़ा लेना था । अली शाह चक ने न केवल अकबर का प्रस्ताव मंज़ूर किया बल्कि केसर, शॉल और तमाम बेशक़ीमती तोहफ़ों के साथ अकबर के नाम के सिक्के ढलवा कर और उसके नाम का ख़ुत्बा पढ़वाकर उसके प्रति असीम सम्मान का भी प्रदर्शन किया ।
1576 में कश्मीर में भयानक बर्फ़बारी के कारण रबी की फ़सल बर्बाद हो गई और अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई तो अली शाह ने रियाया की मदद के लिए हरचंद कोशिश की । उसने ग़रीबों और मजबूरों के लिए अपना ख़ज़ाना खोल दिया । लेकिन यह आपदा इतनी बड़ी थी कि अली शाह की सारी कोशिशों के बावज़ूद अकाल की स्थिति अगले तीन साल तक बनी रही । इसी दौरान उत्तरी कश्मीर में आग लग गई और हालात बद से बदतर होते चले गए ।
शुक पंडित ने इन हालात का वर्णन करते हुए लिखा है कि एक बार बादशाह के दरवाज़े पर भूख से एक हाथी मर गया तो अनेक भूखे लोग वहाँ पहुँच गए और उसकी लाश से मांस काट के ले गए । एक लुहार ने भूख के मारे एक नाई के बच्चे की हत्या कर दी और उसका मांस पकाकर खा गया । अनेक लोग अपनी ज़िन्दगी बचाने के लिए दूसरे देशों में चले गए ।[i] इसी दौरान एक दिन पोलो खेलते हुए अली शाह बुरी तरह से घायल हो गया और नौ वर्षों के शासन के बाद 1579 में उसने अंतिम साँसें लीं ।
युसुफ़ शाह चक- हब्बा ख़ातून और अंत की ओर चक राजवंश
अली शाह की मृत्यु के बाद उसका सबसे बड़ा बेटा युसुफ़ ख़ान सुल्तान युसुफ़ शाह चक के नाम से गद्दीनशीन हुआ ।
युसुफ़ शाह कश्मीर के इतिहास के सबसे रूमानी पात्रों में से एक है । सुन्दर सजीला बाँका युसुफ़ । जंगलों और पहाड़ों में भटकने वाला युसुफ़ । हब्बा ख़ातून का प्रेमी युसुफ़ शाह जिसने गुलमर्ग की ख़ूबसूरत वादियों की तलाश की । हब्बा ख़ातून के क़िस्से के बिना तो यह कहानी फिर कभी ।
कश्मीर में आतंरिक षड्यंत्र तो खैर चल ही रहे थे। अकबर ने इसका फ़ायदा उठाने का तय किया और 1581 के अंत उसने मिर्ज़ा ताहिर और सालिह अक़ील [1] को दूत बनाकर कश्मीर भेजा जिन्होंने उस पर बादशाह की हुक्मउदूली का आरोप लगाया और ख़ुद उसे उनके दरबार में हाज़िर होने का फरमान सुनाया ।
युसुफ़ ने इन दोनों दूतों का हर संभव एहतराम किया, शाही ख़त को चूमकर अपने ताज से छुलाया । अपने मंत्रिमंडल की राय के मुखालिफ़ जाकर बादशाह की सर्वोच्चता स्वीकार की और अपने छोटे बेटे हैदर को शेख़ याक़ूब सर्फी कश्मीरी के साथ ढेर सारे तोहफ़े देकर अकबर के दरबार में भेजा ।
लेकिन अकबर इससे संतुष्ट नहीं हुआ और कुछ ही महीनों बाद उसने हैदर शाह को शाही सेनाओं में सेवा के लिए अयोग्य बताते हुए इस सन्देश के साथ वापस भेज दिया कि युसुफ़ शाह ख़ुद दरबार में हाज़िर हो । इसी बीच हैदर चक और शम्स चक ने फिर से विद्रोह कर दिया जिससे निपटकर 1584 में युसुफ़ ने अपने बड़े शहजादे याक़ूब को अकबर के दरबार में भेजा । लेकिन स्थितियाँ लगातार बिगड़ती जा रही थीं । 1585 में अकबर ने एक बार फिर अपने दो दूत,हाकिम अली जीलानी और बहाउद्दीन कम्बू को श्रीनगर भेजकर अपने दरबार में हाज़िर होने का सन्देश भिजवाया । इसी बीच दरबार में उचित व्यवहार न मिलने की शिक़ायत के साथ याक़ूब अकबर को सूचित किये बिना कश्मीर लौट आया ।
अकबर ने इस बार 20 दिसम्बर, 1555 को राजा भगवानदास के नेतृत्व में 5000 सैनिकों को कश्मीर विजय के लिए रवाना किया । उन्हें राह दिखाने के लिए मिर्ज़ा शाहरुख़, शाह क़ुली महराम, शेख़ याक़ूब सरफी कश्मीरी और हैदर चक पथप्रदर्शक के रूप में थे । बिना ग़द्दारों के जीत कहाँ होती है! मौसम की मार के कारण मुग़ल सेना कोई अच्छी स्थिति में नहीं थी लेकिन जब राजा भगवान दास ने उसे समझौता कर अकबर के दरबार में हाज़िर होने का प्रस्ताव दिया तो युसुफ़ शाह ने कश्मीर को तबाही से बचाने के लिए यह प्रस्ताव मान लिया ।
14 फरवरी 1556 को वह शाही कैम्प में हाज़िर हो गया लेकिन उसकी उम्मीदों के ख़िलाफ़ उसे बंदी बना लिया गया ।[ii]
लेकिन कश्मीरी इतनी आसानी से हार नहीं मानने वाले थे उन्होंने याक़ूब शाह के नेतृत्व में लड़ाई जारी रखी । मौसम की मार और कश्मीरियों के उत्साह के आगे मुग़ल सेना को तमाम मुश्किलात झेलनी पड़ीं । मुग़ल सेना की तबाही देखते हुए राजा भगवान दास ने याक़ूब के पास मिर्ज़ा अकबर शाही के हाथों संधि प्रस्ताव भेजा ।
याक़ूब ने संधि का प्रस्ताव मान लिया लेकिन समझौता युसुफ़ शाह और राजा भगवान दास के बीच हुआ जिसमें तय हुआ कि युसुफ़ शाह कश्मीर का शासक बना रहेगा था लेकिन सिक्के अकबर के नाम से ढलेंगे तथा उसी के नाम का ख़ुत्बा भी पढ़ा जाएगा । शॉल उद्योग, केसर की खेती जैसे कुछ विभागों का नियंत्रण मुग़ल अधिकारियों को सौंपने के अलावा इसका सबसे प्रमुख प्रस्ताव यह था कि शहज़ादे याक़ूब ख़ान को अकबर के सामने पेश करने के लिए युसुफ़ शाह निजी तौर पर जिम्मेदार होगा । समझौते को पक्की मुहर लगाने के लिए मुबारक ख़ान गख्खर की बेटी की शादी याक़ूब ख़ान से करवाई गई । अकबर इससे सहमत तो नहीं था लेकिन हालात के मद्देनज़र उसने इसे स्वीकृति दी ।
अकबर का धोखा और क़ैद में युसुफ़शाह
इस शान्ति समझौते के बाद मुग़ल सेना ने कश्मीर छोड़ दिया और 28 मार्च 1556 को युसुफ़ शाह पंजाब के अटक में अकबर के सामने पेश हुआ । अकबर ने उस समय तो उसका सम्मान सहित स्वागत किया लेकिन फिर उसे गिरफ़्तार करके राजा रामदास कछवाह के हवाले कर दिया गया । यह संधि का स्पष्ट उल्लंघन था लेकिन अकबर की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा के आगे इस संधि की कोई क़ीमत न थी । राजा भगवान दास इस घटना से इतना दुखी हुए कि उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की । लेकिन इन सबसे अप्रभावित अकबर ने लाहौर जाकर उसे राजा टोडरमल के हवाले कर दिया जिसकी क़ैद में वह अगले डेढ़ साल तक रहा ।[iii]
बाद में राजा मान सिंह के कहने पर उसे रिहा कर के उसे पाँच सौ घोड़ों का मनसब देकर,ढाई हजार रुपयों की मासिक तनख्वाह बाँधकर बिहार भेज दिया गया जहाँ कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों, संगीतकारों और कवियों की संगत और हब्बा ख़ातून के लिए तरसता तमाम दुश्वारियों के बीच छः दिनों की बीमारी के बाद 22 सितम्बर 1592 को इस दुनिया ए फ़ानी से विदा हो गया ।
उसकी क़ब्र आज भी पटना के इस्लामपुर से तीन मील उत्तर-पूर्व में बिस्वाक परगना में उपेक्षित हालात में है । इस क़ब्र से थोड़ी ही दूर पर एक गाँव कश्मीरीचक के विध्वंस हैं ।[iv]
बिस्वाक में कश्मीरीचक
शेख़ अब्दुल्ला सत्तर के दशक में यहाँ आये तो बिस्वाक गाँव तक जाने के लिए पक्की सड़क बनी।
आज युसुफ़शाह की मज़ार के चारो तरफ़ बनी बाउंड्री टूट चुकी है। क़ब्ज़े हो रहे हैं। वहाँ लगा प्लेक न हो तो किसी को पता भी न चले कि बिस्वाक गाँव में कश्मीरी इतिहास का एक पन्ना पड़ा हुआ है। देखभाल करने वाले यासिर इक़बाल साहब चक परिवार से आते हैं, पेशे से वकील हैं। उनसे फोन पर ही हमारी बात हो पायी।
बताया गया कि गाँव का नाम कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के पिता विश्वा के नाम पर पड़ा था। गाँव में एक मंदिर भी है उनका।
वैसे बिस्वाक गाँव के भीतर नालन्दा के तमाम दूसरे गाँवों की तरह ढेरों बौद्ध प्रतिमाएं यहाँ-वहाँ पड़ी हैं। उन पर लाल टीका लगाकर उन्हें देव मूर्तियों में बदला जा रहा हो जैसे।यह बुद्ध की मूर्ति काले पत्थर की है। लोगों ने बताया कि खुदाई में ऐसे ही निकल आई। गांववालों ने इसे देवमूर्ति बना दिया। साथ मे कुछ और मूर्तियाँ शायद मौर्य कालीन। विष्णु की मूर्ति है। सब पर ख़ूब सेनुर पोत दिया गया है। मैने कहा नष्ट हो जाएंगी तो लोग बस हँस पड़े।
इतिहास बचाना तो हमने सीखा नहीं उसे अपने रंग में रंगने के उस्ताद हैं। गाँव में अन्दर एक और स्ट्रक्चर है। भारी बाउंड्री और गेट बंद। पूछताछ की लेकिन कुछ ख़ास समझ नहीं आया। फिर स्थानीय लोगों ने बताया कि एक चोर दरवाज़ा बनाया गया है दीवार में छेद करके। भीतर गए तो पता चला कोई बौद्ध स्ट्रक्चर है, वह दीवार का छेद उसे इलाके को सुरक्षित शौचालय में बदलने के काम आ रहा था।
अनेक जगहों पर इतिहास का यह हश्र देखकर याद आता है रसूल हमजातोव का वह वाक्य –
जो अतीत पर गोलियाँ दागते हैं, भविष्य उनपर तोप के गोले बरसाता है।
कश्मीर के इतिहास पर विस्तार से जानकारी के लिए मेरी किताब कश्मीरनामा तथा कश्मीर और कश्मीरी पंडित पढ़ सकते हैं.
संदर्भ स्रोत
[1]परिमू ने दूसरे दूत का नाम सालेह दीवाना बताया है (परिमू -267)
[i]शुक- 394-95
[ii]देखें, वही
[iii]देखें, पेज़ 178, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[iv]देखें, वही
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री