काले क़ानून वापस : यह भीख नहीं जीत है।
चौदह महीने तक किसान आंदोलन को बदनाम करके की कोशिशों के बाद आखिर यूपी चुनाव की आहट ने सत्ता के अहंकार को चूर-चूर कर दिया और काले कृषि क़ानून वापस ले लिए गए।
किसान और सिविल सोसायटी के लोग लगातार कह रहे थे कि ये क़ानून भारतीय कृषि को कॉर्पोरेट के हाथ में देने और किसानों की कमर तोड़ देने के लिए बनाए गए हैं। लेकिन सरकार सुनना तो छोड़िए, आंदोलनकारी किसानों से बात तक करने को तैयार नहीं थी। सरकारी भोंपू बन चुके मीडिया चैनलों ने हर संभव कोशिश ही नहीं की इस आंदोलन को नज़रअन्दाज़ करने की, बल्कि इन्हें बदनाम करने की मुहिम में नीचतापूर्ण साझेदारी भी की। इसे खालिस्तानी आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की गई। किसान नेताओं की तस्वीरें ढूँढी गईं। धरनास्थल पर कूलर दिखाकर सवाल किये गए, मानो सुख सविधा सिर्फ़ सत्ता और उसके चाटुकारों का हक़ है।
गांधी का रास्ता : संघर्ष का रास्ता
लेकिन किसानों ने गांधी का रास्ता चुना था। अहिंसक सत्याग्रह। आसान नहीं है चौदह महीने खुले आसमान के नीचे संघर्ष चलाना। आसान नहीं है इस आशंका के साथ खुली सड़क पर सोना कि पुलिस कभी भी हटाने के लिए कुछ भी कर सकती है। आसान नहीं था सब छोड़कर लाम पर डटे रहना।
लेकिन वे डटे रहे। लगातार। निर्भय। जैसा गांधी ने सिखाया था। हथियार नहीं उठाया। पत्थर नहीं चलाए। क्रोध में आपा नहीं खोया। ठंड गर्मी बरसात सब झेला। झेला सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों पर अपमान। लेकिन डटे रहे। सत्याग्रह का झण्डा झुकने नहीं दिया और आखिरकार पहले दौर की जीत मिली। वह शासन झुका जिसने दावे किये थे कि ये क़ानून किसी हाल में वापस नहीं लिए जाएंगे। वह झुका जिसके पत्थर जैसे सीने को 56 इंच बताया जाता है।
मामूली नहीं है यह जीत
सोचकर देखिए कितनी बज़िद थी सरकार कि बातचीत तक को तैयार नहीं थी। बातचीत शुरू भी हुई तो इस अड़ियल रवैये के साथ कि क़ानून तो वापस नहीं होंगे। कृषि मंत्री का रवैया याद कीजिए। पीयूष गोयल के बयान याद कीजिए।
याद कीजिए कि सौ से अधिक किसान शहीद हो गए लेकिन संसद में उनका नाम तक लेने पर तमाशा हुआ। सारी दुनिया घूमने वाले प्रधानमंत्री अपने महल से निकलकर धरना-स्थल पर नहीं पहुँच सके। दिनरात घृणा फैलाने वाले चैनलों पर यह ख़बर भी नहीं बन सकी।
आज अगर झुकी है यह सरकार तो सिर्फ़ इसलिए कि यह आंदोलन सरकार की आँख की किरकिरी बन चुका है। तमाम फ़र्ज़ी दावों के बावजूद यह भारत के गाँव-गाँव में पहुँच चुका है। यूपी, उत्तराखंड, पंजाब जैसे राज्यों में चुनाव हैं और सरकार जानती है कि यह आंदोलन सत्ता की उसकी अंधी दौड़ के रास्ते में ऐसी बाधा है जिसे पार पा पाना उसके बस की बात नहीं। यह जनता की एकता से उपजा डर है।
अब बेशर्मी से होगा उत्सव
वही चैनल जो कल तक किसानों को खालिस्तानी बता रहे थे, हर तरह का तमाशा कर रहे थे, कृषि क़ानूनों के क़सीदे पढ़ रहे थे, अब पूरी बेशर्मी से इन्हें वापस लिए जाने को मास्टर स्ट्रोक बताएंगे, थैंक यू मोदीजी जैसे अभियान चलाएंगे और चुनावों में अपने आका को फ़ायदा पहुँचाने की कोशिश में हर दांव आजमाएंगे।
लेकिन जानते वह भी हैं कि यह लड़ाई वे हार चुके हैं। चुनाव भले तीन-तिकड़म से जीत लिए जाएँ लेकिन किसानों के दिलों में जो घाव दिए गए हैं वे आसानी से भरने वाले नहीं। ये चौदह महीने अब उम्र भर उनके साथ रहेंगे। वह अपमान इस जीत की खुशी में आँखें भरता रहेगा। दोस्त-दुश्मन की पहचान इतनी आसानी से धुंधली नहीं होगी।
अगली लड़ाई एम एस पी के लिए
किसानों की एक प्रमुख मांग थी कि फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक्री सुनिश्चित हो।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी किसानों को उनकी फसल का इतना मूल्य जितनी कि उनकी लागत मिली है। यह मांग न्यायसंगत है। ज़रूरी है कि सरकारी खरीद व्यवस्था गाँव-गाँव तक पहुंचे और छोटा से छोटा किसान अपनी फ़सल कम से कम उस मूल्य पर बेच सके जिससे उसकी लागत निकल आए।
विपक्ष को भी इस मांग को संसद के भीतर तथा बाहर लगातार उठाना ही चाहिए।
सबक
गांधी का अहिंसात्मक सत्याग्रह आज भी दीर्घकालिक संघर्षों के लिए सबसे अचूक रास्ता है।
गांधी नाम के सूरज पर थूकने की कोशिश में अपना चेहरा बदरंग कर चुके लोगों से कहना चाहूँगा – देखो यह जीत है कोई भीख नहीं।
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री