कश्मीर के पहले मुस्लिम राजा रिंचन की कहानी
कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक एक बौद्ध था.
तेरहवीं सदी के आरम्भ तक कश्मीर के शासकों की स्थिति बेहद दयनीय हो चुकी थी. इसी दौर में कश्मीर की सत्ता पर पहली बार एक मुस्लिम बैठा.
यह क़िस्सा मेरी किताब कश्मीरनामा से.
मंगोल दुलचा का आक्रमण और सहदेव का पलायन
जर्जर हो चुके कश्मीरी राज्य पर जब दुलचा (ज़ुल्जू) नामक मंगोल लुटेरे ने बारामूला दर्रे की ओर से शुरूआती गर्मियों में सत्रह हज़ार घुड़सवारों और पैदल सेना के साथ आक्रमण किया तो डामर वंश के राजा सहदेव ने उसका सामना करने की जगह उसे रिश्वत देने की कोशिश की ।
लेकिन उसकी निगाह अब थोड़े पर नहीं पूरे कश्मीर पर थी । सहदेव ने प्रतिरोध की कोशिश भी की, परन्तु करों (Taxes) और अत्याचारों के बोझ से दबी जनता तथा स्वार्थी सामंतों ने उसका कोई साथ नहीं दिया ।[i] नाक़ामयाब होने पर सहदेव जनता को उसका अत्याचार सहने के लिए छोड़ किश्तवार भाग गया ।
मंगोलों ने जी भर के लूटपाट की । उस काल से इस काल तक धन दौलत के साथ दंगाइयों और लुटेरों का सबसे आसान शिक़ार होती हैं औरतें । तो मंगोल सैनिकों ने भी आठ महीनों तक सोना-चाँदी, अनाज लूटने के बाद कश्मीर की मजबूर महिलाओं को अपना शिक़ार बनाया । खेत जला दिए गए, घर लूट लिए गए, जवान पुरुष और बच्चे या तो मार दिए गए या ग़ुलाम बना लिए गए ।
जोनराज ने इस आक्रमण और लूट का जो वर्णन किया है वह हृदयविदारक है । कश्मीर घाटी पूरी तरह से तहस नहस हो गई । उसकी हैवानियत के क़िस्से आज भी कश्मीर घाटी में सुनाये जाते हैं । इकलौती जो जगह कश्मीर में थोड़ी सुरक्षित बची थी वह थी लार, जहाँ सेनापति रामचंद्र ने ख़ुद और अपने परिवार सहित विश्वस्त सैनिकों तथा अनुचरों को क़िले के भीतर क़ैद कर लिया था । आठ महीने बाद जब वहाँ सब नष्ट हो चुका था और लूटने के लिए कुछ नहीं बचा था ।
जाड़े आ चुके थे और खेत उजाड़ पड़े थे । ऐसे में उसने वापस जाने का निर्णय लिया । उसके सहयोगियों ने बारामूला और पाखली के उसी रास्ते से लौटने की सलाह दी जिससे वे आये थे, पर दुलचा ने स्थानीय क़ैदियों से सबसे छोटे रास्ते के बारे में पूछा ।
कहते हैं कि दुलचा से उसकी ज़्यादतियों का बदला लेने के लिए उन्होंने जान बूझकर सबसे ख़तरनाक रास्ते, बनिहाल दर्रे से जाने का सुझाव दिया और लौटते हुए दुलचा दिवासर परगना की चोटी के पास अपने सैनिकों, क़ैदियों और लूट के सामान के साथ बर्फ़ में दफ़न हो गया ।[ii]
इस पूरी विपत्ति में घाटी के निवासियों के मददगार बनकर आये शाहमीर और रिंचन । रामदेव की पुत्री कोटा के साथ मिलकर उन्होंने जितना थोड़ा बहुत संभव हो सका प्रतिरोध भी किया और सहायता भी । रिंचन कोटा से प्रेम में पड़ गया और कोटा ने भी उसे स्वीकृति दी ।
कौन था रिंचन
रिंचन (ला चेन रिग्याल बू रिन चेन) बौद्ध था जो कुबलाई ख़ान की मौत के बाद लद्दाख में मची अफ़रातफ़री में अपने पिता और वहाँ कुबलाई ख़ान के प्रतिनिधि लाचेन की हत्या के बाद अपनी छोटी सी सेना के साथ जो-ज़िला दर्रे से सोनमर्ग घाटी पार कर गंगागीर में सेनापति रामचंद्र के महल में शरणागत हुआ था ।
शाहमीर स्वात घाटी का निवासी था और कहा जाता है कि एक रात उसे ख़्वाब आया कि वह कश्मीर का राजा बनेगा तो इस बिना पर वह सपरिवार श्रीनगर पहुँच गया और राजा के दरबार में उसने रामचंद्र से निकटता बनाई । राजा सहदेव ने उसे बारामूला के पास एक गाँव दावर कुनैल की जागीर दे दी थी ।[iii]
कालान्तर में रिंचन और शाहमीर अच्छे मित्र बन गए ।[iv] हालाँकि उसे लेकर महाभारत के अर्जुन के वंश[v] से लेकर स्वात के शासक परिवार तक के होने की मान्यतायें हैं ।
दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया । उसने लार के अपने क़िले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया ।
भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था । चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी । हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई । जनता की रक्षा के लिए वहाँ कोई नहीं था । उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया ।
रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया । पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाहमीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे धीरे महल के अन्दर भेज कर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी । मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320 को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी । रिंचन ने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया ।
यही रिंचन कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक बना और सुलतान सदर-अल-दीन[1] के नाम से जाना गया ।
रिंचन के मुसलमान बनने की कहानी
रिंचन के इस्लाम अपनाने को लेकर कई मत हैं ।
जोनराज के अनुसार वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव धर्म में दीक्षित करने से इंकार कर दिया ।[vi]
एम जे अकबर ने इस कहानी को यहाँ तक बढ़ाया है कि देवस्वामी ने ब्राह्मणों की सभा बुलाई और उस सभा ने कई दिनों के विचार विमर्श के बाद यह तय किया कि रिंचन को इसलिए हिन्दू नहीं बनाया जा सकता कि ऐसा करने पर उसे उच्च जाति में स्थापित करना पड़ेगा, जो संभव नहीं है ।[vii]
ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने पी एन के बमज़ाई द्वारा उद्धृत प्रसंग को ज्यों का त्यों ले लिया है ।[viii] लेकिन यूनेस्को द्वारा कराए गए शोध में एन ए बलूच और ए क्यू रफ़ीक़ी इसे जोनराज के दिमाग की उपज मानते हैं । उनके अनुसार एक राजा के रूप में यह उसके लिए कोई समस्या थी ही नहीं । वे उन इस्लामी विद्वानों[2] के तर्कों को भी खारिज़ करते हैं जिनके अनुसार रिंचन ने तीनो धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ के बाद इस्लाम को अपनाया या वह बुलबुल शाह[3] के यहाँ अध्यात्मिक शान्ति से प्रभावित हो मुसलमान बन गया था ।
उनकी मान्यता है कि रिंचन का इस्लाम अपनाना किसी नैतिक नहीं बल्कि उस राजनीतिक यथार्थ के चलते था जिसमें उसकी स्वीकृति सिर्फ़ इस्लाम मानने वालों में संभव थी जो अब अच्छी संख्या में कश्मीर में आ चुके थे ।[ix]
बौद्ध धर्म तब तक तमाम विकृतियों का शिक़ार हो हाशिये पर जा चुका था और हिन्दू राजाओं के वंशज अब भी कश्मीर में थे । ऐसे में शाहमीर की सलाह और प्रोत्साहन पर उसने इस्लाम अपनाया ।
कश्मीरी इतिहास के एक अध्येता अबू-फद्ल-अल्लामी भी रिंचन के इस्लाम स्वीकारने के पीछे शाहमीर की ही भूमिका मानते हैं । रिंचन के इस क़दम को दुनिया के अन्य देशों में इस्लाम के प्रभावी होने से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए ।[x] रिंचन के बाद कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम अपनाने वाला व्यक्ति था उसका साला रावणचन्द्र ।[xi]
वजह जो भी लेकिन रिंचन का सदर-अल-दीन हो जाना कश्मीर के इतिहास में एक बड़ी घटना थी । शासक के रूप में वह एक योग्य और क्षमतावान शासक साबित हुआ । जहाँ लावण्य क़बीले (अब लोन) जैसे शत्रुओं का उसने बलपूर्वक दमन किया वहीं रामचंद्र के बेटे को राजदरबार में पिता समान अधिकार देकर उसने उनके असंतोष का शमन किया ।
जोनराज ने उसके शासन काल को “स्वर्ण युग” कहा है, हालाँकि प्रोफ़ेसर के एल भान उस युग को जबरिया धर्म परिवर्तन का युग बताते हैं ।[xii] बहुत संभव है कि सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं हो ।
तथ्य बताते हैं कि सबसे पहले उसके उन बौद्ध अनुयायियों ने इस्लाम अपनाया जो लद्दाख से ही उसके साथ आये थे । ज़ाहिर है कश्मीर में इस्लाम तलवार के दम पर नहीं आया । हिन्दू राजाओं के शासन काल में जिस तरह का पतन हुआ था जनता उससे त्रस्त थी ।
अंधाधुंध कर, मंहगाई, मंत्रियों और सामंती प्रभुओं का भ्रष्टाचार, कृषि क्षेत्र तथा व्यापार में भारी गिरावट और भयावह अस्थिरता ने राजाओं पर से जनता का विश्वास उठा दिया था[xiii], इसलिए जब रिंचन और उसके बाद के सुल्तानों के समय शान्ति और सुव्यवस्था क़ायम हुई तो जनता की ओर से धर्म के आधार पर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ ।
इन राजाओं ने भी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और सभी धर्मों का सम्मान किया ।
धर्म परिवर्तन का दौर चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी में शुरू हुआ । उसने कश्मीरी राजाओं की परम्परा में रिंचनपुरा नामक एक शहर भी बसाया था जो अब श्रीनगर का हिस्सा है । कश्मीर की पहली मस्ज़िद बोदरो मस्ज़िद भी उसी ने बनवाई थी । जो बाद में मुसलमानों और लद्दाखियों, दोनों के लिए पवित्र स्थल बन गई । बाद में इसे तोड़कर एक छोटी मस्ज़िद बनाई गई ।[xiv]
इसके अलावा अपने गुरु बुलबुल शाह के नाम पर उसने श्रीनगर के अली कादल में एक लंगरखाना खुलवाया था जिसके ख़र्च के लिए उसे कुछ गाँवों से लगान वसूलने का अधिकार दिया गया ।
रिंचन विद्रोहियों से युद्ध में घायल होकर शासन में आने के तीसरे साल ही मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
संदर्भ
[1]सदर अल दीन का अर्थ है इस्लाम का नायक, यह नाम उसे बुलबुल शाह ने दिया था.
[2]बहारिस्तान ए शाही –हसन बिन अली, तारीख़-ए-कश्मीर – हैदर मलिक, मजमुआदार अंसब माशिखी कश्मीर –बाबा नसीब आदि.
[3]बुलबुल शाह का असली नाम सैयद शरफ़ अल दीन था. वह सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सूफी संत थे जो सहदेव के समय तुर्किस्तान से कश्मीर आ गए थे.
[i]देखें, पेज़ 35, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[ii]देखें, वही, पेज़ 36
[iii]देखें, इकॉनमी ऑफ़ कश्मीर अंडर सुल्तान्स,डा मंज़ूर अहमद, इंटरनेशल जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री एंड कल्चरल स्टडीज़, वाल्यूम 1, अंक 1, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015, पेज़ 39
[iv]देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवाद : जोगेश चन्द्र दत्त), पेज़ 15, पुस्तक 1, खंड 3, जोनराज , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[v]देखें, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 311, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[vi]देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र दत्त), पेज़ 20-21, पुस्तक 1, खंड 3, जोनराज , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[vii]देखें, पेज़ 21, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड,
[viii]देखें, पेज़ 317 , कल्चरल एंड पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर, खंड 2, पी एन के बमज़ाई, एम डी पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली-1994
[ix]1- इस संदर्भ में कल्हण ने हर्ष के समय तुर्की लोगों की कश्मीर में उपस्थिति का ज़िक्र किया है. ये मुस्लिम व्यापारी मुख्यतः व्यपारियों और भाड़े के सैनिकों के रूप में कश्मीर में आये और यहाँ बस गए.
[x]देखें, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 308, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[xi]देखें, पेज़ 40, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[xii]देखें, पेज़ 5, सेवेन एक्जोडस ऑफ़ कश्मीरी पंडित्स, प्रोफ़ेसर के एल भान (ऑनलाइन संस्करण)
[xiii]देखें, पेज़ 41, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[xiv]देखें, पेज़ 40, वही
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री