राष्ट्रवादी नेहरू : पुरुषोत्तम अग्रवाल
‘ कौन हैं भारत माता?’—यह प्रश्न करते और उत्तर में यह बताते कि ‘सारे मुल्क में फैले करोड़ों हिन्दुस्तानी, भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं, इन्हीं की जय है भारत माता की जय’ नेहरू आम हिन्दुस्तानी की चेतना का सम्मान करते हुए, उसके साथ संवाद करते हुए, उसकी देशभक्ति को सही दिशा में ले जाने की कोशिश ही तो आजीवन करते रहे। ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में उन्होंने नोट किया “राष्ट्रीयता असल में पिछली तरक़्क़ी, परंपरा और अनुभवों की एक समाज के लिए सामूहिक याद है…समाजवाद ने, जिसकी पृष्ठभूमि में सर्वहारा वर्ग है, क़ौमी संस्कृति का मज़ाक़ उड़ाया है, क्योंकि उसकी समझ से इस संस्कृति का ताल्लुक़ उस मध्यवर्ग से है जिसका ज़माना अब ख़त्म हो गया है”। नेहरू ने समाजवादियों और कम्युनिस्टों को, दूसरे विश्वयुद्ध की यह वास्तविकता याद दिलाई कि, “जब कोई संकट आया है, राष्ट्रीयता उठ खड़ी हुई है, और उसी का बोलबाला रहा है। और लोगों ने पुरानी परंपराओं में ही ताक़त और आराम को ढूँढा है। मौैजूदा ज़माने की एक अहम घटना यह है कि गुजरे हुए ज़माने की दोबारा खोज हुई है और उसका एक नया रूप सामने आया है। राष्ट्रीय परंपराओं में वापस लौटने की बात मज़दूरों की जमात में और मेहनत का काम करनेवालों में ख़ासतौर से दिखाई दी है”।
क्या यह बात आज भी सच नहीं है? 9/11 के घटनाक्रम के बाद, दुनिया भर में जिहादी आतंकवाद के कारण जो संकट-बोध उत्पन्न हुआ, उससे भारत कैसे और कब तक अछूता रह सकता था? अपने देश में ध्रुवीकरण के प्रयास बहुत पहले से चल ही रहे थे, 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके बाद की घटनाएँ उन प्रयासों का महत्वपूर्ण पड़ाव थीं। ऊपर से भ्रष्टाचार का नैरेटिव और इन चुनौतियों में अंतर्निहित असली एजेंडा—यानि नेहरूवियन भारत-संकल्पना—को समाप्त करने की लगातार कोशिश—इन सब बातों की कांग्रेस के द्वारा और उन महानुभावों के भी द्वारा उपेक्षा जिन्हें श्री अन्ना हजारे में गांधीजी के दर्शन हो रहे थे। ‘मानवनिष्ठ भारतीयता’ की जगह संकीर्ण राष्ट्रवाद को लोक-स्वीकृति दिलाने के लिए घटनाओं और स्थितियों का इससे बेहतर योग हिन्दुत्ववादी विचारधारा के लिए और क्या हो सकता था?
काश, लोकतांत्रिक नेताओं और लिबरल बौद्धिकों ने नेहरू के ऊपर उद्धृत तथा ऐसे और अनेक कथन ध्यान से पढ़े-गुने होते। काश, वे अपने कल्पना-लोक से बाहर निकल कर देख सके होते कि “जब कोई संकट आया है, राष्ट्रीयता उठ खड़ी हुई और उसी का बोलबाला रहा है”। काश, उन्होंने राष्ट्रवाद की सामाजिक गतिकी पर ध्यान दिया होता, और “संकट-काल” में समावेशी, लोकतांत्रिक, सेकुलर भारतीय राष्ट्र के विचार को मज़बूत करने पर विचार दिया होता। काश, उन्होंने समझा होता कि गरीब से गरीब इंसान भी, बुनियादी ज़रूरतों के साथ ही कुछ मानवीय मूल्यों और सामाजिक-राजनैतिक भावनाओं के लिए भी जीता-मरता और संघर्ष करता है।
चुनौती यही है—आम हिन्दुस्तानी की देशहित संबंधी कल्पना और रोज़मर्रा की ज़रूरतों, भावनाओं और नागरिक के तौर पर अधिकारों और ज़िम्मेदारियों को एक साथ साधने वाला लोकतांत्रिक, प्रगतिशील और समावेशी नैरेटिव संभव करना। ऐसे नैरेटिव के बिना जनता को राजनैतिक हिन्दुत्व या औवैसी के नैरेटिव की तरफ़ जाने से रोकना मुमकिन नहीं। जिस भारत-संकल्पना को संदिग्ध बनाने में लिबरल बौद्धिकों ने योगदान किया है, भाजपा ने उसका विकल्प पेश कर दिया है। उसके पास सोशल मीडिया का मैनेजमेंट है, टीवी चैनल्स में अधिकांश उसकी जेब में हैं। विरोधियों के पास संसाधन तो क्या वैकल्पिक नैरेटिव तक ठीक से नहीं है।
कांग्रेस के लिए ही नही, उन सबके लिए जो समाज में बड़ती असहिष्ष्णुता, संकीर्णता और हिंसकता से चिंतित हैं—यह बात याद रखना ज़रूरी है कि इतिहास के इस पल में समावेशी, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद—मानवनिष्ठ भारतीयता—को फिर से केंद्र में लाए बिना समाज को वापस पटरी पर ला पाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है।
(कौन हैं भारत माता की भूमिका से ये पैराग्राफ्स)
जाने माने विद्वान। साहित्यालोचक और इतिहासविद