न होते ह्यूम तो भी बनती कांग्रेस
28 दिसंबर, 1885 को कांग्रेस की स्थापना बंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत काॅलेज में उमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता में हुई। इसमें लगभग 100 लोगों ने भाग लिया; जिनमें गैरसरकारी लोगों की संख्या 72 से कम न थी। यह सत्य है कि ब्रिटिश नौकरशाह अलेन आक्टेवियन ह्यूम द्वारा तत्कालीन वायसराय डफरिन के अनुमोदन पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करते समय उनका उद्देश्य राष्ट्रवाद के खौलते भभके से थोड़ी भाप निकाल देना मात्र था। किन्तु, किसी भी राजनीतिक पार्टी का चरित्र उसके संस्थापकों के सोच पर नहीं, उस पार्टी के अपने संघर्षों, कार्याें तथा वह पार्टी जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उनके सोच व उद्देश्य पर निर्भर करती है। अतः ह्यूम व डफरिन की सोच व उद्देश्य चाहे जो रहे हों परंतु, ऐतिहासिक तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि कांग्रेस की उत्पत्ति और उसके विकास की जड़ें निश्चित और लंबे समय से चली आ रही आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में निहित थीं।
1870-1885 के दौरान भारत में ऐसे कई तत्व मौजूद थे, जिन्होंने भारतीयों में आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना जाग्रत की। उदाहरणार्थ – भारतीय उद्योगों की बढ़ोत्तरी, संचार और परिवहन साधनों का विकास, बुद्धिजीवी व मुखर मध्य वर्ग का उत्थान इत्यादि। इन तत्वों ने भारत में एक नई राजनीतिक-आर्थिक चेतना को विकसित किया। भारतीय पूंजीपति वर्ग शांतिपूर्ण, किन्तु, स्पष्ट रूप से अपनी आवाज ब्रिटिश सरकार के सम्मुख उठाने लगा, उदाहरणार्थ- आयात करों में ह्रास के खिलाफ 1875 में व्यापक अभियान चलाया गया। बुद्धिजीवी वर्ग ने भी अपनी मांगों को लेकर स्वर मुखर करने शुरू कर दिये, उदाहरणार्थ-
बुद्धिजीवियों द्वारा मांग की गई कि भारतीय न्यायाधीशों को अधिकार होना चाहिए कि वे यूरोपीय लोगों के फौजदारी मुकद्मों पर फैसला दे सकें। उनके द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा का भारतीयकरण, प्रेस की स्वतंत्रता, इत्यादि मांगे भी उठाई गयीं।
19वीं सदी में उभरे सांस्कृतिक नवजागरण और समाज सुधार आन्दोलनों ने भी सामाजिक रूप से प्रगतिशील और राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी वर्ग के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। राष्ट्रवादी अखबारों और पत्रिकाओं, उदाहरणार्थ- हिन्दू, ट्रिब्यून, बंगाली, मराठा, केसरी, अमृत बाजार पत्रिका, इत्यादि- ने नये राजनीतिक जीवन की उत्पत्ति का संदेश दिया।
साहित्य और कला के क्षेत्र में कवियों, उपन्यासकारों, नाटककारों और रंगमंच के कलाकारों- मधुसूदन दत्त, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, दीनबंधु मित्र, भारतेन्दु, रामलिंगास्वामी इत्यादि, की नक्षत्र मंडली भी उभर कर सामने आई जिन्होंने राष्ट्रभक्ति की भावनाएं जगाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इस प्रकार ‘निर्माण की प्रक्रिया में एक राष्ट्र’ (तिलक और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी) के बतौर भारत के आर्थिक, राजनीति और सांस्कृतिक तत्व उन्नीसवीं सदी के द्वितीयार्द्ध में आकार ग्रहण करने लगे थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस प्रक्रिया के शक्तिशाली पहलुओं व बुनियादी सीमाओं, दोनों का प्रतिनिधित्व करती थी। अतः प्रश्न यह भी उठता है कि ए ओ ह्यूम को मुख्य संगठनकर्ता बनाने की आवश्यकता क्यों उठी? कारण स्पष्ट है कि तत्कालीन नवकुलीन बुद्धिजीवी, जिसके पास नेतृत्व था, पश्चिमी मूल्यों और महान् भारतीय अतीत के प्रति आसक्ति के दो ध्रुवों के मध्य झूल रहे थे और ब्रिटिश शासकों की खुले रूप से विरोध की परंपरा की जड़ें भी तब तक जम नहीं सकी थीं।
साथ ही भारतीय नेतृत्व की यह सोच भी रही कि अपनी शैशवावस्था में ही संगठन द्वारा ब्रिटिश सरकार से दुश्मनी लेना आत्मघाती हो सकता था। अतः उनका विश्वास था कि कांग्रेस जैसे राजनीतिक संगठन की स्थापना यदि ह्यूम जैसे ब्रिटिश अधिकारी के नेतृत्व में होती है तो यह संगठन ब्रिटिश सरकार के प्रकोप से सुरक्षित रह सकता था।
संक्षेप में, जहां ह्यूम ने कांग्रेस को ‘सुरक्षा वाल्व’ के रूप में इस्तेमाल करना चाहा, वहीं कांग्रेसी नेतृत्व ने उसका सहयोग इसलिए स्वीकार किया कि यह सरकारी दमन से सुरक्षा का कार्य करेगा। ह्यूम की उपस्थिति जहां एक ओर सरकार के शक को दिग्भ्रमित करेगी, वहीं दूसरी ओर संगठन के शैशव काल में सुरक्षा कवच का कार्य भी करेगी। आगामी घटनाक्रमों ने राष्ट्रीय नेतृत्व की इस सोच को सही साबित किया।
आधुनिक अर्थों में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही भारत के राजनीतिक इतिहास की शुरूआत होती है। मध्यमार्गी समूहों के अलावा कांग्रेस में दक्षिणपंथी और वामपंथी स्वर भी प्रमुख थे। यह काफी अविश्वसनीय था कि एक राजनीतिक संगठन ऐसे चरम मतभेदों को साथ लेकर आगे बढ़ा। आजादी के पूर्व के काल में विभिन्न विचारों के मध्य पेचीदा संबंध सहमतियों और गंभीर असहमतियों में प्रतिबिंबित हुए । मिलन-बिन्दु और भिन्नता निर्देशक है जो भारतीय राजनीति के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को दर्शाते हैं। स्वामी-भक्ति की भावना और प्रगतिवाद के आग्रह के मध्य झूलते हुए आने वाले दशकों में धीरे-धीरे और थमते-ठिठकते यह पार्टी व्यापक आधार वाले बहुतेरे वर्गों के सम्मिलित आन्दोलन में बदल गई।
निःसंदेह कांग्रेस की अगुआई में भारतीय स्वाधीनता संघर्ष एक महान् परियोजना था। विभिन्न विचारधाराएं एक बैनर तले आईं। हालांकि, राजनैतिक शक्तियों ने आन्दोलन को विभिन्न दिशाओं में खींचा, फिर भी उपनिवेशिक शासन की जगह लेने वाली व्यवस्था के विकास के सांझे लक्ष्य में रूकावट नहीं पहुँचाई। विभिन्न विश्व-दृष्टियों के बावजूद ये एक सांझे लक्ष्य की ओर चलीं।