ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बग़ैर
जब कभी सोचता हूँ कि ग़ालिब कौन है तो ग़ालिब की ही तरह दिमाग़ ख़ुद ही सवाल कर बैठता है कि ‘कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या? उसकी बहुतेरी छवियों में से कई छवियाँ दिलोदिमाग़ के मुख़्तलिफ़ गोशों में गर्दिश करने लगती हैं। ग़ालिब तो वह अपना बिंदास चच्चा है जिसने खुलेआम कहा कि वह आधा मुसलमान है क्योंकि शराब पीता है लेकिन सुअर नहीं खाता और उस मीर की शायरी पर मरता है जिसने ऐलानिया कहा था कि, ”कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया।” ग़ालिब तो वह शै है कि अपने रब की आँखों में आँखें डाल कर जन्नत को भी जहन्नम में मिला देने की फ़रमाइश कर बैठता है और वह भी किसलिये? ताकि ‘सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही’ मिल जाए।
वह अपनी तमाम मसाइले तसव्वुफ़ और उनके बयानात के बावजूद दीन व दुनिया का वली भले न बन पाया हो पर शायरी का तो वह वली-ए-आला है। उसे इल्म था तो उसने कहा कि ‘ये मसाइले तसव्वुफ़, ये तिरा बयान ग़ालिब, तुझे हम वली समझते जो न बादाख्वार होता’ पर उसे इल्म नहीं था कि दुनिया भर में फैले उसके भतीजे-भतीजियाँ उसे शायरी का वली-ए-आला मानते हैं या शायद उसे इल्म था तभी तो उसने कहा कि
‘हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे / कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाजे बयाँ और’
गौहर जान का वह नाकाम आशिक़ था या गौहर जान उसकी नाकाम महबूबा पर सच तो यह है कि उन दोनों का इश्क़ अपने आप में एक कामयाब इश्क़ था। शायद यह इश्क की ही तासीर थी कि शायर-ए-अहद ने बुलंद व बाला आवाज़ में वज्द फ़रमाया कि ‘कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीरे-नीम-कश को / ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता.’ वह अपनी शायरी में भी और अपनी ज़िंदगी में भी एक नामुकम्मल इश्क़ की मुकम्मल तस्वीर जैसा था. तभी तो वह कह उठता है कि ‘यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता / अगर और जीते रहते, यही इंतेज़ार होता.’
उसे दोस्तों की सलाहें बुरी लगती हैं और वह लगभग डपटते हुए कह पड़ता है, ‘यह कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह / कोई चारा साज़ होता, कोई ग़मगुसार होता.’ तुम्हारी इस कैफ़ियत को मेरे प्यारे चच्चा, तुम्हारा यह इश्क का मारा भतीजा बहुत अच्छे से समझता है.
मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ उर्फ़ मेरे हरदिलअज़ीज़ चच्चा, तुम्हें क्या बताऊँ कि जो तमाशा तुम्हारे आगे शबो रोज़ होता था उस तमाशे ने अब अपना रंग बदल लिया है. जो दुनिया तुम्हारे आगे ‘बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल’ थी वही दुनिया अब ऐसे खेल-तमाशे दिखा रही है जिसमें हज़ारों बच्चे एक साथ मौत की आगोश में जा छुप रहे हैं. उनकी माएँ आहों बुकाँ कर रही हैं और उनके बाप की आँखों में एक मुजस्सम खूँ चुकाँ मंज़र हमेशा के लिए साकत हो जा रहा है. पता नहीं चच्चा, तुम अब होते तो इस दुनिया को बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल कह पाते या नहीं. तुम्हारा यह भतीजा तो अब नहीं कह सकता क्योंकि वह देख रहा है कि इस दुनिया पर कुछ साज़िशी और शैतानी ताकतों ने कब्ज़ा कर रखा है और तमाम ख़ूनी खेल तमाशे उनके एक इशारे पर कब-कहाँ हो जा रहे हैं यह ख़ल्क़े-ख़ुदा बस उसे देखते और समझते ही रह जा रही है.
चच्चा, तुमने अपने दोस्त मियाँ मीर मुंशी को एक ख़त में लिखा कि “भाई क्या पूछते हो? क्या लिखूँ? दिल्ली की हस्ती मुनस्सर कई हंगामों पर थी. क़िला, चाँदनी चौक, हर रोज़ मजमा जामा मस्जिद का, हर हफ़्ते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का. ये पाँचो बातें अब नहीं. फिर कहो, दिल्ली कहाँ? हाँ, कोई शहर इस नाम का हिन्दुस्तान में कभी था.” हक़ीक़त तो यह है चच्चा कि अब होते तुम तो इन पाँचों बातों का ज़िक्र शायद भूल कर भी नहीं करते.
क़िला अब सिर्फ़ लाल दीवारों का एक बड़ा घर है. उसमें कुछ भी ऐसा नहीं बचा जो क़िले को क़िला बनाता हो. वहाँ से हर साल प्रधानमंत्री एक भाषण देते हैं जिसे जनता एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देती है क्योंकि उसे भी मालूम है कि ‘जन्नत की हक़ीक़त क्या है?.’
वहाँ साल में एक-दो मुशायरे-कवि सम्मेलन होते हैं जिसमें शाएर-कवि अपनी चंद पंक्तियों से पाकिस्तान को नेस्त व नाबूद करवा कर और इस बहादुरी के बदले वहाँ आई जनता से तालियाँ पिटवा कर बादाखोरी की जुगाड़ में लग जाते हैं कि कहीं न कहीं उन्हें यह गुमान रहता है कि जो तुमने कहा था, ‘हम तुम्हें वली समझते, गर ना बादाख्वार होता’, उन्हीं के लिए कहा था और वे सोचते हैं कि वली होने से बेहतर शायर होना ही है और वे बादाख्वारी के लिए चल देते हैं. वहाँ रामलीलाएँ भी होती हैं और उसमें देश के प्रधानमंत्री, दूसरे मन्त्री, सम्मानित नेतागण और अधिकारीगण शामिल होते हैं और उससे प्रेरणा पाकर वो-वो लीलाएँ करते हैं कि विष्णु अवतार राम या कृष्ण क्या, स्यवं विष्णु जी भी शरमा जाएँ.
चाँदनी चौक में न अब चाँदनी है, न चौक. भीड़ है, एक जम्मे ग़फ़ीर है, एक अज्दहाम है. वहाँ हर तरह के व्यापारी हैं, मवेशी हैं. ऑटो हैं, रिक्शा हैं, कारें हैं, बाइक्स हैं. एक ऐसा चिल्लपों हैं कि बस ख़ुदा की पनाह. जामा मस्जिद पर लुटेरों के एक गैंग का कब्ज़ा है. उसके चारों ओर तमाशा अब भी होता है पर अब वह देखने की चीज़ नहीं है, देख कर कुढ़ने और जी जलाने की चीज़ है.
और जमना का पुल…चच्चा, अब तो तुम वहाँ कभी ग़लती से भी चले जाते तो अगले कई दिन बदन पर इत्र-फुलेल मलते फिरते कि उस गंदे नाले की बदबू से किसी तरह निजात मिले. फूल वालों की सैर पता नहीं तुम्हारे ज़माने में कैसी होती थी पर अब उस पर कुछ कर्मकाण्डियों और बाज़ार का कब्ज़ा है.
चच्चा, अभी वक़्त नहीं है वर्ना तुमसे कुछ और बातें करता. पर सच यह चच्चा कि भले ही तुम्हारे ज़ेहन में आगरा के गली कूचे, पुरानी दिल्ली की वह पुरानी गली क़ासिम जान, बल्लीमारान के दिलचस्प क़िस्से और कलकत्ता की कुछ तस्वीरें ही एक भूली-बिसरी याद की तरह मौजूद हों पर एक पूरी दुनिया है…एक बहुत बड़ी दुनिया जो तुमपर मर मिटी है. जो तुम्हारे चाहने वालों में शरीक है और अपने को ख़ुशक़िस्मत समझती है कि ग़ालिब नाम का एक शायर कभी गज़ल सरा हुआ था. तुम्हारे ये दीवाने आज तुम्हारे यौमे-पैदाइश पर तुम्हें गुल-हाय-अक़ीदत व मुहब्बत पेश कर रहे हैं.
जहाँ हो वहाँ से ज़रा झाँक कर देख लेना और सबको सुना कर ज़रा एक बार फिर गुनगुना देना कि…”हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है / वो हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता.”
और आख़िर में एक राज़ की बात बताता हूँ चच्चा. किसी से कहना नहीं. कि जब तुम्हारा यह भतीजा मरेगा तो इसके घर से चंद तस्वीरें बुताँ तो नहीं मिलेंगी पर हसीनों के ख़तूत की ता’दाद कितनी होगी, उसके बारे में अंदाजा भी नहीं दे सकता.
Cover Photo Credit: Rekhta