Editorial

उदयपुर हिंसा : किधर चले गए हैं हम?

[उदयपुर में आज हुई घटना भयावह है। यह लिखे जाने दोनों अपराधी गिरफ़्तार हो चुके हैं और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सूचना दी है कि इस केस का अनुसंधान ऑफिसर स्कीम के तहत कराया जाएगा। उम्मीद है अपराधियों को जल्द से जल्द सज़ा मिलेगी। लेकिन पिछले काफी समय से जिस तरह की हिंसा चल रही है, उस पर रुककर सोचने की ज़रूरत है। 

हमारे संपादकीय टीम के सदस्य अक्षत ने इस पर जो टिप्पणी लिखी है, हम आज उसे संपादकीय की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। ]


एक होती है हिंसा, और एक होती है हिंसा की संस्कृति। हिंसा पहले भी हुई है, आज से कई गुना भयावह। काश जब लिन्च करने के आरोपियों को मला पहनाई जा रही थी, तभी इस तरह की हिंसा पर सख्ती से रोक लगाई गई होती, भर्त्सना की गई होती। लेकिन इसकी जगह सोशल मीडिया हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है, इसमें कोई शक नही है।

उदयपुर के अपराधियों को राजसमन्द से गिरफ्तार किया गया है। दिसंबर 2017 में इसी राजसमन्द में ऐसे ही वीडियो बनाकर एक मजदूर को पीट-पीटकर मारा गया और वह वीडियो वायरल किया गया।
यह स्पष्ट है कि हिंसा और नफरत की भाषा व competitive धार्मिक कट्टरपंथ सोशल मीडिया पर जितना फैलेगा, उससे बेरोज़गारी व हताशा से जूझ रहे युवा और भी दिग्भ्रमित होंगे। आप किसी भी समुदाय या विचार के हों, यदि मनुष्य हैं और आम नागरिक का जीवन निर्वाहन कर रहे हैं तो यह खूनखराबा आपके पक्ष में बिल्कुल भी नही है।
हम किसी भी धर्म या विचार को तर्क की कसौटी से परे नही रख सकते और साथ ही नीच या अश्लील भाषा द्वारा अपमानित करके किसी प्रगतिशीलता का प्रचार भी नही कर सकते। बेहतर यह हो कि हम राजा राम मोहन राय या हामिद दलवई से सीखें कि दूसरों से सवाल करने से पूर्व अपने खुद के धर्म की विसंगतियों पर बोलना होता है। हर धर्म में खुद को आइना दिखककर बदलाव की बात करने वाले लोग होने चाहिएं। यदि आप खुद की धार्मिक कट्टरता का बचाव करते है तो दूसरों की उपदेश नही ही दे सकते। हथियार लेकर धर्म को बचाने निकले लोग, गालियाँ देकर धर्म को बचाते लोग लोकतंत्र ही नहीं इंसानियत के लिए भी खतरा हैं।
सबसे बड़ी बात, यदि हिंसा से मुनाफा हो रहा हो तो घर जलने से या खून बहने से AC कमरों में बैठे लोगों को दिक्कत नही होती। हमें होती है, अतः सोशल मीडिया में किसी चीज़ की लत न ही पालना अच्छा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी कार्यवाहियों में समाज के ज़िम्मेदार लोग भी शामिल हो रहे हैं। नाम, शेयर और retweet की भूख बढ़ती ही जा रही है। जनता से जुड़े मुद्दों पर सांप्रदायिक तमाशे को तरजीह दी जा रही है। गिरता रुपया, बेरोज़गारी, ग़रीबी बहस से बाहर है और धार्मिक पागलपन मुख्यधारा बनता जा रहा है।
स्कूल में हमें एक प्रार्थना करवाई जाती थी- “हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें/दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें”। आज के समय में बहुत प्रासंगिक है। काश देश का शीर्ष नेतृत्व सामने आकर इस आग को बुझाने की अपील करता।

Akshat Seth

मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।
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