हामिद दलवई : मुस्लिम समाज के भीतर सुधार की आवाज़
आजकल एक धारणा आम हो गई है, या सुनियोजित तरीके से कर दी गई है कि मुस्लिम समाज में समाज सुधार के लिए कोई प्रयास नहीं हुए और लगभग हर मुसलमान कट्टर है। यदि हम तथ्यों को देखें तो यह धारणा सच की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। ऐसी कई आवाज़ें रही हैं जिन्होंने मुस्लिम समाज के भीतर आत्मलोचना व सुधार की वकालत की, और साथ ही धर्म की मनचाही व्याख्या से उपजी कुरीतियों के खिलाफ खड़े भी हुए। हामिद दलवाई उन्हीं में से एक हैं।
इतिहास इस बात का गवाह है कि मानवता की तरक्की तभी संभव हुई है जब परंपरा और संस्कृति के नाम पर दकियानूसी चलन का विरोध करने की हिम्मत लिए कुछ लोग आगे आए हैं। इसीलिए हम कापरनिकस और गैलीलियो को जानते हैं। इसीलिए हम राजा राम मोहन रॉय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर से लेकर सवित्रीबाई फुले व फातिमा शेख तक को आदर की नजर से देखते हैं। जो रूढ़िवादी तकतें इनके रास्ते में रोड़ा बनीं उनका नाम आज कोई नहीं जानता। लेकिन आजकल एक धारणा आम हो गई है, या सुनियोजित तरीके से कर दी गई है कि मुस्लिम समाज में समाज सुधार के लिए कोई प्रयास नहीं हुए और लगभग हर मुसलमान कट्टर है। यदि हम तथ्यों को देखें तो यह धारणा सच की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। ऐसी कई आवाज़ें रही हैं जिन्होंने मुस्लिम समाज के भीतर आत्मलोचना व सुधार की वकालत की, और साथ ही धर्म की मनचाही व्याख्या से उपजी कुरीतियों के खिलाफ खड़े भी हुए।
मुस्लिम समाज में सुधार के अग्रदूत
हामिद उमर दलवई महाराष्ट्र के कोंकण में 1932 में जन्मे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने समाज में कट्टरपंथियों का विरोध सहते हुए भी मुस्लिम समाज सुधार की वकालत की। दलवई पेशे से एक पत्रकार व लेखक रहे। शुरुआत में मन जयप्रकाश नारायण की समाजवादी धारा में राजनीति की ओर लगा लेकिन धीरे-धीरे वे मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों का मुकाबला करने की ओर उन्मुख होते चले गए। इसके लिए उन्होंने कई पत्रिकाओं में लेख लिखे, सेमीनार किये व आंदोलन भी।
ट्रिपल तलाक़ के खिलाफ़ उठाई आवाज़
हामिद दलवई ने विशेष रूप से अपने समाज की महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई। आज जब कि ट्रिपल तलाक का मुद्दा एक राष्ट्रीय बहस बना और उसपर कानून पारित हुआ, तो यह दावा अक्सर किया जाता है कि इससे पहले इस विषय में किसी ने आवाज नहीं उठाई। हामिद दलवई ने 1960 के दशक में ही इस मुद्दे को उठाना शुरू किया जिसके लिए उनका भारी विरोध भी हुआ।
1966 में हामिद दलवई ने तीन तलाक की कुप्रथा का शिकार हुई मुस्लिम महिलाओं का एक जुलूस मुंबई में निकाला जिसे लेकर वे महाराष्ट्र विधान सभा तक गए। उस मार्च में केवल 7 महिलायें थीं। लेकिन यह विषय अखबारों की सुर्खियां जरूर बना।
दरअसल हामिद ने खुद किशोरावस्था में पिता द्वारा अपनी माँ व अन्य पत्नियों के साथ किये गए व्यवहार का दंश झेला था जिसका उनपर गहरा असर हुआ। इसके अलावा हामिद के एक दोस्त की बहन भी थी जिसे महज 18 की उम्र में तीन तलाक देकर घर से निकाल दिया गया था।
धर्म के ठेकेदारों की आँख की किरकिरी
यह तय ही था कि हामिद दलवई हमेशा धर्म के ठेकेदारों व कट्टरवादियों की आँखों की किरकिरी बने रहे। लेकिन उन्होंने जीवन पर्यंत अपने समाज में कुरीतियों का विरोध करना नहीं छोड़ा।
दरअसल यह वह समय था जबकि देश का बहुत ही भयावह तरीके से बंटवारा हुआ और उसके बाद के जख्मों ने धार्मिक कट्टरवाद को जिंदा रखा। गांधी ने अंत तक देश के विभाजन का विरोध किया व काँग्रेस कार्यसमिति द्वारा पारित होने पर भी उसे नहीं माना। लेकिन देश के दोनों प्रमुख धर्मों में सांप्रदायिक शक्तियों ने इतनी पैठ बना ली थी कि बंटवारा टल नहीं पाया। गांधी ने हमेशा यह वकालत की कि हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्मों में अपनी-अपनी कुरीतियों को लेकर अंदर से ही आवाज़ें उठें व दोनों धर्म एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। साथ ही साथ जहां जो समुदाय बहुसंख्यक हो वह अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा करे।
हामिद ने देखा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बन तो गया है लेकिन बंटवारे के जख्म अभी ताज़ा हैं और उसमें अपने समाज के कट्टरपंथ के हिस्से की भूमिका को गांधी के रास्ते के अनुसार बेनकाब करना जरूरी था। धर्मनिरपेक्षता का सीधा सा अर्थ यह ही है कि देश-समाज के गैर-धार्मिक पहलुओं (जैसे राजनीति या अर्थनीति) को धर्म के आधार पर न देखा जाए। धर्म एक निजी मामला हो लेकिन उससे यह तय न हो कि किसी को रोटी मिलेगी या नहीं, वह सुकून से एक नागरिक की तरह रह सकेगा या नहीं। देश की उलझी हुई सियासत में यह एक कड़वा सच हामिद को दिख रहा था कि अपने समाज को आत्म-उन्मुख और कट्टरपंथियों के हवाले होने से बचाने के लिए कुछ कड़वी बातें कहनी पड़ेंगी।
मुस्लिम सत्यशोधक मण्डल
हामिद दलवई में अपने समाज से शांति लेकिन दृढ़ता से खुद के भीतर झांक बदलाव को अंगीकार करने की अपील नजर आती है। ज्योतिबा फुले के ‘सत्यशोधक समाज’ की तर्ज पर दलवई ने ‘मुस्लिम सत्यशोधक मण्डल’ शुरू किया। इस मण्डल के जरिए उन्होंने युवाओं, महिलाओं व आम लोगों को जोड़कर परिवार नियोजन, स्वास्थ्य एवं आधुनिक शिक्षा पर बल दिया। अपने काम के लिए जहां दलवई को दिलीप चित्रे जैसे प्रख्यात मराठी व अंग्रेजी के साहित्यकार का साथ व दोस्ती मिली (चित्रे ने दलवई को “an angry young secularist” की संज्ञा दी थी), वहीं कट्टरवादियों की बेरुखी भी नसीब हुई।
किसी को पहचानने का सबसे अछा तरीका उसकी लेखनी से होकर जाता है।
दलवई ने मूलतः मराठी में लिखा लेकिन 1968 में एक किताब अंग्रेजी में भी लिखी जिसका शीर्षक Muslim Politics in Secular India था। उनकी भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के अपने मजहब के ठेकेदार बनने वाले नेताओं व धर्मगुरुओं पर खरा-खरा जरूर लिखा है लेकिन किसी तरह से अपमानजनक या उत्तेजित करने वाली भाषा का प्रयोग नहीं दीखता है। उनकी भाषा तो सत्य कहने से न हिचकते हुए भी संवाद करने वाली है। एक जगह दलवई लिखते हैं:
……लेकिन मुझे लगता है कि उन भारतीय मुसलमानों से अपील करना व संवाद स्थापित करना मेरा कर्तव्य है जो असमंजस में हैं और भारत की सांप्रदायिक समस्या को लेकर कोई स्थिर राय नहीं रखते। वे बहकाए जाते हैं व सांप्रदायिक हो जाते हैं। उनके साथ संवाद स्थापित कर उन्हें इस समस्या के एक वैकल्पिक रुख के बारे में सजग बनाना सहायक होगा। जब भी मैं देश में यात्रा पर होता हूँ, मैं स्थानीय मुसलमानों से मिलकर इस मुद्दे पर चर्चा करता हूँ। इस विषय में मैं दिमाग खुला लेकर चलता हूँ चूंकि उनकी कुछ वास्तविक समस्याएँ हैं।
दोनों तरह की सांप्रदायिकता का विरोध
इस किताब में उन्होंने जोर देकर बार-बार यह कहा है कि भारतीय मुस्लिम समाज में खुद की बुराइयों को झाँककर देख सकने वाले बुद्धिजीवियों की सख्त जरूरत है। ज्ञात रहे कि मात्र दो दशक पहले मुस्लिम लीग व जिन्ना द्वारा भड़काई गई नफरत ने देश का विभाजन करने में भूमिका तो निभाई ही लेकिन भारत में रह गए मुसलमानों के लिए भी मुश्किल स्थिति पैदा कर दी थी। दलवई का जोर इसी बात पर था कि मुसलमान न सिर्फ भारत में बराबरी से रह पाएँ लेकिन देश की प्रगति, शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में अलग-थलग भी न पड़ जाएँ।
ऐसा नहीं है कि दलवई की सभी बातें आँख मूँद कर सहमति के योग्य हैं। जैसे यह कहना कि हिन्दू कट्टरपंथ मुस्लिम सांप्रदायिकता के जवाब या मुस्लिम लीग की प्रतिक्रिय में पैदा हुआ तथ्यात्मक रूप से सही नहीं होगा चूंकि वर्ण व्यवस्था को समाज में स्थापित रखना भी उसी विचारधारा का हिस्सा था और मुसलमानों से नफरत करना भी। लेकिन हामिद दलवई के लिखने या जीवन से ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि वे तारिक फतह जैसे लोगों की तरह एक तरह के कट्टरपंथ का विरोध करते-करते दूसरे की शरण में चले गए हों। उनके पूरे जीवन में उन्होंने भाग जाने की वजाय फुले व गांधी की राह पर चलते हुए अपने समाज में तमाम रुकावटों के बीच भी संवाद करना जारी रखा।
1977 में किडनी की बीमारी के चलते दलवई की आसमयिक मृत्यु हो गई जो कि न सिर्फ उनके परिवार के लिए बल्कि भारत को सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष बनाने की छह रखने वालों के लिए भी बड़ा झटका था। शायद रहे होते दलवई तो आत्मसुधार व लड़ने की सतत जिजीविषा रखने वाले हामिद शाह बानो के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ खुलकर बोलते।
यह एक त्रासदी है कि सच्चे अर्थों में मजहब को सियासत से अलग रखने व इंसानियत की बात करने वाले व्यक्ति को आज देश की बहुसंख्यक सांप्रदायिकता अपने भीतर मिलाने की कोशिश करती है और स्वराज्या जैसी वेबसाईट में उन्हें जगह मिलती है वहीं जिस समाज के भीतर उजाला लाने के लिए वे लड़े वहाँ ठेकेदारों की साजिश के तहत उन्हें भुला देने की कोशिश की जाती है।
तथ्य यह भी है कि हामिद दलवई ने गाय को लेकर 1960 के दशक में गरमाई सियासत को भी सिरे से खारिज किया चूंकि उनके अनुसार वह हिंदुओं को आगे नहीं पीछे ले जाने वाला कदम था।
हामिद दलवई के भाई हुसैन दलवई काँग्रेस पार्टी से महाराष्ट्र में विधायक व मंत्री रहे तथा 2011 से 2020 तक राज्यसभा के सांसद भी। इसी साल मई 2022 में उनकी मृत्यु हुई। एक अखबार से बातचीत करते हुए 2017 में उन्होंने कहा था कि यदि हामिद की असमय मौत न हुई होती तो शायद ट्रिपल तलाक बिल बहुत जल्दी पास हो जाता।
उनके शब्दों में “हामिद भाई में मुसलमानों ने एक आकुल समाज सुधारक को खो दिया।”
यह हमारी छोटी सी कोशिश है कि सत्य, शांति व रौशनखयाली की राह चलने वाले हामिद दलवई से आपको रूबरू करवाने की।
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।