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जंजीरों में हेराल्ड है या फिर आज़ादी का इतिहास?

नेहरू सोच रहे हैं।

आज गुरुवार को अख़बार (TOI) में एक जबर्दस्त तस्वीर छपी। हो सकता है अनजाने में छप गई हो। मालूम न हो कि इसका अर्थ या मैसेज बहुत गहरा हो सकता है। या यह भी हो सकता है कि पाठक (जनता ) को पिलाई अफीम पर इतना भरोसा हो कि अब वह दिखाए जा रहे मैं अतिरिक्त कुछ सोचे ही नहीं। उसके सोचने की सारी क्षमता खत्म हो गई हो। वह तस्वीर को देखकर केवल जंजीरें ही समझे। और इसी अर्थ को ग्रहण करे कि नेशनल हैरल्ड पर जंजीरें  कस गई है। नेहरु खतम। कांग्रेस खतम।

जो भी हो।

तस्वीर छपी है दो जंजीरों की। उसके पीछे एक छोटा सा बोर्ड दिख रहा है जिस पर लिखा है नेशनल हेरल्ड, नवजीवन। और उसके पीछे नेहरू की वही चिर परिचित मुद्रा है, ठोड़ी पर हाथ रखे विचारमग्न।

नेहरू सोच रहे हैं। नेहरू सोचते थे। यही उनकी सबसे बड़ी समस्या थी। और उससे बड़ी समस्या थी सोचे हुए को पूरा करने की जिद। नेहरू जिद्दी थे। पिता बहुत बड़े आदमी। इसलिए तो सच हो या झूठ यह कहनियां बनीं कि वह लंदन के जिस हेरो स्कूल में पढ़ते थे उसके हर दरवाजे पर एक गाड़ी खड़ी रहती थी कि पता नहीं जवाहर किस गेट से निकलें! बड़े बाप के बेटे थे। नंबर एक की कमाई थी। वकालत जैसे उस समय के सामाजिक मूल्यों के हिसाब से सबसे प्रतिष्ठित प्रोफेशन से। कोई बुराई नहीं थी। उस समय हर बाप अपने बच्चे को अपनी क्षमता के अनुसार ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं देना चाहता था।

लेकिन जवाहर तो जिद्दी थे।

उसी बाप को मोतीलाल नेहरू को हाथ जोड़कर बापू के सामने खड़ा करवा दिया कि गांधी जी अभी में और पैसा कमा लूंगा। आपके आजादी के आंदोलन में और पैसे दूंगा। मगर प्लीज जवाहर को इस थर्ड क्लास में लेकर मत जाएं।

यह इतिहास है। जिसे नेहरू के विरोधी तो क्यों जानेंगे। खुद कांग्रेसी भी नहीं जानते। खैर यहां इतिहास बताना उद्देश्य नहीं है। तो गांधी ने जवाहर की तरफ देखा और जवाहर ने प्रार्थना करते पिता की तरफ से मुंह फेर लिया।

तो उसी दृढ़ निश्चयी जवाहर ने तब नेशनल हेरल्ड निकाल दिया जब देश के सारे अंग्रेजी अख़बार ब्रिटिश सरकार का समर्थन कर रहे थे। हेरल्ड आजादी की लड़ाई का मुखपत्र बन गया।

यह जंजीरे उसी हेरल्ड दफ्तर में लगीं हैं।

आजादी की लड़ाई लड़ने के अभी तक उठाए जा रहे खामियाजे! मगर जो आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे। उनका प्रतिशोध तो समझ में आता है। मगर हेरल्ड को इस हाल में पहुंचाने के असली जिम्मेदार तो कांग्रेसी है। एक आजादी के आंदोलन का गौरवशाली इतिहास लिया हुआ अख़बार वह नहीं चला पाए। वह अख़बार जिसके संपादक उस वक्त के सबसे बड़े अंग्रेजी पत्रकार चेलापति राव हुआ करते थे। वे जब संपादकीय लिखते थे और नेहरू उनसे मिलने जाते थे तो चपरासी कहता था अभी अंदर नहीं जा सकते। साहब संपादकीय लिख रहे हैं। और नेहरू वहीं बाहर बैठ जाते थे।

बार बार इतिहास आ जाता है। इसलिए कि कांग्रेसियों ने देश को अपने लोगों तक को बताया नहीं। सत्ता के नशे में इन कांग्रेसियों को कुछ याद नहीं रहता। तो वह अख़बार और इसके साथ निकलने वाले दो और अखबार, उर्दू का कौमी आवाज जो उस समय का सबसे बड़ा उर्दू अखबार था और हिन्दी का नवजीवन बंद हो गए। भारी घाटे की वजह से। पत्रकारों, गैर पत्रकार कर्मचारियों को देने के लिए तनख्वाहें ही नहीं थी।

भारी अव्यवस्था का आलम। जैसा पार्टी में भी है।

और वैसा ही यहां भी कि वहां अखबारों में तीनों में बड़ी तादाद में दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी लोग भर्ती कर लिए गए थे। अख़बार के संपादक तक के स्तर पर। पार्टी का भी यही हाल है। वहां भी उच्चतम स्तर जो महासचिव का होता है वहाँ भी नेहरू विरोधी, जातिवादी, प्रतिगामी सोच के लोग छा गए।

तो अख़बार बंद होने, न चला पाने के लिए किसी और दोष नहीं दिया जा सकता।

नेहरू सोच रहे हैं। ताले में बंद। जंजीरों में कैद। उन्होंने जो किया वह उनको करना चाहिए था। मगर कांग्रेस ने जो किया या कर रही है वह क्या है?

जंजीरे तोड़ने के लिए अख़बार निकाला था। अब अख़बार बंद है और खुद नेहरू जंजीरों में।

दोष कांग्रेस का भी कम नहीं है।

Shakeel Akhtar

वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक मामलों के विशेषज्ञ

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